‘नोटबंदी’ से जाली करंसी पर रोक संभव नहीं

Edited By Punjab Kesari,Updated: 12 Nov, 2017 01:58 AM

no ban on currency forged from banquet

ब्दों की जादूगरी, छलकपट या धमकियों की एक सीमा होती है।  किसी न किसी समय पर जाकर ‘घटती उत्पादिकता’ का सिद्धांत इस पर भी लागू होगा और यह जगजाहिर हो जाएगी। नोटबंदी के संंबंध में जितनी भी दलीलें दी गईं एक वर्ष बाद वे सभी न केवल रद्द हो गई हैं बल्कि...

शब्दों की जादूगरी, छलकपट या धमकियों की एक सीमा होती है। किसी न किसी समय पर जाकर ‘घटती उत्पादिकता’ का सिद्धांत इस पर भी लागू होगा और यह जगजाहिर हो जाएगी। 

नोटबंदी के संंबंध में जितनी भी दलीलें दी गईं एक वर्ष बाद वे सभी न केवल रद्द हो गई हैं बल्कि उपहास का विषय भी बन गई हैं। सबसे पहले मैं इसके  पक्ष में दी गई दलील से शुरू करूंगा क्योंकि यह इस हद तक सरल और फूहड़ थी कि पहले ही हल्ले में इसका पक्षधर हथियार डालने पर मजबूर हो जाता है और इस दलील की देशभर में खूब चर्चा हुई। यह दलील थी कि नोटबंदी से जाली करंसी का अंत हो जाएगा। 

क्या अब जाली नोट नहीं चलते?
एक वर्ष बाद हमें बताया जा रहा है कि बंद किए गए 15,28,000 करोड़ कीमत के करंसी नोट जो आर.बी.आई. के पास वापस लौटे हैं उनमें से केवल 41 करोड़ की करंसी ही जाली पाई गई है जोकि बंद नोटों की कुल कीमत का मात्र 0.0027 प्रतिशत ही बनती है। इस क्षुद्र-सी राशि पर अपना क्षोभ व्यक्त करने से पहले कृपया ये शब्द पढ़ लें : भारतीय जाली करंसी का पता लगाने वाले अधिकारियों के अनुसार ‘करंसी के जाली संस्करण कभी बहुत जल्दी पहचाने जाते थे लेकिन अब इनमें बहुत सुधार आ गया है और हाल ही के समय में तो इनकी गुणवत्ता अपने चरम को छू गई है।’ 

अगस्त और अक्तूबर 2017 के बीच राजस्व गुप्तचर निदेशालय (डी.आर.आई.) ने 2000 और 500 के करंसी नोटों के रूप में 35 लाख रुपए की बहुत ही उच्च गुणवत्ता वाली भारतीय जाली करंसी मुम्बई, पुणे और बेंगलुरू से 3 अलग-अलग मामलों में बरामद की है। डी.आर.आई. के एक वरिष्ठ अधिकारी का संदर्भ देते हुए इंडियन एक्सप्रैस ने कहा था: ‘नोटबंदी घोषित होने के तत्काल बाद जो जाली करंसी पकड़ी गई थी वह बहुत घटिया गुणवत्ता वाली थी और नंगी आंखों से भी उसकी पहचान की जा सकती थी लेकिन हाल ही में पकड़े गए नोटों की गुणवत्ता में बहुत सुधार आया है तथा आम आदमी तत्काल यह परख नहीं कर सकता कि अमुक नोट असली हैं या जाली।’ 

जो लोग जाली भारतीय करंसी की चुनौती से परिचित हैं उनके लिए यह किसी भी तरह हैरानी की बात नहीं। यदि एक इंसान टैक्नोलॉजी की सहायता से करंसी नोट छाप सकता है तो कोई अन्य व्यक्ति भी टैक्नोलॉजी की सहायता से असली नोटों की नकल तैयार कर सकता है। इसका तात्पर्य यह है कि नोटबंदी जाली करंसी का कोई समाधान नहीं। यदि यह कोई समाधान होता तो दुनिया के हर देश ने यही रास्ता अपनाया होता। गत 50 वर्षों दौरान किसी भी बड़ी अर्थव्यवस्था में ऐसा फैसला नहीं लिया गया। यह सरल-सा सबक भी नवम्बर 2016 में भारत सरकार की समझ में नहीं आया। 

भ्रष्टाचार, कालाधन
यही बात दो अन्य उद्देश्यों के बारे में कही जा सकती है जिनकी घोषणा प्रधानमंत्री ने 8 नवम्बर 2016 को की थी: यानी कि भ्रष्टाचार का खात्मा और कालेधन का समूल नाश। नोटबंदी के बावजूद भ्रष्टाचार फल-फूल रहा है और रिश्वत लेने वाले नियमित रूप में दबोचे जा रहे हैं और अक्सर रंगे हाथों सार्वजनिक अधिकारी भी गिरफ्तार किए जा रहे हैं और उन पर भ्रष्टाचार के मुकद्दमे चलाए जा रहे हैं। ऐसा कोई साक्ष्य नहीं कि छोटा-मोटा भ्रष्टाचार जोकि नागरिक और सरकार के परस्पर संबंधों में एक सामान्य बात बन चुका है, नोटबंदी के कारण समाप्त हो गया होगा या इसमें कुछ कमी आई होगी। 

जहां तक कालेधन का ताल्लुक है हर रोज ऐसी आय का सृजन होता है जो टैक्स योग्य होती है इस आय का दूसरा हिस्सा टैक्स को गच्चा देता है और इससे विभिन्न उद्देश्यों जैसे कि रिश्वत देने, चुनाव का वित्त पोषण करने, कैपिटेशन फीस देने, सट्टेबाजी, अस्थायी श्रमिकों को किराए पर करने इत्यादि के लिए प्रयुक्त किया जाता है। अघोषित धन का थोक व्यापार, कंस्ट्रक्शन एवं ज्वैलरी उद्योगों में प्रयोग होता है। यह कहने की जरूरत नहीं कि अघोषित पैसा ही वह राशि है जो वेश्यावृत्ति, नशीले पदार्थों की तस्करी, स्वर्ण तस्करी तथा हथियारों के निर्माण के पीछे की चालक शक्ति है।

नोटबंदी कोई ऐसा हथियार नहीं थी जिससे जाली करंसी अथवा भ्रष्टाचार या कालेधन के विरुद्ध लड़ा जा सके। इसके बावजूद सरकार ने यह हथियार धारण किए रखा। यह बिना सोचे-समझे और जल्दबाजी में लिया गया निर्णय था जोकि विराट गलती सिद्ध हुआ तथा आर्थिक वृद्धि को बुरी तरह प्रभावित करने व करोड़ों आम नागरिकों पर दुखों का बोझ लाद देने की दृष्टि से इसकी बहुत भारी कीमत अदा करनी पड़ी। 

नैतिक मुद्दा 
अपमान करने के साथ-साथ आहत भी करते हुए वित्त मंत्री ने दावा किया कि नोटबंदी ‘नैतिक तथा सदाचार’ थी। मैं इस विषय पर बहस करने और कुछ सवाल पूछने को तैयार हूं:

1. क्या करोड़ों लोगों, खास तौर पर 15 करोड़ दिहाड़ीदारों पर दुखों का बोझ लाद देना नैतिक था? यह संख्या भारत की कामकाजी आबादी के एक-तिहाई का प्रतिनिधित्व करती है और इसमें कृषि मजदूर, कारीगर, गली-मोहल्ले के फेरी वाले और छिटपुट काम करने वाले श्रमिक शामिल हैं। उन्होंने अपनी दिहाड़ी (अथवा) आमदन कई सप्ताह के लिए  खो दी और उधार लेने पर मजबूर हुए तथा उनमें से अनेकों गहरे कर्ज में डूबे हुए हैं। 

2. क्या 15 लाख 40 हजार स्थायी नौकरियों को जनवरी-अप्रैल 2017 में बर्बाद करना नैतिक था? सी.एम.आई.ई. द्वारा जारी ताजा आंकड़ों के अनुसार मई-अगस्त 2017 में 4 लाख 20 हजार और नौकरियां समाप्त हो गई थीं। रोजगार खोने वाले इन लोगों में से कई लोग तब तक बेरोजगार रहेंगे जब तक किसी जादू की छड़ी से नई नौकरियां सृजित नहीं हो जातीं। पीयूष गोयल का दावा भी कुछ ऐसा ही है। 

3. क्या हजारों सूक्ष्म और लघु कारोबारों को बंद होने पर मजबूर करना नैतिक था? अब यह कोई अटकलबाजी का सिद्धांत नहीं रह गया बल्कि एक तथ्य बन चुका है। नोटबंदी की वर्षगांठ पर बंद हो चुके कारोबारों के बारे में कहानियों से समाचार पत्रों के पन्ने भरे हुए थे। उदाहरण के तौर पर तिरुपुर के पुराने बस स्टैंड के समीप कभी 1500 औद्योगिक इकाइयां हुआ करती थीं जो बड़े सौदागरों और व्यापारियों के लिए सहायक इकाइयों के रूप में काम करती थीं। लेकिन अब इनमें से नियमित कारोबार करने वाली इकाइयों की संख्या 500 से भी कम रह गई है। शेष को तो कई महीनों से आर्डर न मिलने के कारण या तो काम बंद करना पड़ा है या वे कई-कई महीने आर्डर का इंतजार करते रहते हैं। ऐसी ही सच्ची कहानियां आगरा, जालंधर, सूरत, भिवंडी तथा अन्य औद्योगिक केन्द्रों से मिली हैं। 

4. क्या (जैसा कि अब सरकार को खुद पता चल रहा है)कालेधन को सफेद में बदलने का सुगम तरीका उपलब्ध करवाना नैतिक था? सरकार ने यह स्वीकारोक्ति की है कि नोट बदलवाने की खिड़की ने ही वास्तव में कालेधन को सफेद में बदलने की सुविधा उपलब्ध करवाई थी। सरकार ने इन गुनहगारों की तलाश करने और उन्हें दंडित करने का वायदा किया था लेकिन यह बात कहनी आसान है, करनी नहीं। एक वर्ष में आयकर विभाग कितने मामलों की जांच कर सकता है और कितनों पर फैसला ले सकता है? आयकर अपीलीय पंचाट के समक्ष अगस्त 2017 के अंत तक 94 हजार मामले लंबित पड़े हुए थे। इनका निपटान पता नहीं यह कब करेगा? ऐसे में यह इस कलंक को नहीं धो पाएगा कि धन शोधन करने वालों को काला धन सफेद करने का आसान रास्ता नोटबंदी के रूप में मिला था और ऐसे लोगों में से अधिकतर दबोचे नहीं जा सकेंगे। 

दक्षिण भारत के विख्यात दार्शनिक संत तिरूवल्लुवर द्वारा रचित ‘कुरुल 551’ में एक ऐसे राजा की कथा है जो अपनी प्रजा को ही नुक्सान पहुंचाता है। लोकतंत्र में किसी भी निर्वाचित सरकार को जनता पर असहय दुख-तकलीफों का बोझ लादना सही नहीं। चिकित्सा जगत के इष्टदेव महर्षि हिप्पोकृतेश आदर्श चिकित्सकों को शिक्षा देते हैं: ‘किसी को नुक्सान न पहुंचाओ।’-पी. चिदम्बरम

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