जी.एस.टी. का भूत, सरकार करदाताओं को परेशान करने से परहेज करे

Edited By Punjab Kesari,Updated: 16 Nov, 2017 12:58 AM

gst govt avoiding harassing taxpayers

राजनीति केवल सत्ता का ही खेल होती है। यह खेल सत्ता तंत्र और नागरिकों के बीच खेला जाता है-यानी अधिक शक्तिशाली और कम शक्तिशाली के बीच। नागरिकों पर सत्ता तंत्र के वर्चस्व का मौलिक रूप है टैक्स लगाने की शक्ति। टैक्स अदा करने से बचना जहां सत्ता तंत्र को...

राजनीति केवल सत्ता का ही खेल होती है। यह खेल सत्ता तंत्र और नागरिकों के बीच खेला जाता है-यानी अधिक शक्तिशाली और कम शक्तिशाली के बीच। नागरिकों पर सत्ता तंत्र के वर्चस्व का मौलिक रूप है टैक्स लगाने की शक्ति। टैक्स अदा करने से बचना जहां सत्ता तंत्र को चुनौती देने और कमजोर करने के तुल्य है वहीं यह सत्ता तंत्र की वैधता का भी क्षरण करता है। 

जी.एस.टी. की राजनीति का महत्व पार्टीगत राजनीति की सीमाओं से आगे शुरू होता है। यदि टैक्स बहुत कम लगाया जाए तो सत्ता तंत्र नागरिकों के सामूहिक कल्याण के लिए बहुत अधिक वित्तीय संसाधन नहीं जुटा पाता और यदि टैक्स बहुत अधिक लगा दिया जाए तो बगावत के हालात पैदा हो जाते हैं जोकि लोकतंत्र में सत्तारूढ़ पार्टी को बाहर का रास्ता दिखाने के रूप में प्रकट होती है। इस समय जी.एस.टी. में कमी लाने और बहुत से उत्पादों को न्यून टैक्स स्लैबों में स्थानांतरित करने तथा प्र्रक्रियाओं के विवेकीकरण का जो सिलसिला चल रहा है, वह जनता की बगावत को रोकने का ही प्रयास है। लोकतंत्र के क्रियाशील होने की दृष्टि से यह एक शुभ संकेत है। 

केन्द्र और राज्यों को अवश्य ही मिलकर चलना होगा...
यह बहुत उत्साहवद्र्धक बात है कि वित्तमंत्री अरुण जेतली अभी जी.एस.टी. में और भी बदलावोंं का संकेत दे रहे हैं। कुछ प्रावधानों के लिए यदि  संसद और प्रादेशिक विधानसभाओं द्वारा पारित जी.एस.टी. कानून में संशोधन की जरूरत के लिए विधायिका की सक्रियता की जरूरत पड़ती है तो यह कोई बहुत बड़ा व्यवधान नहीं होगा। जी.एस.टी. के कुछ ऐसे पहलू हैं जो जनता पर सत्ता तंत्र की निरंकुश शक्ति को प्रदर्शित करते हैं-जैसे कि किसी उद्यम को अपनी गतिविधि वाले सभी राज्यों में पंजीकरण करवाने की जरूरत होती है। इसकी क्या जरूरत है? 

यदि किसी व्यक्ति के लिए देश के एक छोर से दूसरे तक सरकार के सभी स्तरों तक अपनी पहचान सिद्ध करने के लिए एकमात्र आधार कार्ड ही पर्याप्त है तो किसी उद्यम को सभी राज्यों में अलग-अलग पंजीकृत करवाने का क्या तुक है? क्या किसी कम्पनी के पंजीकृत कार्यालय से संबंधित पंजीकरण कोड ही अलग-अलग राज्य सरकारों की शर्तें पूरी करने के लिए काफी नहीं? प्रदेश सरकारें पूरे देश के लिए मौजूद एक ही सांझा टैक्स डाटाबेस प्रयुक्त नहीं करना चाहतीं। जी.एस.टी. की संरचना में ऐसी कोई जन्मजात त्रुटि नहीं जिसके चलते प्रत्येक राज्य के लिए अलग-अलग जी.एस.टी. कानून बनाया जाए। राज्यों का केवल एक ही काम है कि वे अपने अधिकार क्षेत्र में टैक्स इकट्ठा करें। इसके क्षेत्राधिकार से बाहर की आपूर्ति पर या तो केन्द्र सरकार टैक्स लगाएगी या कोई दूसरा राज्य। 

इसी प्रकार यदि किसी सप्लायर द्वारा किसी प्रकार का जी.एस.टी. अदा किया जाना है (राज्य स्तरीय या केन्द्रीय अथवा या अंतर्राज्यीय स्तर पर) तो इस संबंध में इतनी पाबंदियां हैं कि उसके द्वारा अदा जी.एस.टी. भी अर्थहीन होकर रह जाता है। ऐसा क्यों? किसी करदाता द्वारा दायर टैक्स क्लेमों से यह बहुत आसानी से पता लगाया जा सकता है कि किस खाते में से पैसे निकालने हैं और किस खाते में जमा करवाने हैं। लेकिन करदाताओं की दौड़ लगवाई जा रही है। टैक्स कटौतियों के मामले में केन्द्र और राज्यों का सहयोग से इंकार करदाताओं की चिंताएं बढ़ा रहा है कि सरकार उन्हें धूल कणों से अधिक महत्व नहीं देती। उसने टैक्स राहत तो अपने ही अदा किए टैक्स पर हासिल करनी होती है। महत्व तो इस बात का है कि टैक्स दिया जा चुका है। शेष काम तो केवल केन्द्र और राज्य सरकारों ने करना है, बस वे अपना काम करें और करदाता को परेशान करने से परहेज करें। 

करदाता का बोझ घटाने की कवायद 
छोटे और सूक्ष्म उद्योगों का क्षेत्र टैक्स आपाधापी से सबसे बुरी तरह प्रभावित हुआ है। गत सप्ताह जी.एस.टी. में कटौतियों के बावजूद अनेक आटो कलपुर्जों पर अभी भी 28 प्रतिशत की दर से जी.एस.टी. लिया जा रहा है। इस अतिरिक्त टैक्स से तमिलनाडु में आटो कलपुर्जे 10 प्रतिशत से भी अधिक महंगे हो गए हैं जबकि जी.एस.टी. व्यवस्था लागू होने से पहले इन पर केवल 5 प्रतिशत की दर से वैट और 12.5 प्रतिशत की दर से राजस्व शुल्क लगता था। जब कोई छोटा उद्यम टैक्स वृद्धि का सामना करता है तो यह अपनी निश्चित मौत से बचने के लिए क्या करेगा?

वास्तव में छोटी इकाइयां ही बड़े आपूर्तिकत्र्ताओं की उधारी जरूरतें पूरी करती हैं क्योंकि बड़ी इकाइयों द्वारा उन्हें खरीदे हुए माल पर भुगतान 3 या 4 महीने बाद किया जाता है। ऐसे में टैक्स अदा करने के लिए छोटी इकाइयों को स्वयं ब्याज पर पैसा लेना पड़ता है और यह ब्याज की दर भी 30 प्रतिशत से लेकर 100 प्रतिशत के बीच होती है जोकि अपने आप में बड़ी भारी सिरदर्द है। 

इस स्थिति में से निकलने का रास्ता यह है कि कम से कम 100 करोड़ रुपए का उत्पादन करने वाली इकाइयां अपने आपूर्तिकत्र्ताओं से स्रोत पर ही जी.एस.टी. की कटौती करेंगी और इसका भुगतान सरकार को करेंगी। इससे और कुछ नहीं तो छोटी इकाइयों को खून पीने वाले साहूकारों से बचने का मौका तो मिल जाएगा। जी.एस.टी. पारदर्शिता का बहुत ही शानदार उपकरण है। यह कार्पोरेट घरानों के वास्तविक उत्पादन के साथ-साथ उनकी आय की भी पूरी तरह टोह लगा देता है। केन्द्रीय आंकड़ा कार्यालय (सी.एस.ओ.) को जी.एस.टी. प्रविष्टियों की सहायता से उद्योग के उत्पादन का बेहतर अनुमान लग सकता है जबकि वर्तमान में औद्योगिक वर्तमान सूचकांक में अनेक त्रुटियां हैं। 

इस प्रकार की पारदर्शिता से अनौपचारिकता अवश्य ही समाप्त होगी। यदि कोई कम्पनी जी.एस.टी. नैटवर्क का हिस्सा है तो इसके सभी खाते अपने आप ही सरकार के सामने आ जाएंगे। किसी उद्योग द्वारा अर्जित लाभ, वेतन और मजदूरियां मिलकर इस द्वारा किसी उत्पाद में जोड़ी गई मूल्य वृद्धि बनते हैं। एक हद से अधिक इनमें हेराफेरा नहीं हो सकती क्योंकि यदि कोई उद्योग अपने खातों में लाभ नहीं दिखाता तो इसके कार्यशील रहने का कारण भी स्वत: ही समाप्त हो जाएगा। बैंक छोटे और लघु उद्योगों की केवल 10 प्रतिशत ऋण जरूरतों की ही पूर्ति करते हैं। शेष ऋण की व्यवस्था अनौपचारिक क्षेत्र यानी गैर बैंकिंग फाइनांसरों और सूदखोरों से बहुत ऊंचे ब्याज पर करनी पड़ती है। नौकरशाही की भी ऐसे लोगों के साथ सांठगांठ है लेकिन जी.एस.टी. व्यवस्था में बेनकाब होने का जोखिम बढ़ गया है।-टी.के. अरुण

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