भक्त रामानंद जी

Edited By Updated: 22 Dec, 2017 04:26 PM

bhakta ramanand ji

मध्यकाल के दौरान भारत में चली भक्ति लहर का रूहानियत की अमीरी के साथ-साथ धार्मिक क्षेत्र में भी एक महत्वपूर्ण योगदान रहा है।इस लहर से जुडे भक्तों की ओर से जिस बाणी का उच्चारण किया गया, उस में धर्म के कर्मकान्डी रूप को रद्द करके सच्चे आचार तथा सूचजे...

मध्यकाल के दौरान भारत में चली भक्ति लहर का रूहानियत की अमीरी के साथ-साथ धार्मिक क्षेत्र में भी एक महत्वपूर्ण योगदान रहा है।इस लहर से जुडे भक्तों की ओर से जिस बाणी का उच्चारण किया गया, उस में धर्म के कर्मकान्डी रूप को रद्द करके सच्चे आचार तथा सूचजे विहार को धर्म का बुनियादी तत्व माना गया है।यह मान्यता केवल बातों में ही नहीं दी गई बल्कि भगतजनों का अपना समूचा जीवन भी इस मान्यता के अनुसार ही रहा है।अध्यात्मिक क्षेत्र में रब्बी एकता का ज्ञान देने वाले यह भगत अपने समय के समाज को सुधारने व निखारने में भी अपना अमूल्य योगदान डालते रहें है।इस योगदान के बदले इन महापुरूषों को कई वार कट्टरपंथीओं की नफरत तथा गुस्से का शिकार भी होना पड़ता था।

 

अपनी विशेष व विलक्षण विचारधारा के साथ जहां इन्होंने मनुष्यता-विरूद्वी वार्ताःरों को ख़ारिज किया वहां नवीन सोच वाले समाज की सृजना हित भी अनथक प्रयत्न भी किए।इन प्रयत्नो के कारण ही भक्तों की एक भिन्न पहचान स्थापित होती रही है,जो उन्हे क्षेत्रीय व भाषाई हदों से पार ले जाकर लोगों के सतकार का पात्र बनाती रही है।इन्ही सतकारयोग लोगों में शामिल है उत्तरी भारत की भक्ति लहर के संस्थापक रामानन्द जी का नाम। 

 

भक्त रामानन्द जी (जिन्हें स्वामी रामानन्द के नाम से भी जाना जाता है) का जन्म 15 अगस्त 1366 ई (संमत 1423) को एक गोड़ ब्राह्मण श्री भूरिकरमा तथा माता सुशीला देवी के गृह में प्रयाग राज्य (इलाहाबाद),उत्तर प्रदेश में हुआ।(कुछ लेखकों के अनुसार भगत जी के पिता के नाम सदन शर्मा तथा जन्म सथान काशी भी है) बचपन में उन्हें रामादत्त के नाम से भी बुलाया जाता था।भगत रामानन्द जी अचार्या ”रामानुज” जी के द्वारा चलाई गई श्री सम्प्रदाय के एक महान प्रचारक स्वामी राघवनन्द के चेले थे,जो इस सम्प्रदाय के 13 वें मुखी थे।

 

भगत जी का जीवन-काल एक सदी माना जाता है,जिस का अधिकत्तर भाग उन्हों ने प्रमात्मा की भक्ति में लीन रह कर ही गुज़ारा।भगत जी लम्बे समय तक श्री सम्प्रदाय के साथ जुड़ कर अध्यात्मिक गतिविधियों को पुर्ण करते रहे परन्तु बाद में उन्होंने रामावत/रामादत्त सम्प्रदाय की स्थापना कर ली।इस सम्प्रदाय के सिद्धांत तो पहले (श्री सम्प्रदाय) वाले ही रहे परन्तु साधना-पद्धति में कुछ उदारता जरूर बन गई।इस लहर से भक्ति लहर में एक विलक्ष्ण रंग व ढंग दिखई देने लग पड़ा।इस रंग एवंम ढंग कारण ही उस समय की कुछ नीच जातियों के लोग भी इस क्रान्तिकारी लहर के साथ जुड़ने लगे तथा परम-पिता की भक्ति का अधिकार हासिल करने लगे।

 

भक्त रामानन्द जी के अनथक प्रयत्नों से राम-नाम की गंगा झुगीयों-झोपड़ीयों के निवासियों तक भी पहुंच गई तथा उनका आत्मिक जीवन भी आनन्दित होने लगा।उस समय के वर्ग-विभाजन वाले समाज में भगत जी द्वारा क्यिा गया बराबरी का व्यवहार किसी क्रान्तिकारी कदम से कम नहीं कहा जा सकता क्योंकि उस समय पूजा-पाठ का अधिकार कुछ आरक्षित श्रेणीयों के लोगों के ही हिस्से आता था।भगत जी की इस फराखदिली वाली सोच-समझ से प्रभावित हो कर ही वैरागी सम्प्रदाय वाले भी उन्हें अपना अचार्या मानने लग पड़े।कुछ समय के बाद भगत रामानन्द जी ने वैष्णव मत को त्याग दिया तथा एक अकाल-पुरख के उपासक बन गए। भगत जी की इस उपासना के कारण ही पंचम पातशाह श्री गुरू अर्जुन देव जी ने उनका बसंत राग में उच्चारण किया हुआ एक शब्द...

कत जाइए रे घर लागो रंगु।।
मेरा चितु ना चलै भईऊ यंगु।।

 

गुरू ग्रन्थ साहिब के अंग 1195 ऊपर दर्ज किया है जिस मे अपनी मानसिक अवस्था को बयान करते हुए भगत जी बताते है कि मेरा मन पिंगला हो गया है भाव अब यह दर-दर नही भटकता बल्कि अपने प्यारे को पूर्ण रूप में समपिंत हो गया है। भगत रामानन्द जी के कई अन्य भी प्रसिद्ध चेले हुए है जिन्हांेने अपने अपने समय में लोगों को सत्य के साथ जोड़ा तथा झूठ से विमुख किया।भगत जी के इन चेलों में से भगत कबीर जी,बाबा रविदास जी,भगत सैन जी तथा भगत पीपा जी का नाम वर्णन योग्य है।भक्ति लहर के प्रचार तथा प्रसार में यहां इन महापुरूषों ने काबिल-ए- तरीफ़ योगदान डाला वहां ईश्वरीय समीपता एवंम प्यार हासिल करने के लिए भक्ति के मार्ग को एक उत्तम मार्ग भी दर्शाया।

 

अपने जीवन का लम्बा समय गंगा के किनारे (काशी में) पर व्यतीत करके भगत रामानन्द जी 12 दिसम्बर 1467 ई0 को प्रलोक गमन कर गए। भगत रामानन्द जी की विचारधारा के अनुसार पूर्ण गुरू की शरण ही जन्म-जन्मात्तर के बन्धनो को काटने के समर्थ बनाती है।आज भी भगत जी के कमाए हुए उपदेशों की उतनी ही सार्थकता है जितनी उनके अपने समकाल में थी।आवश्यकता केवल उनको आत्मसात करने की है। 


रमेश बग्गा चोहला

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