प्रशासनिक सेवाओं में बाबुओं और बाहरियों के बीच रस्साकशी जारी

Edited By Punjab Kesari,Updated: 23 Jul, 2017 11:15 PM

taskakashi between babus and outsiders in administrative services

कई निगमों और अन्य कम्पनियों में वरिष्ठ पदों पर विशेषज्ञों को बाहर से लाकर पदासीन कर रही....

कई निगमों और अन्य कम्पनियों में वरिष्ठ पदों पर विशेषज्ञों को बाहर से लाकर पदासीन कर रही मोदी सरकार ने एक तरह से इन निगमों और कम्पनियों में भारतीय नौकरशाही के कब्जे या दबदबे को स्पष्ट तौर पर कमजोर कर दिया है। 

यह कदम इसलिए भी हैरान करता है कि 2015 में प्रधानमंत्री कार्यालय में कार्यरत राज्य मंत्री जितेन्द्र सिंह ने संसद को स्पष्ट तौर पर बताया था कि नागरिक सेवाओं में इस तरह से बाहरी लागों को शामिल करने का कोई कदम नहीं उठाया जा रहा है पर हमारी जानकारी के अनुसार मोदी सरकार ने स्पष्ट कर दिया है कि वह बदलाव से कोई परहेज नहीं रखती है और अगर इस कदम से नौकरशाही में एक ताजी हवा प्रवाहित की जा सकती है तो इसे एक अच्छे प्रयास के तौर पर भी देखा जाना चाहिए पर इसमें अधिक हैरानी की बात नहीं है कि बाबू लोग यह महसूस कर रहे हैं कि उनके प्यारे किले में एक और नई सेंध लग रही है। ऐसे में प्रशासनिक सेवाओं में बाबुओं और बाहरियों के बीच रस्साकशी जारी है। 

यह तो स्पष्ट है कि प्रशासनिक सेवाओं में बाहर से आने वाले लोगों का प्रवेश कोई नई बात नहीं है और कई कड़वे विवाद भी हुए हैं। बाबू लगातार सरकार के ऐसे प्रयासों का प्रतिरोध कर रहे हैं और वे काफी हद तक ऐसे लोगों को अपनी मांद में प्रवेश करने से रोकने में सफल भी रहे हैं। हालांकि केन्द्र में रही करीब-करीब हर केन्द्र सरकार में बाहरी लोगों के प्रवेश के उदाहरण मिलते रहे हैं और यह एक औपचारिक नीति के तौर पर कुछ प्रभावशाली लोगों के इशारों पर होने वाली प्रविष्टियां रही हैं। इस तरह का सबसे पहला प्रयास 1959 में हुआ जब कुछ पदों पर निजी क्षेत्र के विशेषज्ञों को लाने की जरूरत महसूस हुई और सरकार ने इंडस्ट्रियल मैनेजमैंट पूल (आई.एम.पी.) स्थापित किया। 

इसका उद्देश्य मध्यम और उच्च पदों पर नियुक्त करने के लिए प्रतिभाओं को साथ लाना था और इस कार्यक्रम में देश के कुछ प्रमुख पदों पर प्रमुख लोगों को नियुक्त किया गया जैसे कि वी. कृष्णमूर्ति (सेल, भेल और मारूति में), प्रकाश लाल टंडन (स्टेट ट्रेडिंग कॉर्पोरेशन ऑफ इंडिया, पंजाब नैशनल बैंक और नैशनल काऊंसिल ऑफ एप्लाइड इकोनॉमिक रिसर्च) और टैक्नोकार्ट लवराज कुमार (सचिव, पैट्रोलियम मंत्रालय) आदि अन्य। स्वाभाविक है कि बाबुओं ने उनको पीछे धकेलने का प्रयास किया क्योंकि उन्हें अपनी जमीन छिनती नजर आ रही थी और आखिरकार 1973 में इस कार्यक्रम को समाप्त कर दिया गया। 

तभी से समय-समय पर टैक्नोक्रेट्स को विभिन्न पदों पर लाया गया है लेकिन ये मुख्य तौर पर अर्थशास्त्री ही रहे हैं जिनमें आई.जी. पटेल, एल.के. झा (पूर्व आर.बी.आई. राज्यपाल), मोंटेक सिंह आहलूवालिया (योजना आयोग प्रमुख) और वैज्ञानिक (डा. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम), इंजीनियर्स (के.सी.आर. चारी, मंतोष सोंधी, एस. वरदराजन, के.पी.पी. नांबियार) और नई सोच रखने वाले उद्यमी (सैम पित्रोदा) शामिल हैं। उन्होंने प्रमुख तौर पर अपनी निजी प्रतिभा से सफलता हासिल की, पर अक्सर उनकी सफलताओं को भुला दिया गया, क्योंकि उनके आसपास मौजूद कई सारे सिविल अधिकारियों ने उनके आसपास घेरे बना लिए थे।

और ऐसा ही हो रहा है अब तक। वर्तमान में पिछले दरवाजे से इन नियुक्तियों को लेकर कार्मिक एवं प्रशिक्षण विभाग द्वारा तैयार किया गया प्रस्ताव उस रिपोर्ट पर आधारित है जिसमें अधिकारियों, विशेषकर मध्यम स्तर पर काफी गंभीर कमी महसूस की जा रही है। स्पष्ट है कि प्रशासनिक सेवाओं की परीक्षाओं में अधिकारियों का चयन भी बढ़ रहा है और 1998 में 55 के मुकाबले 2015 में 180 तक पहुंच गया है लेकिन इससे भी अधिक फर्क नहीं पड़ा है। अब भी मोदी सरकार हर कदम ध्यान से उठा रही है क्योंकि सशक्त एवं सत्ता के मद में चूर आई.ए.एस. लॉबी का अहंकार अभी टूटा नहीं है और काफी मजबूती से असर बनाए हुए है। 

नए प्रस्ताव के अनुसार संयुक्त सचिव पदों पर 40 से अधिक विशेषज्ञों को नियुक्त किया जाना चाहिए। सबसे महत्वपूर्ण है कि इस प्रस्ताव को नीति आयोग का भी समर्थन प्राप्त है। इससे पहले भी छठे वेतन आयोग और द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग ने इन बाहरी नियुक्तियों की जोरदार सिफारिश की थी। एक ऐसे दौर में जब सामान्य प्रशासक सबसे अधिक असरदायक हैं, यह काफी मजबूती से माना जाता है कि आज के संदर्भ को पूरी तरह से बदलने की जरूरत है। आज के दौर में प्रशासनिक प्रक्रिया की अधिकांश शाखाओं में क्षेत्र विशेषज्ञों की जरूरत बढ़ती जा रही है। पर, इस तरह की आम सहमति के बावजूद (नौकरशाही के बाहर, निश्चित तौर पर) इस प्रस्ताव को बाबुओं के स्वाभाविक विरोध की नजर से सम्पूर्ण रोशनी में भी देखने की जरूरत है। इन नियुक्तियों का रास्ता भी प्रक्रिया के बीच में से होकर जाता है और इस पर बाबुओं की कड़ी नजर है और गैर-बाबुओं द्वारा भी इसको ध्यान से देखा जा रहा है। 

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