Ramadan 2018: छोटी सी गलती रोज़े को कर सकती है बेअसर

Edited By Niyati Bhandari,Updated: 16 May, 2018 12:58 PM

ramadan 2018

रोज़े को अरबी में ‘सौम’ कहते हैं जिसका अर्थ है रुक जाना अर्थात रोज़े रखने वाला भोर से लेकर सूर्यास्त तक खाने-पीने आदि से रुक जाता है। अधिक खाने-पीने से मनुष्य की भोगेच्छा (शहवत) बढ़ती रहती है और शैैतान जो हमारे रक्त के साथ-साथ घूमता रहता है हमें...

रोज़े को अरबी में ‘सौम’ कहते हैं जिसका अर्थ है रुक जाना अर्थात रोज़े रखने वाला भोर से लेकर सूर्यास्त तक खाने-पीने आदि से रुक जाता है। अधिक खाने-पीने से मनुष्य की भोगेच्छा (शहवत) बढ़ती रहती है और शैैतान जो हमारे रक्त के साथ-साथ घूमता रहता है हमें सरलतापूर्वक पथभ्रष्टा कर सकता है इसलिए रोज़े इंद्रियों को वश में रखने का उत्तम साधन हैं।


इस्लाम से पहले भी लोगों पर रोज़ा अनिवार्य किया गया था परंतु उन्होंने रोज़ों को ही अपने जीवन का उद्देश्य बना लिया और फिर वे रूहबानियत अथवा संन्यास की ओर निकल गए। इस्लाम चूंकि एक मध्यमार्गी धर्म है इसलिए इसने रोज़ों को साधन तो बनाया, उद्देश्य नहीं, इसलिए जहां सदैव रोज़ा रखने से मना फरमाया, वही भिन्न-भिन्न अवसरों पर रोज़ा रखने का हुक्म भी दिया। यद्यपि अनिवार्य रोज़ा केवल रमजान के महीने का ही है।


‘‘ऐ ईमान वालो! तुम पर रोज़े अनिवार्य किए गए हैं। जिस प्रकार तुमसे पहले लोगों पर अनिवार्य किए गए थे।’’ (कुरआन सूरा-2, अल बकरा आयत: 183)


यहां रोज़ों से अभिप्राय रमजान के रोज़े हैं क्योंकि रमजान वह शुभ महीना है जिसमें कुरआन शरीफ उतारा गया। इसलिए इस महीने को रोज़ों जैसी महान इबादत का महीना बना दिया गया। 


रमजान वह महीना है जिसमें कुरआन शरीफ उतारा गया जो लोगों के लिए सर्वथा मार्गदर्शक है और जो ऐसी स्पष्ट शिक्षाओं पर आधारित है जो सीधा मार्ग दिखाने वाली हैं।


रोज़ों के अनेक लाभ हैं। इस्लाम में इसकी महत्ता स्पष्ट है। यह इसका चौथा स्तंभ है। रोज़ा ईशपरायणता और ईश भय का स्रोत है। इसके द्वारा इंसान के भीतर ईशपरायणता का गुण उत्पन्न होता है। इस बारे में कुरआन शरीफ, सुन्नत आदि में उल्लेख किया गया है। अल्लाह ने रोज़े को इंसानों के लिए अनिवार्य ठहराया है।


कुरआन शरीफ में लिखा है, ऐ ईमान वालो. तुम्हारे लिए रोज़े अनिवार्य कर दिए गए जिस प्रकार तुम में पहले नबियों के अनुयायियों के लिए अनिवार्य किए गए थे। इससे आशा है कि तुम में तक्वा (ईशपरायणता) का गुण पैदा होगा।


इसी प्रकार अल्लाह के रसूल स. हजरत मोहम्मद ने कहा है, रोज़ा (दुनिया में गुनाहों से और आखिरत में नरक से बचाने वाला) ढाल है।


एक हदीस में लिखा है, अत: जब तुममें से किसी का रोज़ा हो तो चाहिए कि वह अश्लील बातें न करे, न ही शोर मचाए और यदि कोई उससे गाली-गलौच करे या लडऩे-भिडऩे पर उतर आए तो (उससे भी और अपने मन में भी) कहे कि मैं रोज़ो से हूं, मैं रोज़ो से हूं।
यूं तो प्रत्येक मुसलमान के लिए बुरी बात कहने और गाली-गलौच करने तथा लडऩे-भिडऩे से बचना हर हाल में आवश्यक है लेकिन जब वह रोज़ो से हों तो उसके लिए शांति की इस नीति की आवश्यकता और भी अधिक बढ़ जाती है। सामान्य दशा में वह यदि इस तरह की कमजोरियों से पूरी तरह सुरक्षित नहीं रह पाता तो कम से कम रोज़ो की दशा में तो उसे इनके निकट कदापि नहीं जाना चाहिए।


ईशपरायणता अल्लाह की नाराजगी से बचने के उस गहरे एहसास का नाम है जो इंसान को प्रत्येक भले कार्य के लिए उभारता और हर बुरे कार्य से रोकता रहता है। यह हृदय की एक विशिष्ट दशा है जिससे एक विशेष प्रकार की व्यावहारिक नीति अस्तित्व में आती है। यह नीति अल्लाह के आज्ञापालन और उसकी प्रसन्नता की प्राप्ति की नीति है। इस दशा से जो हृदय आपूर्त होता है, वह प्रत्येक समय यह देखता रहता है कि मेरा ईश्वर कहीं मुझ से नाराज न हो जाए और मैं कोई ऐसा कार्य न कर बैठूं जिसे वह पसंद न करता हो और कोई ऐसा काम करने से रुक न जाऊं जिसे वह पसंद करता हो।


रोज़ो की महत्ता यह भी है कि ईशपरायणता सही अर्थ में ही रोज़ो के बिना पैदा ही नहीं हो सकती। नि:संदेह ऐसी बहुत-सी चीजें हैं जो ईशपरायणता के विकास में सहायक हैं, मगर रोज़ा इस सिलसिले में जो भूमिका निभाता है वह इसी का भाग है। दूसरा कोई इसका विकल्प नहीं बन सकता। ईशपरायणता के अपेक्षित गुण रोज़ो के द्वारा ही परवान चढ़ते हैं। रोज़ो की एक विशिष्ट महत्ता यह भी है कि यह कुछ दृष्टियों से इस्लाम के मूल स्वभाव का सबसे बड़ा प्रतिबिंब है और इस्लाम की जो धारणा कुरआन शरीफ ने दी है उसकी विशिष्ट रूप रेखा रोज़ो के आईने में सबसे अधिक स्पष्ट रूप में दिखाई देती है।


इसका अर्थ यह है कि रोज़ा इंसान को केवल कर्म से ही परहेजगार नहीं बनाता बल्कि सोच व दृष्टि का भी परहेजगार बनाता है। वह इंसान को ईशपरायणता ही नहीं प्रदान करता अपितु इसका व्यापक अर्थ भी प्रदान करता है।

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