International Friendship Day-भारत के वो दोस्त, जिनकी दोस्ती की लोग आज भी देते हैं मिसाल

Edited By Seema Sharma,Updated: 30 Jul, 2020 03:03 PM

international friendship day

30 जुलाई को इंटरनेशनल फ्रेंडशिप डे (International Friendship Day) मनाया जाता है। कहते हैं कि हमारी जिंदगी में जो रिश्ते होतते हैं वो जन्म के साथ ही हमारे साथ जुड़ जाते हैं यानि कि भाई, बहन मामा, चाचा, बुआ और दादा-दादी लेकिन दोस्ती ऐसा रिश्ता होता है...

नेशनल डेस्कः 30 जुलाई को इंटरनेशनल फ्रेंडशिप डे (International Friendship Day) मनाया जाता है। कहते हैं कि हमारी जिंदगी में जो रिश्ते होतते हैं वो जन्म के साथ ही हमारे साथ जुड़ जाते हैं यानि कि भाई, बहन मामा, चाचा, बुआ और दादा-दादी लेकिन दोस्ती ऐसा रिश्ता होता है जो इंसान खुद चुनता है। किसको अपना दोस्त बनाना है किसको नहीं यह एक व्यक्ति खुद चुनाव करता है। जिसे जिंदगी में अच्छा और सच्चा दोस्त मिल जाए तो समझो उसे कोई अनमोल हीरा मिल गया क्योंकि एक दोस्त ही है जो आपको सही और गलत के बारे में साफ-साफ बता सकता है। भारत में कुछ ऐसी दोस्तियां हीं जिनकी आज भी मिसाल दी जाती है और आगे भी दी देती रहेगी। भारत के इन दोस्तों की दोस्ती युगों-युगों तक अमर रहेगी। 

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भारत के यह खास दोस्त और उनकी दोस्ती

कृष्ण-सुदामा
भगवान श्रीकृष्ण और सुदामा की दोस्ती अनूठी थी। सुदामा से दोस्ती करके भगवान कृष्ण ने दुनिया को यह संदेश दिया था कि दोस्ती रंग-रूप, जात-पात और पहनावे से नहीं बल्कि व्यक्ति के भाव, व्यवहार से होती है। श्रीकृष्ण सुदामा की सादगी और सहजता से काफी प्रभावित थे। कृष्ण और सुदामा आचार्य संदीपन के आश्रम में साथ पढ़ते थे, इसी दौरान दोनों में घनिष्ठ मित्रता हो गई। शिक्षा पूरी होने पर श्रीकृष्ण और सुदामा अपने-अपने जीवन में व्यस्त हो गए। श्रीकृष्ण ने मथुरा में कंस मामा का वध कर वहां से द्वारका आ गए और यहां वे द्वारकाधीश से पुकारे जाने लगे। दूसरी तरफ सुदामा की भी शादी हो गई, गृहस्थ जीवन में व्यस्त हो गए लेकिन उनकी आर्थिक हालत इतनी अच्छी नहीं थी। बच्चों का पेट भरने तक के लिए लाले पड़ गए थे। ऐसे में सुदामा की पत्नी ने उन पर दबाव डाला कि वे अपने बालसखा श्रीकृष्ण से मदद मांगे, जब घर के हालत ज्यादा ही खराब हो गए तो सुदामा अपने सखा श्रीकृष्ण से मिलने द्वारका नगरी पहुंचे। जब श्रीकृष्ण को पता चला कि सुदामा आए हैं वे नंगे पांव दौड़ कर महल के द्वार तक आए और सुदामा को गले लगा लिया।

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श्रीकृष्ण आदर से अपने परम मित्र सुदामा को महल के अंदर लाए और आसन पर बिठाया। श्रीकृष्ण ने अपने आसुओं से सुदामा के पांव धोए थे। सुदामा भी कृष्ण का भाव देख ऐसे आनंदविभोर हुए किए वो भी खूब रोए। सुदामा श्रीकृष्ण के लिए भेंट में एक मुट्ठी चावल लेकर गए थे, कहते हैं उनमें से चावल का दाना खाने से ही श्रीकृष्ण तृप्त हो गए थे। संकोच वश सुदामा ने श्रीकृ्ष्ण से अपने हालात के बारे में कुछ नहीं बताया और न ही मदद मांगी लेकिन भगवन सब जान गए थे। सुदाा कुछ दिन द्वारका में रहकर जब अपने घर लौटे तो हैरान रह गए थे क्योंकि वहां झोपड़ी की जगह महल खड़ा था और उनकी पत्नी किसी महारानी से कम नजर नहीं आ रही थी। सुदामा की पतत्नी ने बताया कि श्रीकृष्ण के सेवक रातों रात यह महल खड़ा करके गए और सारी सुख-सुविधाएं देकर गए। उस दिन सुदामा ने कहा था कि सच में कृष्ण उनका सच्चा मित्र है क्योंकि बिना कुछ कहे श्रीकृष्ण ने उनके दिल का हाल जान लिया और चुपचाप से मदद भी कर दी और पता भी न लगने दिया। 

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अर्जुन के सारथी बने श्रीकृष्ण
श्रीकृष्ण ने धरती पर जितना भी समय गुजारा उन्होंने लोगों को प्रेम और दोस्ती का संदेश दिया। श्रीकृष्ण ने जिनके साथ भी समय बिताया उनके साथ अटूट दोस्ती का रिश्ता भी निभाया। पांडव श्रीकृष्ण की बुआ के पुत्र थे। पांडवों के साथ श्रीकृष्ण के घनिष्ठ संबंध थे, खासकर धनुर्धर अर्जुन के साथ। अर्जुन को श्रीकृष्ण की दोस्ती पर इतना यकीन था कि महाभारत के युद्ध के समय जब दुर्योधन ने नारायणी सेना मांगी तक अजुर्न ने श्रीकृष्ण को चुना। हालांकि श्रीकृष्ण ने युद्ध में शस्त्र नहीं उठाने की शपथ ली थी लेकिन फिर भी अर्जुन ने श्रीकृष्ण का चुनाव किया और कहा कि जहां माधव खड़े हो वहीं धर्म है और वहीं जीत है।

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श्रीकृष्ण ने दोस्ती को रिश्ते में भी बदला और अपनी बहन सुभद्रा का विवाह अर्जुन से कराया। बलराम दाऊ के नहीं चाहने पर भी श्रीकृष्ण ने भगाकर अर्जुन से सुभद्रा का विवाह करवाया था। श्रीकृष्ण महाभारत युद्ध में अर्जुन के सारथी बने थे। महाभारत युद्ध में अर्जुन के लिए श्रीकृष्ण मार्गदर्शक भी बने। श्रीकृष्ण ने अर्जुन को महाभारत के समय ही श्रीमद्भागवत कथा का उपदेश दिया था और इसका सार समझाया था। 

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श्रीराम-सुग्रीव-विभीषण
मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम का चरित्र लोगों के लिए आर्दश है। उनके जैसे आज्ञाकारी बेटे, पति, भाई की मिसाल दी जाती है लेकिन वे बहुत अच्छे मित्र भी थे। श्रीराम की किष्किंधा नरेश सुग्रीव के साथ घनी मित्रता थी। लंकापति नरेश रावण जब माता सीता को हरण करके ले गया था तब उनको ढूंढने में सुग्रीव ने बड़ी भूमिका निभाई थी। श्रीराम और लक्ष्मण की ऋषिमुख पहाड़ियों पर सुग्रीव से मुलाकात हुई थी वो फिर मित्रता के ऐसे बंधन में बंधे कि निस्वार्थभाव से जीवनभर एक-दूसरे का साथ निभाते रहे। सुग्रीव को उनके भाई बाली ने गलतफहमी के चलते राज्य से बाहर नहीं निकाल दिया था। इतना ही नहीं बाली ने सुग्रीव से उनकी संपत्ति और पत्नी भी छीन ली थी। सुग्रीव पहाड़ियों में छिपकर जीवन बिता रहे थे। श्रीराम ने बाली की हत्या कर सुग्रीव को राजपाट दिलाया और किष्किंधा नरेश बनाया था। रावण के साथ युद्ध में भी सुग्रीव की वानर सेना डटी रही और युद्ध जीतने में प्रभु श्रीराम की मदद की। वहीं जब श्रीराम के  इस दुनिया में सार कार्य संपन्न हो गए तो वे वापिस वैकुंठ लौटने लगे तो सुग्रीव ने भी उनके बिना धरती पर रहने से मना कर दिया और श्रीराम के पीछ-पीछे वे भी नदी में समा गए थे। श्रीराम लंकापति रावण के छोटे भाई विभीषण को भी अना मित्र ही कहा करते थे, हालांकि विभीषण श्रीराम को भगवान की तर ही पूजते थे। श्रीराम ने रावण को मारने के बाद लंका विभीषण को सौंप दी थी और उन्हें वहां का राजा घोषित किया था। 

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दुर्योधन-कर्ण
दुर्योधन और कर्ण की दोस्ती भी अनूठी थी। दुर्योधन ने कर्ण को अपने जीवन में बड़ा सम्मान दिया था। दुर्योधन ने सबके सामने घोषणा की थी कि कर्ण उनके परम मित्र हैं। दरअसल कर्ण एक सुत वर्ण से थे इसलिए उनको द्रोपदी के स्वयंवर में शामिल होने से रोका गया था तभी दुर्योधन ने उनको अपना घनिष्ठ मित्र घोषित किया था। कर्ण भी इस सम्मान को कभी नहीं भूले और दुर्योधन का हर पल साथ दिया। कर्ण जानते थे कि कौरव अर्धम की राह पर हैं लेकिन मित्रता के कारण वह भी वहीं करते थे जो दुर्योधन कहता था। कर्ण को महाभारत के युद्ध के समय मालूम पड़ा था कि वह सूत पुत्र नहीं बल्कि महारानी कुंती के पुत्र हैं और पाडंव उनके भाई हैं। यह सच्चाई जानने के बाद भी कर्ण ने दुर्योधन का साथ नहीं छोड़ा। कर्ण दुर्योधन के साथ तब तक रहे जब वे युद्ध में मारे नहीं गए।

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