अलविदा प्रणब मुखर्जी- देश के पूर्व राष्ट्रपति के टीचर से राष्ट्रपति तक के सफर पर एक नजर

Edited By Yaspal,Updated: 31 Aug, 2020 08:26 PM

a look at the journey of the country to the president

पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी लंबे समय से कोमा में रहने के बाद दुनिया को अलविदा कह गए। प्रणब मुखर्जी को उनके विनम्र और शालीन व्यक्तित्व और विवेकशील फैसलों के लिए हमेशा याद किया जाएगा। बता दें कि ब्पेन सर्जरी के बाद से ही प्रणब मुकर्जी कोमा में थे...

नेशनल डेस्कः पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी लंबे समय से कोमा में रहने के बाद दुनिया को अलविदा कह गए। प्रणब मुखर्जी को उनके विनम्र और शालीन व्यक्तित्व और विवेकशील फैसलों के लिए हमेशा याद किया जाएगा। बता दें कि ब्पेन सर्जरी के बाद से ही प्रणब मुकर्जी कोमा में थे और उनको वेंटीलेटर सपोर्ट पर रखा गया था। शिक्षक के तौर पर शुरूआत करने के बाद वे राजनीति का एक जाना-माना नाम बन गए। केंद्र की राजनीति में दशकों का सफर तय करने के बाद प्रणब मुखर्जी ने 25 जुलाई 2012 को देश के 13वें राष्ट्रपति के तौर पर शपथ ली थी।

लीक से हटकर लिए फैसले
प्रणब मुखर्जी ने अपने कार्यकाल में लीक से हट कर कई फैसले लिए। राष्ट्रपति पद के साथ औपचारिक तौर पर लगाए जाने वाले महामहिम के उद्बोधन को उन्होंने खत्म करने का निर्णय लिया। औपनिवेशिक काल के ‘हिज एक्सेलेंसी’ या महामहिम जैसे आदर-सूचक शब्दों को प्रोटोकॉल से हटा दिया गया है। राष्ट्रपति के रूप में प्रणब दा का कार्यकाल गैर-विवादास्पद और सरकार से बिना किसी टकराव वाला माना जा सकता है। आमतौर पर राष्ट्रपति को भेजी गई दया याचिकाएं लंबे समय तक लंबित रहती हैं लेकिन प्रणब मुखर्जी कई आतंकवादियों की फांसी की सजा पर तुरंत फैसले लेने के लिए याद किए जाएंगे। मुंबई हमले के दोषी अजमल कसाब और संसद हमले के दोषी अफजल गुरू की फांसी की सजा पर मुहर लगाने में प्रणब मुखर्जी ने बिल्कुल देर नहीं लगाई थी।  उन्होंने याकूब मेमन की मौत की सजा पर भी मुहर लगाई। उन्होंने अपने कार्यकाल में चार लोगों को क्षमादान दिया। उन्होंने हत्या और बलात्कार के दोषी पाए गए 28 लोगों की फांसी की सजा को बरकरार रखा।

राजनीति सफर
प्रणब मुखर्जी ने अपने 60 साल के राजनीतिक जीवन में अलग-अलग समय पर भारत सरकार के अनेक महत्वपूर्ण मंत्रालयों और पदों पर कार्य किया। जब वे केंद्र सरकार में थे तो उन्हें सरकार के संकटमोचक के तौर पर देखा जाता था। वे बातचीत के जरिए विभिन्न समस्याओं का समाधान निकालने वाले में माहिर थे। पश्चिम बंगाल के बीरभूम जिले में 11 दिसम्बर 1935 में जन्मे प्रणब मुखर्जी ने शुरुआती पढ़ाई बीरभूम में की और बाद में राजनीति शास्त्र और हिस्ट्री में M.A की थी। उन्होंने कोलकाता विश्वविद्यालय से एल.एल.बी. की डिग्री भी हासिल की। वे 1969 से पांच बार राज्यसभा के लिए चुए गए। बाद में उन्होंने चुनावी राजनीति में भी कदम रखा और 2004 से लगातार दो बार लोकसभा के लिए चुने गए। उनके राजनीतिक सफर की शुरुआत साल 1969 में हुई। भारत के भूतपूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की मदद से उन्होंने साल 1969 में राजनीति में एंट्री ली तब वे कांग्रेस टिकट पर राज्यसभा के लिए चुने गए।

1973 में वे केन्द्रीय मंत्रिमंडल में शामिल हुए और उन्हें औद्योगिक विकास विभाग में उपमंत्री की जिम्मेदारी दी गई।
1975,1981,1993,1999 में फिर राज्यसभा के लिए चुने गए। उनकी लिखी आत्मकथा मे स्पष्ट है कि वो इंदिरा गांधी के बेहद करीब थे और जब आपत्काल के बाद कांग्रेस की हार हुई तब  इंदिरा गांधी के साथ उनके सबसे विश्वस्त सहयोगी बनकर उभरे थे। दक्षिण भारत मे जो कांग्रेस का जनाधार बनकर उभरा वो भी इनकी मेहनत का परिणाम था। 1980 में वे राज्य सभा में कांग्रेस पार्टी के नेता बनाए गए। इस दौरान मुखर्जी को सबसे शक्तिशाली कैबिनेट मंत्री माना जाने लगा और प्रधानमंत्री की अनुपस्थिति में वे ही कैबिनेट की बैठकों की अध्यक्षता करते थे। इंदिरा गांधी की हत्या के बाद प्रणब मुखर्जी को प्रधानमंत्री पद का सबसे प्रबल दावेदार माना जा रहा था पर तब कांग्रेस पार्टी ने राजीव गांधी को प्रधानमंत्री चुन लिया।

1984 में राजीव गांधी सरकार में उन्हें भारत का वित्त मंत्री बनाया गया। बाद में कुछ मतभेदों के कारण प्रणब मुखर्जी को वित्त मंत्री का पद छोड़ना पड़ा और वे कांग्रेस से दूर हो गए और एक समय ऐसा आया जब प्रणब मुखर्जी ने एक नई राजनीतिक पार्टी बनाई। उन्होंने राष्ट्रीय समाजवादी कांग्रेस का गठन किया। दरअसल वो अपने मत में स्पष्ट थे और अपना विरोध दर्ज़ करवाना जानते थे इसलिए राजीव गांधी से दूरी बनाई। वीपी सिंह के कांग्रेस छोड़ने के बाद पार्टी की स्थिति डावांडोल हो गई। बाद में कांग्रेस ने प्रणब मुखर्जी पर फिर भरोसा जताया और उन्हें मनाकर फिर पार्टी में लाया गया। उनकी पार्टी 'राष्ट्रीय समाजवादी कांग्रेस' का कांग्रेस में विलय हो गया। प्रणब मुखर्जी को पी. वी नरसिम्हा राव सरकार ने योजना आयोग का उपाध्यक्ष बनाया। बाद में उन्हें विदेश मंत्री की जिम्मेदारी भी दी गई।

1997 में उन्हें संसद का उत्कृष्ट सांसद चुना गया। ये वो दौर था जब कांग्रेस का जनाधार सिकुड़ने लगा था। केंद्र में मिलीजुली सरकारों का दौर चल रहा था और राष्ट्रीय राजनीति बदलाव के दौर से गुजर रही थी। साल 2004 में चुनावी राजनीति में कदम रखा और पश्चिम बंगाल के जंगीपुर लोकसभा के निर्वाचन क्षेत्र से कांग्रेस के टिकट पर निर्वाचित हुए। लोकसभा चुनाव जीतने के बाद उन्हें लोकसभा में सदन का नेता बनाया गया क्योंकि तब प्रधानमंत्री राज्यसभा के सदस्य थे। साल 2004 से 2009 के बीच रक्षा, विदेश जैसे महत्वपूर्ण पदों पर अपनी छाप छोड़ी। प्रणब मुखर्जी 23 वर्षों तक कांग्रेस पार्टी की कार्य समिति के सदस्य भी रहे।

वे 2009 से 2012 तक मनमोहन सरकार में फिर से भारत के वित्त मंत्री रहे, जब कांग्रेस ने उन्हें अपना राष्ट्रपति उम्मीदवार चुना तब उन्होंने इस पद से इस्तीफा दिया। देश के सर्वोच्च पद पर आसीन होने वाले वे पश्चिम बंगाल के पहले व्यक्ति बने। राष्ट्रपति चुनाव में उनका सामना लोकसभा के अध्यक्ष रह चुके पी. ए संगमा से हुआ। राष्ट्रपति के तौर पर 5 साल के अपने कार्यकाल के दौरान प्रणब मुखर्जी ने राजनीतिक जुड़ाव से दूर रह कर काम किया।

वहीं 2014 में जब मोदी सरकार सत्ता में आई तो कभी भी प्रणब मुखर्जी के नई सरकार के साथ मतभेद नहीं हुआ। पीएम मोदी ने हमेशा ही प्रणब मुखर्जी की बेहतरीन समझ की तारीफ ही की। हाल ही में एक किताब के विमोचन के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्रमोदी ने पुस्तक ‘प्रेसीडेंट प्रणब मुखर्जी: ए स्टेट्समैन ऐट द राष्ट्रपति भवन’ को जारी किया। इस मौके पर प्रधानमंत्री ने प्रणब मुखर्जी के साथ अपने भावनात्मक जुड़ाव का उल्लेख किया और कहा कि प्रणब दा ने उनका ऐसे ख्याल रखा जैसे कोई पिता अपने बेटे का रखता हो। प्रणब मुखर्जी ने भी इस बात को स्वीकार किया कि दोनों के बीच कभी मतभेद की नौबत नहीं आई, हालांकि दोनों की विचारधाराएं अलग-अलग थीं। प्रणब मुखर्जी भारतीय अर्थव्यवस्था और राष्ट्र निर्माण पर कई पुस्तकें लिख चुके हैं। उन्हें पदम विभूषण और उत्कृष्ट सांसद जैसे पुरस्कारों से नवाजा जा चुका है। उनके कार्यकाल को एक प्रखर राजनेता के राजनय के उदाहरण के रूप में हमेशा याद किया जाएगा।

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