Edited By Riya bawa,Updated: 06 Sep, 2020 01:03 PM
ढांचे सब बने मिटे
काल के गले मिले
नित्य ही उठा रहा...
ढांचे सब बने मिटे
काल के गले मिले
नित्य ही उठा रहा
धर्म ही टिका रहा
विश्ववृक्ष बीज का
अंकुरण यही रहा
ग्रह नक्षत्र सूर्य का
संतुलन यही रहा
शुक्लचंद्र की गति
कृष्णचंद्र की क्षति
जो पँचभूत तेज है
धर्म का ही भेष है
सूक्ष्मतत्त्व सारे जो
धर्म की ही रीति में
धर्म ऐसा है विराट
विश्व भी परिधि में
गुण स्वभाव प्रकृति
शक्ति में विभीति में
जन्म-मृत्यु की दशा
धर्म की ही नीति में
कर्म इसकी ढाल है
घटा-बढ़ा यदा-कदा
आदि ढूँढ थक गए
अनादि ये रहा सदा
प्रचंड तंग अंतव्यूह
है गर्जना सुना रहा
प्रलय संहार वार से
ये धर्म ही बचा रहा
ये धर्म शक्तिमान है
धर्म स्वाभिमान है
युगवलय प्रमाण है
धर्म का ही मान है
सत्वयुग में धर्मतत्व
चारों पद खड़ा रहा
दान मान योग तप
नित्य जब बढ़ा रहा
त्रेता जो चढ़ा मगर
एक पाँव क्षय हुआ
दानवों का उन्नयन
वेद ज्ञान लय हुआ
त्रिपदी जो युग रहा
द्वापरी में फिर घटा
घोर युद्ध तब छिड़े
धर्म तत्व फिर बँटा
द्विपदी से एकपद
कलियुगीन हो बढ़ा
देख ताप पाप का
धर्म लड़खड़ा गया
छल प्रपंच अत्र-तत्र
सत्य बोध बह गया
चिह्न साधु सन्त का
बस जनेऊ रह गया
शास्त्रज्ञान शून्य हो
विवाद में है दक्षता
दक्षिणा ही ध्येय है
बुद्धि में है तुच्छता
क्षत्रियों की अवदशा
कामवासना दरिद्रता
न शौर्य ही ना वीरता
दम्भ बस अतीत का
व्यपारियों की स्थिति
लोभ स्वार्थ की मति
कपट ही व्यवसाय है
व्याधियों की उन्नति
उच्चपद की लालसा
ये 'शूद्र' की लड़ाई है
सम्पदा की माया है
कि धृष्टता बढ़ायी है
है धर्म की ये दुरदशा
गृहस्थ दरिद्र हो रहे
वैरागी संत जो भी हैं
विलासिता में जी रहे
कलि प्रताप चण्ड है
धर्म अल्प खण्ड है
सत्व-तम का सामना
नित नवीन द्वंद्व है
पाप जितना हो बड़ा
युगों ने ये कथा कही
युद्ध में सदा से ही
धर्म की 'विजय' रही
धर्म की विजय रही !
(जया मिश्रा 'अन्जानी')