काई से बने ईंधन से चलेंगी अब आपकी गाडियां

Edited By Ravi Pratap Singh,Updated: 21 Aug, 2019 01:35 PM

now your cars will run with moss fuel

भारत समेत पूरे विश्व में तेल भंडार सीमित मात्रा में उपल्बध है। भारत अपनी जरूरत का 80 प्रतिशत ईँधन आयात करता है जिसके चलते बड़ी मात्रा में विदेशी मुद्रा उसकी खरीद में चली जाती है। लेकिन उत्तर प्रदेश के मेरठ स्थित वल्लभ भाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी...

नेशनल डेस्कः भारत समेत पूरे विश्व में तेल भंडार सीमित मात्रा में उपल्बध है। भारत अपनी जरूरत का 80 प्रतिशत ईंधन आयात करता है जिसके चलते बड़ी मात्रा में विदेशी मुद्रा उसकी खरीद में चली जाती है। लेकिन उत्तर प्रदेश के मेरठ स्थित वल्लभ भाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय ने गैर पारंपरिक ऊर्जा के क्षेत्र में अहम खोज की है। यहां के जैव प्रौद्योगिक विभाग के पूर्व डीन डॉ सुबोध भटनागर ने काई (शैवाल) की ऐसी चार प्रजातियां खोजी हैं, जिनसे बायोडीजल में बदलने वाला ट्राई ग्लीसैराइड्स (जैव वसा) अन्य प्रजातियों की तुलना में काफी अधिक मात्रा में बनाया जा सकता है।

डॉ. भटनागर ने आयरलैंड में वैज्ञानिक डॉ. स्टीफेन क्रॉन और ग्रोडीजल क्लाइमेट केयर काउंसिल के साथ मिलकर वसा युक्तशैवालों के औद्योगिक उत्पादन पर कार्य किया है। देश में काई से ईंधन बनाने के लिए मसौदा अब नवीन और अक्षय ऊर्जा मंत्रालय को सौंप दिया गया है।

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कैसे खोजी चार प्रजातियां
इसके लिए डॉ. भटनागर ने समुद्र, नदियों और तालाबों से 28 प्रजातियों के सैंपल इकट्ठा किए। फिर परीक्षण के दौरान इनमें चार प्रजातियां ऐसी पाई गईं, जिनमें वसा का प्रतिशत अन्य के मुकाबले अधिक थीं।

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इनसे होता है सामान्य की तुलना में अधिक बायोडीजल का उत्पादन
सामान्य प्रजातियों के एक हेक्टेयर उत्पादन से 58 हजार 700 लीटर जैव ईंधन बनाया जा सकता है जबकि इन चार विशेष प्रजातियों से 1 लाख 36 हजार 900 लीटर ईंधन का उत्पादन हो सकता है। इन खास प्रजातियों में बैटियो कोकस ब्राउनियाई, क्लौरैला, नैनो क्लोराप्सिस और निटजशिया शामिल हैं। बायोमास में पाए जाने वाले ट्राई ग्लिसैराइड्स के मेथेनॉल के साथ मिलने पर ट्रांसएस्ट्रीफिकेशन या एल्कोहलाइसिस के द्वारा बायोडीजल और ग्लीसैराल बनता है। .

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विशेष भूमि की जरूरत नहीं काई उत्पादन के लिए
तालाबों और पोखरों में बिना किसी प्रयास के उगने वाले शैवाल को जैव प्रोद्यौगिक की भाषा में पादप जैव फैक्टरी कहा जाता है। खास यह कि इसे उगाने के लिए जैट्रोफा, सोयाबीन की तरह भूमि की जरूरत नहीं होती। यह नगर निगम के सीवरेज सिस्टम के पानी में भी उगाया जा सकता है। यह दूषित पानी को साफ करने में भी सक्षम है।

 

 

 

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