नीतीश बाबू! भाजपा के साथ ये ‘वो’ गठबंधन नहीं

Edited By Punjab Kesari,Updated: 23 Sep, 2017 12:05 PM

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बदले हुए राजनीतिक परिवेश में बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को शायद पहली बार अपनी ताकत का अहसास हुआ, जब हालिया मंत्रिमंडल विस्तार में उनके दल को नजरअंदाज किया गया

बदले हुए राजनीतिक परिवेश में बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को शायद पहली बार अपनी ताकत का अहसास हुआ, जब हालिया मंत्रिमंडल विस्तार में उनके दल को नजरअंदाज किया गया। एनडीए में वापसी के बाद शायद इसकी उन्हें उम्मीद नहीं थी। मात्र 2 लोकसभा सांसद और 71 विधायकों के दल को भाजपा ने स्पष्ट संकेत दे दिया कि मुख्यमंत्री के पद से ही पार्टी को संतोष करना चाहिए। 

भाजपा अब 2005 या 2010 वाली पार्टी नहीं रही, जब नीतीश गठबंधन के कर्ताधर्ता थे। भाजपा के बिहार राजनीति के सारे निर्णय नीतीश की सहमति से ही होते थे। वह सुशील मोदी को छोड़ किसी और नेता को अहमियत नहीं देते थे लेकिन अब दौर बदल चुका है। भाजपा देश की सबसे बड़ी पार्टी है और पार्टी अब छोटे भाई की भूमिका में किसी भी प्रांत में नहीं रहना चाहती है। पिछले विधानसभा चुनाव में पार्टी की करारी हार के बाद भाजपा ने बिहार में अपनी रणनीति बदली और नीतीश को अपने पाले में खींचकर मंडलवादी ध्रुवीकरण को तोड़ा। नीतीश आज भी बिहार की पिछड़ी जातियों के सबसे बड़े नेता हैं। लव-कुश (कुशवाहा-कुर्मी) के गठजोड़ का फायदा पहले एनडीए को मिल रहा था, क्योंकि नीतीश को गठबंधन के चेहरे के रूप में स्थापित किया गया था।

नीतीश के एनडीए में जुडऩे से बिहार ही नहीं, पूरी हिंदी पट्टी में लाभ मिलेगा। 27 जुलाई को जदयू के एनडीए में शामिल होने के साथ ही भाजपा का राजनीतिक मकसद पूरा हो गया। बिहार में मात्र 53 विधायकों की पार्टी होने के बावजूद भाजपा शायद इस बार पुराने छोटे भाई की भूमिका से इतर रहना चाह रही है। इसकी शुरुआत पार्टी अध्यक्ष अमित शाह ने यह कहकर की कि पार्टी के मंत्रियों की समीक्षा वह करेंगे। निश्चित रूप से पार्टी के मंत्री अब अपनी पार्टी की छाप सरकार पर डालने की कोशिश करेंगे। बदले सियासी हालात में नीतीश की भाजपा पर पूर्ण निर्भरता है। दूसरी ओर, विधानसभा में 110 विधायकों के साथ मजबूत विपक्ष है। शायद  इन्हीं वजहों से पिछले दोनों गठबंधन सरकारों से ज्यादा कमजोर मुख्यमंत्री प्रतीत हो रहे हैं। 

वहीं नए राजनीतिक समीकरण गढऩे के लिए नीतीश को बड़ी कीमत चुकानी पड़ी है। साख को ताक पर रखकर भाजपा के साथ सरकार चलाने का निर्णय आसान नहीं था। यह बात स्पष्ट है कि नीतीश का इस्तेमाल भाजपा अपने प्रभाव को और व्यापक बनाने में करेगी, क्योंकि बिहार से पिछली बार पार्टी के 22 सांसद चुनकर आए थे, वहीं एनडीए के कुल 31 उम्मीदवारों ने जीत दर्ज कराई थी। बड़ा सवाल यह है कि बिहार की नई सरकार क्या भाजपा के घोषणापत्र के वायदों को पूरा करेगी? यदि नहीं तो अगले चुनाव में किस आधार पर वोट मांगेंगी। वहीं सरकार नीतीश के घोषित 7 संकल्पों पर कार्य प्रारंभ कर चुकी है। संसाधनों की कमी के बावजूद नीतीश अपनी सुशासन बाबू की छवि को  पुनस्र्थापित करना चाहेंगे, क्योंकि अपने राजनीतिक कद को बनाए रखने के लिए आवश्यक होगा। राजनीति और विकास का समन्वय एक नए राजनीतिक मित्र के साथ नीतीश की सबसे बड़ी चुनौती है। वहीं हिंदी पट्टी में भगवाकरण के दौर में भाजपा की बढ़ती ताकत के बाद नीतीश जैसे नेताओं से पार्टी कैसे व्यवहार करेगी यह भी एक बड़ा सवाल है।

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