मुहर्रम आजः जानिए इसका इतिहास और क्यों मनाया जाता है?

Edited By Anil dev,Updated: 10 Sep, 2019 09:52 AM

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मोहर्रम पर ताजिए 10 सितंबर यानि कि आज निकाले जाएंगे। मुहर्रम पर राजधानी में निकलने वाले जुलूस के चलते कई मार्गों पर जाम लगने की आशंका है। ट्रैफिक पुलिस ने जाम से निपटने के पुख्ता इंतजाम किए हैं। संयुक्त आयुक्त नरेंद्र सिंह बुंदेला

नई दिल्ली: मोहर्रम पर ताजिए 10 सितंबर यानि कि आज निकाले जाएंगे। मुहर्रम पर राजधानी में निकलने वाले जुलूस के चलते कई मार्गों पर जाम लगने की आशंका है। ट्रैफिक पुलिस ने जाम से निपटने के पुख्ता इंतजाम किए हैं। संयुक्त आयुक्त नरेंद्र सिंह बुंदेला के मुताबिक जुलूस शांति पूर्वक निकले, इसके लिए मार्गों पर दिल्ली पुलिस के साथ ट्रैफिक पुलिसकर्मी भी तैनात रहेंगे।

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कई प्रमुख मार्गो पर ट्रैफिक में बदलाव किया जाएगा। लोगों से आग्रह है कि वे सार्वजनिक वाहनों का प्रयोग करें, ताकि जाम की समस्या कम से कम हो। नई दिल्ली और पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन जाने वालों को थोड़ा जल्दी घरों से निकलने की सलाह दी है।

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मुहर्रम का दसवां दिन सबसे महत्वपूर्ण दिन माना जाता है। इस हुसैन इब्न अली की शहादत का शोक करने के लिए शिया मुस्लिमों द्वारा मनाया जाता है। बता दें मुहर्रम पैगंबर मुहम्मद साहब के नवासे इमाम हुसैन और उनके साथियों की शहादत की याद में मनाया जाता है। कहा जाता है  इसी महीने में पैगंबर हजरत मुहम्मद साहब, मुस्तफा सल्लाहों अलैह और आलही वसल्लम ने पवित्र मक्का से पवित्र नगर मदीना में हिजरत किया था।

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इस दौरान क्या करते हैं लोग
कहा जाता है कि मुहर्रम में कई लोग रोज़ा भी रखते हैं। पैगंबर मुहम्मद साहब के नाती की शहादत और करबला के शहीदों के बलिदान को याद किया जाता है। करबला के शहीदों ने इस्लाम धर्म को नया जीवन दिया था। कई लोग इस पवित्र माह में पहले दस दिनों के रोजे रखते हैं। जो लोग दस दिन तक रोजा नहीं रख पाते वो 9 और 10 तारीख का रोज़ा रखते हैं। इस दिन पूरे देश में लोगों की अटूट आस्था का भरपूर समागम देखने को मिलता है।

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मान्यताओं के अनुसार इस दिन पैगंबर हजरत मोहम्मद के नाती हजरत इमाम हुसैन एक धर्मयुद्ध में शहीद हुए थे। कर्बला यानि कि आज के वक्त का इराक, जहां सन् 60 हिजरी को यजीद इस्लाम धर्म का खलीफा बन बैठा। वह अपने वर्चस्व को पूरे अरब में फैलाना चाहता था, जिसके लिए उसके सामने सबसे बड़ी चुनौती थी पैगंबर मुहम्मद के खानदान के इकलौते चिराग इमाम हुसैन, जो झुकने को बिल्कुल भी तैयार नहीं थे। इसलिए साल 61 हिजरी से यजीद के अत्याचार बढ़ने लगे।

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ऐसे में वहां के बादशाह इमाम हुसैन अपने परिवार के साथ मदीना से इराक के शहर कुफा जाने लगे। लेकिन रास्ते में यजीद की फैज ने कर्बला के रेगिस्तान पर इमाम हुसैन के काफिले को रोक दिया। वह दो मुहर्रम का दिन था, जब हुसैन का काफिला कर्बला के तपते रेगिस्तान पर रुका।वहां पानी का एकमात्र जरिया था फराच नदी, जिस पर यजीद की फौज ने 6 मुहर्रम से हुसैन के काफिले पर पानी के लिए रोक लगा दी थी। बावजूद इसके इमाम हुसैन झुके नहीं। और आखिर में युद्ध का एलान हो गया। कहा जाता है कि यजीद की 80 हजार फौज के आगे हुसैन के 72 बहादुरों ने जिस तरीके से लड़ाई लड़ी थी, उसकी मिसाल खुद दुश्मन फौज के सिपाही एक-दूसरे को देते थे। हुसैन ने अपने नाना और पिता द्वारा सिखाए गए सदाचार से सब पर विजय प्राप्त कर ली। 10वें मुहर्रम के दिन तक हुसैन अपने भाइयों और अपने साथियों के शवों को दफनाते रहे और अंत में अकेले युद्ध किया फिर भी दुश्मन उन्हें मार नहीं सका।

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मगर फिर एक बार अस्र की नमाज के दौरान जब इमाम हुसैन सजदा कर रहे थे तब एक यजीदी को लगा कि यही सही मौका है हुसैन को मारने का जिसके बाद उसने हुसैन को शहीद कर दिया। तभी से उसके उपलक्ष्य में मुहर्रम मनाया जाता है। 

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