भारत की जरूरत है तो अमरीका की भी

Edited By vasudha,Updated: 30 Jun, 2019 10:25 AM

america also needs india

जून के आखिरी हफ्ते में अमरीका के तीन रूप एक-एक कर सामने आए। अमरीकी विदेश मंत्री माइक पोंपियो की नई दिल्ली यात्रा कुल मिलकर सकारात्मक रही। ईरान पर पोंपियो ने अपनी सरकार का कड़ा रुख रखते हुए आश्वस्त किया कि अमरीका भारत को कच्चे तेल की निर्बाध आपूर्ति...

नई दिल्ली: जून के आखिरी हफ्ते में अमरीका के तीन रूप एक-एक कर सामने आए। अमरीकी विदेश मंत्री माइक पोंपियो की नई दिल्ली यात्रा कुल मिलकर सकारात्मक रही। ईरान पर पोंपियो ने अपनी सरकार का कड़ा रुख रखते हुए आश्वस्त किया कि अमरीका भारत को कच्चे तेल की निर्बाध आपूर्ति सुनिश्चित करेगा। विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने दो टूक बताया कि रूस से एस-400 मिसाइल की खरीद पर पुनर्विचार नहीं हो सकता। इन्हीं मिसाइलों की खरीद के लिए साथी ‘नाटो’ देश तुर्की को खरी-खोटी सुनाने वाला अमरीका खामोश रहा। उसी दिन वाणिज्य और उद्योग मंत्री पीयूष गोयल ने लोकसभा में कहा कि आपसी व्यापार के मुद्दों को राष्ट्रीय हितों पर हावी नहीं होने दिया जाएगा।
PunjabKesari

अगले दिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प को जापान के ओसाका शहर में जी-20 देशों के शिखर सम्मलेन में शामिल होना था। ओसाका पहुंचने के पहले ट्रम्प ने ट्वीट पर कहा कि 28 अमरीकी उत्पादों पर बढ़ाया गया शुल्क भारत वापस ले। यह चेतावनी कूटनीतिक भाषा के दायरे से थोड़ा बाहर थी। ओसाका में ट्रम्प का सुर बदल गया। मोदी के साथ उनकी ‘खुली और रचनात्मक’ बात हुई। ट्रम्प ने कहा कि ‘हम बड़ी घोषणाएं, बड़ा व्यापार करार करने वाले हैं।’

आम भारतीय ट्रम्प के इस व्यवहार को कैसे समझे? क्या ट्रम्प के हर ट्वीट पर प्रतिक्रिया व्यक्त करनी चाहिए? अमरीकी इतिहास में ट्रम्प पहले राष्ट्रपति हैं, जिनके दौर में वाइट हाउस और विदेश मंत्रालय के प्रवक्ताओं को बोलने का मौका कम मिलता है। बहुत सारी  बातें ट्रम्प ट्वीट पर ही कह डालते हैं। खुद उनके प्रशासन के लिए ये ट्वीट कई बार असुविधाजनक साबित हुए हैं। शायद इसी पृष्ठभूमि में अंतरराष्ट्रीय प्रतिष्ठा की अमरीकी पत्रिका ‘फॉरेन अफेयर्स’ को प्रिंसटन यूनिवर्सिटी के एक प्रोफेसर का लेख छापना पड़ा। इसमें कहा गया कि दो-तिहाई से तीन चौथाई तक अमेरिकी ट्रम्प को भरोसेमंद नहीं मानते। अमरीका के परंपरागत साथियों फ्रांस, ऑस्ट्रेलिया, जर्मनी, जापान, ब्रिटेन और दक्षिण कोरिया के अधिकतर नागरिकों को भी अमरीकी राष्ट्रपति पर भरोसा नहीं है।’ खैर, यह अमरीका का अंदरूनी मामला है। राष्ट्रों के हित स्थायी होते हैं। फिर भी व्यक्तियों की भूमिका आपसी संबंधों को नहीं, ऐतिहासिक घटनाक्रम को भी प्रभावित करती है। 
PunjabKesari

जैसे राष्ट्रपति बुश के दौरान प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह परमाणु करार करने में सफल हो गए। अमरीका में 2020 में राष्ट्रपति का चुनाव होना है। अभी तक मिले संकेतों के अनुसार ट्रम्प फिर लड़ेंगे। ट्रम्प को एक और अवसर मिल जाए या उनसे भी अधिक अनुदार व्यक्ति राष्ट्रपति बने तो क्या होगा? कुछ नहीं होगा। वाशिंगटन के सत्ता गलियारों में एहसास जरूर होगा कि भारत एक सीमा से आगे कोई समझौता नहीं कर सकता। जब पीएल-480 के गेहूं और घटिया आटे पर टिका भारत कश्मीर पर अमेरिकी दबाव में नहीं आया तो अब दबा लेना कल्पना से भी परे है। आज के अमरीका को भारत की भी बड़ी जरूरत है। उभरती महाशक्ति और खतरनाक हद तक राष्ट्रवादी, संशोधनवादी चीन को अमेरिका एशिया-प्रशांत क्षेत्र में अपने लिए खतरा मानता है। रूस-चीन गठजोड़ भी उसे चिंतित किए हुए है। इसीलिए अमेरिका भारत, जापान और ऑस्ट्रेलिया के साथ मोर्चेबंदी करना चाहता है। जाहिर है, भारत इस मोर्चेबंदी में शामिल नहीं हो सकता। हालांकि, वह विकल्प बना रहेगा। चीन से सतर्क रहने के भारत के अपने ठोस राष्ट्रीय कारण हैं। 

भारत और अमरीका के बीच गहन सहयोग न हो तो चीन को खुलकर खेलने का मौका मिल जाएगा। हम कैसे भूल सकते हैं कि 1962 में चीन असम की तरफ इसलिए नहीं बढ़ा था कि ‘भारत को सबक सिखाने’ का उसका मकसद पूरा हो चुका था। अमरीकी हस्तक्षेप के डर ने चीन के कदम रोक दिए थे। आखिर प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने राष्ट्रपति कैनेडी को पत्र लिखकर सैनिक हस्तक्षेप का वस्तुत: अनुरोध किया था। अमरीकी सप्लाई और टोही विमानों की भारत पर गुप्त उड़ानों से सोवियत केजीबी नावाकिफ कतई नहीं रही होगी। डोकलाम संकट के दौरान चीनी प्रेस की भारत पर हिकारत भरी टिप्पणियां भी नहीं भूली जा सकतीं। चीन के सिर पर अमरीकी खंजर जब तक लटकता रहे, भारत के लिए अच्छा ही है। भारत और अमरीका का कई मुद्दों पर मिलन बेशक होता है, लेकिन दोनों के राष्ट्रीय हितों के तकाजे अलग-अलग हैं। अच्छे संबंधों के लिए दोनों को एक-दूसरे की लाल रेखाओं का आदर करना होगा। 

PunjabKesari
यह बात दीगर कि कूटनीति संभावनाओं का खेल है और उसमें कभी-कभी एक कदम आगे और दो कदम पीछे भी करना पड़ता है। सामरिक स्वायत्तता का पवित्र सिद्धांत भारत को अमेरिकी चश्मे से दुनिया को देखने से हमेशा रोकेगा। अमरीका भी हर मामले में भारत के साथ नहीं खड़ा होने वाला। किन्हीं भी आपसी रिश्तों में ऐसा नहीं होता। सोवियत संघ के साथ भी ऐसा नहीं था। 1971 की जिस भारत-सोवियत संधि के सहारे प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने पाकिस्तान को तोड़ देने के सामरिक उद्देश्य को पूरा किया, उसके बावजूद अफगानिस्तान जैसे विषय पर मतभेद थे। उसी तरह अमरीका के साथ भी मतभेद आते रहेंगे। दोनों परिपक्व देश समय रहते मतभेदों का प्रबंधन करने में सक्षम हैं। 

Related Story

Trending Topics

IPL
Chennai Super Kings

176/4

18.4

Royal Challengers Bangalore

173/6

20.0

Chennai Super Kings win by 6 wickets

RR 9.57
img title
img title

Be on the top of everything happening around the world.

Try Premium Service.

Subscribe Now!