बाणी के बोहिथ:-श्री गुरू अर्जुन देव जी

Edited By Punjab Kesari,Updated: 23 Dec, 2017 05:08 PM

bohit of vaani   shree guru arjun dev ji

शहीद शब्द फारसी बोली में से लिया गया है,जिस के भावार्थ हैं गवाह अथवा साखी। इस प्रकार शहादत शब्द का अर्थ वह गवाही है जो किसी महापुरूष ने अपने प्राणों की आहूती देक र कि सी महान तथा आदर्श कार्य के लिए दी या भरी होती है। शहादत का जामा पवित्र तथा पुनीत...

शहीद शब्द फारसी बोली में से लिया गया है,जिस के भावार्थ हैं गवाह अथवा साखी। इस प्रकार शहादत शब्द का अर्थ वह गवाही है जो किसी महापुरूष ने अपने प्राणों की आहूती देक र कि सी महान तथा आदर्श कार्य के लिए दी या भरी होती है। शहादत का जामा पवित्र तथा पुनीत होता है जिस को पहन कर शहीद देश तथा कौम का वे सरमाया बन जाता है जो आने वाली नसलों को ना केवल (कुर्बानियों के पक्ष से) अमीर बनाता है बल्कि अपनी कौम के हीरों की शहादत पर फख़्ार करने योग्य भी बनाता है। सिखी के सिद्धान्तों की स्थापना तथा बुलंदी हित दी गई पंचम पातशाह की शहादत भी गुरू नानक नाम लेवा संगत के लिए गौरव करने योग्य है।

 

सिख धर्म के बानी श्री गुरू नानक देव जी ने इस धर्म की बुनियाद कुछ ऐसे सार्थक तथा चिरकाली सिद्धान्तों पर रखी है जो लोकाई को न केवल अंधेरी (वहमों-भ्रमों) गलियों में भटकने से रोकते हैं बल्कि किरत करके उसको (ज़रूरतमंदों में) बांटने तथा उस परम पिता का नाम जपने (शुक्र करने) की जीवन-युक्ति भी बताते हैं। इस जीवन-युक्ति को अपना कर कोई भी मनुष्य यहां अपने लोक को सुखी बना सकता है,वहां अपने परलोक को भी सुहेला कर सकता है। गुरू साहिब द्वारा दर्शाया गया सत्य का यह मार्ग आध्यात्मिक पक्ष पूर्ण करने के साथ-साथ मनुष्य के समाजिक तथा सभ्याचारक सरोकारों का भी पूर्ण रूप से समर्थन करता है। इस समर्थन के रूप में ही गुरू जी द्धारा सिमरन के साथ-साथ सेवा के संकल्प को भी जोड़ा गया है। 

 

यह संकल्प किसी व्यक्ति को ना केवल धर्मी मनुष्य बनने तक ही सीमित रखना है बल्कि उसकी समाजिक सार्थकता को भी बनाए रखता है। यह सार्थकता उसके जीवन के मुख्य उद्देश्य (मोक्ष) की प्राप्ति के लिए भी कारगर सिद्ध होती है। यह कारगरता ही सिख धर्म को अन्य धर्मों से कुछ अलग करती है। इन अलग विश्वासों तथा अहसासों की मालिकी रखने वाले इस वैज्ञानिक धर्मों की चढ़ती कला हेतु दस गुरू साहिबान अपने-अपने समय भरपूर प्रयास करते रहे हैं। गुरू साहिब द्वारा किए गए यह सर्वकल्याणकारी प्रयास (अपनी एक विशेष महत्ता रखने के कारण) समय की हकू मतों तथा गुरू नानक के दर-घर से वैर-विरोध की भावना रखने वालों के नेत्रों में हमेशा खटकते रहे हैं। इस खटकन के बढ़ जाने के कारण ही श्री गुरू अर्जुन देव जी को गर्म तवी पर जलती हुई आग के ताप को उस परम पिता की रज़ा के रूप में स्वीकार करना पढ़ा था। 

 

इस स्वीकृ ति के कारण ही सिख जगत उनको शहीदों के सिरताज कह कर उनका सम्मान तथा पूजा करता है। बाणी के बोहिथ,शांति के पुंज,आदि ग्रंथ साहिब के सम्पादक,ज़ुल्म की अग्नि को धैर्यशीलता से शीतल करने वाले साहिब श्री गुरू अर्जुन देव जी का जन्म 15 अप्रैल ,1563 (बैसाख बिक्रमी 1620) को ऐतिहासक नगर श्री गोइंदवाल साहिब में श्री गुरू रामदास जी तथा बीबी भानी जी के गृह में हुआ। उनका बचपन नाना गुरू (श्री गुरू अमरदास) जी की छत्र-छाया में प्रवान चढ़ा। इसके अतिरिक्त बहुत से ज्ञानी-ध्यानी,विद्वान तथा सति-पुरष आप जी के सतिकारयोग पिता श्री गुरू रामदास जी तथा स्वयं उनकी अपनी संगत में रहते थे। इसके इलावा ननिहाल परिवार में से मिला गुरमति भरपूर वातावरण भी उनकी (गुरू अर्जुन देव जी) शखसियत को विकसित तथा प्रफुल्लत करने में बहुत लाभदायक सिद्ध हुआ।

 

नाने-दोहते के परस्पर प्रेम की बदौलत ही उनके व्यक्तित्व में से ऊंचे तथा सुच्चे गुणों की झलक जीवन के पहले पड़ाव में ही दिखाई देने लग गई थी। इस झलक को देखने के बाद ही नाना गुरू ने उनको ‘दोहिता बाणी का बोहिथा’ कह कर उनके महान पुरूष हाने के अटल बचन कहे थे। नाना गुरू के प्रेम भरे नेतृत्व के अतिरिक्त पिता गुरू रामदास जी की निकटता भी उनके सांसों का सहारा बनी हुइी थी। छोटी आयु में उनकी सेवा तथा सिमरन वाली वृति को देखते हुए ही गुरू रामदास जी ने अपने बड़े दोनों पुत्रों (प्रिथी चन्द तथा महादेव) को छोड़ कर 1 सितम्बर 1581 ई0 (2 आश्विन सम्वत् 1638) को शुक्रवार वाले दिन गुरू नानक देव जी के घर क वारिस नियुक्त किया था। इस नियुक्ति के समय उनकी आयु 18 वर्ष, 4 महीने 14 दिन की थी। चौथे पातशाह के इस चुनाव से प्रिथी चंद की उम्मीदों के महल हवा हो गए। वह गुरू पिता जी के साथ काफी नाराज़ हुआ। 

 

श्री गुरू रामदास जी ने उस को प्रेम से समझाने का बहुत प्रयास किया परन्तु उसक समझ पर लालच भारू हो चुका था। इस लालच तथा बेसमझी के कारण ही उसने गुरू नानक पातशाह के घर को हानि पहुंचाने के कई नाकाम प्रयास भी किए थे। इन प्रयासों क लड़ी में यहां उसने सिख संगत को कुछ वकत के लिये गुमराह करने की कुचालें चली, वहां गुरू के लंगर को मस्ताना (खत्म) करने में भी अपनी नकारात्मक भूमिका निभाई। पंचम पातशाह साहिब श्री गुरू अर्जुन देव जी ने गुरगद्दी पर बैठते ही सबसे पहला पवित्र कार्य गुरू रामदास सरोवर को पक्का करने का किया। इस कार्य की सम्पूर्णता के पश्चात् आप जी ने मुकद्दस सरोवर के बीच एक ऐसा धर्म अस्थान (परमेश्वर की याद दिलाने के लिए) बनाने की योजनाबंदी की जो शेष धर्म अस्थानों (किसी विशेष देवी-देवते को समर्पित) से विल्क्षणता भरपूर हो। इस धर्म अस्थान (हरिमन्दिर साहिब) की तामीर करवानी अपने आप में एक अनूप कार्य था,क्योंकि इस के चार दरवाज़ों में प्रवेश धर्म,नस्ल,रंग,देश तथा कौम क आधार मान कर किए जाने वाले भेदभावों से रहत था।

 

दूसरे धर्मों के धार्मिक स्थान आम तौर पर इर्द-गिर्द के मकानों से कुछ ऊंचाई पर बनाए जाते हैं परन्तु श्री हरिमन्दिर साहिब की सीढिय़ां ऊपर जाने की अपेक्षा नीचे की और जाती हैं जो गुरू अरजुन देव जी की दूरदृष्टि क प्रमाण है। इस दृष्टि के अनुसार जो भी कोइ्र्र श्रद्धालु अपने इष्ट के सम्मुख होने के लिए आए वह अहं रोग से मुक्त होकर आए। श्री गुरू अरजुन देव जी द्वारा और भी बहुत से ऐसे कार्य किए गए जिन्होंने सिखी के फैलाव तथा सिद्धान्तों को निभाने के लिए बहुत बड़ी भूमिका अदा की है। इन कार्यों में से प्रमुख तथा अधिक सम्मान वाला कार्य श्री आदि ग्रंथ साहिब की सम्पादना है। इस बहुमूल्य कार्य को उनकी एक शिरोमणि प्राप्ति के रूम में लिया जाता है। धार्मिक नेता होने के साथ-साथ गुरू अरजुन देव जी एक प्रतिभाशाली विद्वान भी थे।

 

श्री गुरू ग्रंथ साहिब के भट्ट बाणीकार मथुरा जी तो उनकी हस्ति को अकाल पुरख से अलग करके ही नहीं देखते थे। इस बात की पुष्टि करते हुए वे लिखते हैं:-

धरनि गगन नव खंड महि जाती सवरूपी रहिओ भरि।।
भनि मथुरा कछु भेद नही गुरू अरजुनु परतखु हरि।।

 

वे (मथुरा जी) तो यहां तक भी फुर्माते हैं कि जिन्होंने गुरू अरजुन देव जी के साथ सच्ची प्रीत डाल ली उन प्यारों का जन्म-मरण ही काटा जाता है। इस बात की गवाही वे निम्नलिखित पावन पंक्तियों द्वारा दे रहे हैं:-

ततु बिचारू यह मथुरा जग तारन कउ अवतारू बनायउ।।
जपयो जिन अरजुन देव गुरू फि रि संकट जोनि गरभन आयउ।।

 

जहां गुरू अर्जुन देव जी उत्तरी भारत में प्रचलित भाषाओं के उस्ताद थे,वहां साथ ही संगीतक मुहारत भी रखते थे। इस मुहारत के कारण ही जहां उन्होंने स्वयं इलाही बाणी की सृजना की वहां अपने से पूर्ववर्ती गुरू साहिबान,अलग-अलग व्यवसायों से जुड़े हुए भक्तों तथा भट्टों की पवित्र बाणी को एक सुच्ची माला (ग्रंथ साहिब) में पिरोने का एक अनथक यत्न भी आरम्भ किया। अपने इस यत्न को स$फलतापूर्वक सम्पूर्ण करने के लिए उनके द्वारा अपने समय के पंथक विद्वान भाई गुरदास (गुरू जी के मामा) जी की सेवाएं भी ली गई। इस महान तथा विल्क्षण कार्य की सम्पूर्णता भादों वदी एक (1604) को हुई। सर्बत के भले वाली सोच तथा लोक हितकारी अमलों के कारण गुरू नानक दरबार की लोकप्रियता तत्काली हकुमत (जहांगीर तथा उसके चेले)तथा गुरू घर के दोखियों की आखों में खटकने लगी। 

 

इस खटकन ने ही गुरू अर्जुन देव जी को शहीद करवाने में अपनी निंदनीय भूमिका अदा की है। श्री गुरू अर्जुन देव जी के समकालीन सरहिंद के इलाके में नकशबंदी सिलसले से सम्बन्धित शेख अहमद सरहिन्दी की पूरी चढ़ाई थी। वह धरती तथा आसमान पर अपना अधिकार जतलाता था। बादशाह अकबर की दरियादिली को वह इस्लाम की कमज़ोरी समझता था। इस कमज़ोरी को दूर करके इस्लाम का बोलबाला करना वह अपना निजी तथा मुकद्दस कर्तव्य समझता था । इस कर्तव्य की पालना हेतु ही उसने श्री गुरू अर्जुन देव जी को ‘इमान-ए- कुफर’ का फ़तवा दिया तथा एक कट्टर सोच के मालिक बादशाह जहांगीर के कान भरने लगा। उसने बादशाह को बताया कि (गुरू) अर्जुन देव आपके अब्बा जान (अकबर) के चहेते थे। 

 

उनके प्रचार तथा प्रसार के कारण केवल हिन्दू ही नहीं बल्कि बड़ी संख्या में मुस्लमान भी गुरू-घर के प्रशंसक बन गए हैं। इसके अतिरिक्त उस (गुरू) ने बागी खुसरो की न केवल धन देकर सहायता ही की है बल्कि तिलक लगा कर उसको तखत हासिल करने में सहयोग भी दिया है। जहांगीर को अपने राज-भाग की लम्बी आयु के लिए कट्टर पंथियों का सहयोग चाहिए था,इसलिए उसने गुरू साहिब को लाहौर बुला लिया। जहांगीर का हुक्म पाकर खान गुरदेव को ग्रिफ़तार करके लाहौर ले गया। लाहौर में गुरू जी को चंदू के सपुर्द कर दिया गया जिसकी गुरू-घर से निजी दुश्मनी थी। चंदू ने गुरू साहिब को भयानक सज़ाएं देने की ठान ली। इन सज़ाओं के अंतर्गत जहां गुरू साहिब को ज्येष्ठ महीने की कडक़ती धूप में उबलती देग में उबाला गया,वहां गर्म तवी पर बैठा कर नंगे जिस्म पर गर्म रेत के कड़छे भी डाले गए। इस अकथ तथा असह ज़ल्म को पंचम पातशाह ने ‘दुख विचि सूख मनाई’ की अवस्था में लेते हुए उस अकाल पुरख की रज़ा को मीठा करके मान लिया और 30 मई 1606 ई0 को शहीदी प्राप्त कर गए।

 

रमेश बग्गा चोहला

09463132719

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