GST की भरपाई नहीं हुई तो हिमाचल जैसे छोटे राज्यों को भुगतना पड़ेगा सबसे ज्यादा खामियाजा !

Edited By Suraj Thakur,Updated: 21 Sep, 2020 11:58 AM

if gst is not repaid himachal will suffer the worst

भारत सरकार ने जीएसटी (वस्तु एवं सेवा कर) के राजस्व संग्रह में कमी के चलते राज्यों को हुए नुकसान की भरपाई नहीं करने का फैसला कर लिया है।

केन्द्र की तरफ से कर्ज के सहारे राज्यों को हुई जीएसटी राजस्व में कमी की भरपाई से हिमाचल प्रदेश जैसे छोटे राज्य पर असर पड़ना तय है, जिसकी ज्यादा परिसंपत्तियां राष्ट्रीयकृत हैं।  अब जबकि भारत सरकार ने जीएसटी (वस्तु एवं सेवा कर) के राजस्व संग्रह में कमी के चलते राज्यों को हुए नुकसान की भरपाई नहीं करने का फैसला कर लिया है, तो यह सब और ज्यादा साफ हो गया है कि कुछ छोटे राज्यों को इसका सबसे कठोर खामियाजा भुगतना पड़ेगा। हालांकि केंद्र सरकार इस घाटे का भुगतान करने के लिए बाध्य है, क्योंकि जीएसटी अधिनियम के तहत ऐसा करना उसका एक संवैधानिक दायित्व है, लेकिन संवैधानिक प्रावधानों को कमजोर करना सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के लिए कोई बड़ी बात तो है नहीं।

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फोटो: लेखक टिकेंदर सिंह पंवार   

मुआवजे का भुगतान नहीं किये जाने का स्पष्ट कारण जीएसटी संग्रह में होने वाली कमी को बताया जा रहा है। हालांकि, जब देश में जीएसटी लागू किया गया था और राज्य सरकारों की अप्रत्यक्ष करों को लागू करने की शक्तियां केंद्र द्वारा वापस ले लिया गया था, तो राज्यों से किये गये वादों में से एक वादा यह भी था कि उन्हें अनुमानित राजस्व संग्रह में 14% की वृद्धि के साथ 2020 तक पर्याप्त रूप से मुआवज़ा दिया जायेगा।

अब ऐसी स्थिति में जबकि जीएसटी राजस्व 2.35 लाख करोड़ रुपये तक गिर गया है, राज्यों को मुआवज़ा देने का सबसे अच्छा तरीक़ा पैसा उधार देना और वादा किये गये बक़ाये का भुगतान करना होता। हालांकि, वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने इन पैसों को राज्यों को देने से इनकार कर दिया है, और इसके बजाय राज्यों को उधार लेने के लिए कहा है। यह देखना महत्वपूर्ण है कि हिमाचल प्रदेश जैसे छोटे और पहाड़ी राज्य के लिए इस तरह के क़दम का क्या मतलब है, जिनकी प्रमुख परिसंपत्तियां राष्ट्रीयकृत है और राजस्व के मुख्य स्रोतों को केंद्र ने अपने कब्जे में ले लिया हुआ है-ये स्रोत राज्य के वन और जल विद्युत उत्पादन हैं।

हिमाचल पर असर

हिमाचल प्रदेश ने पहले से ही इस फ़ैसले की ताप को महसूस करना शुरू कर दिया है। जीएसटी परिषद में राज्य मंत्री (भाजपा) ने भी केंद्र को राज्य को पर्याप्त रूप से मुआवजा देने के लिए कहा था। केंद्र द्वारा दिया गया उधार का विकल्प न सिर्फ़ त्रुटिपूर्ण है, बल्कि हिमाचल प्रदेश जैसे छोटे राज्य के लिए विनाशकारी भी है। सार्वजनिक ऋण और दूसरे इकरारनामे सहित राज्य की कुल देनदारियों में 50,000 करोड़ रुपये (50,772.88 करोड़ रुपये) की बढ़ोत्तरी हुई है। आगे भारतीय रिज़र्व बैंक (RBI) या बाजार से उधार लेते हुए बड़े कर्ज़ के बोझ तले यह राज्य वित्तीय संस्थानों के एक पूरक क्षेत्र में बदलकर रह जायेगा।

पैसे उधार देने वालों और उधार लेने वालों के बीच के रिश्तों पर कई अफ़साने हैं और उन सभी अफ़सानों में बिना किसी अपवाद के कर्ज़ लेने वाले बर्बाद होते हैं। शेक्सपियर का नाटक, द मर्चेंट ऑफ वेनिस, कर्ज के फंदे की हकीकत को याद दिलाने वाला एक जीती-जागती ताकीद है। ये नये व्यापारी, जो राज्यों को कर्ज लेने की सलाह दे रहे हैं, उन्हें यह महसूस करना चाहिए कि एक बार कर्ज के फंदे में फंस जाने के बाद राज्य कभी उस फंदे से बाहर नहीं आ पायेंगे।

आइए हम इस बात पर गौर करें कि हिमाचल प्रदेश की वास्तविक स्थिति क्या है और यह स्थिति लोगों के जीवन पर किस तरह से असर डाल सकती है। वैट (मूल्य वर्धित कर) की जगह जीएसटी अपनाने के बाद, हिमाचल ने 2020-21 तक 3,855.14 करोड़ रुपये के राजस्व सृजन का अनुमान लगाया था। यह राज्य के कुल कर राजस्व का तकरीबन 42.41% है। केंद्र से इन पैसों के नहीं दिये जाने की स्थिति में और ऐसी स्थिति,जहां मार्च के बाद से ये पैसे नहीं दिये गये है, राज्य की राजकोषीय सेहत पर गंभीर प्रभाव पड़ेगा।

राज्य के बजट प्रस्ताव में अनुमानित राजस्व के दूसरे मुख्य स्रोत ख़ास तौर पर शराब की बिक्री पर लगने वाला उत्पाद शुल्क, और वैट है। उत्पाद और वैट की यह राशि क्रमश: 1,625.37 करोड़ रुपये (19.67%) और 1,491.39 करोड़ रुपये (18.54%) हैं। इस साल 25 मार्च से देश में घोषित एकतरफ़ा लॉकडाउन के चलते राज्य के ख़ुद के राजस्व-राज्य जीएसटी, उत्पाद शुल्क और वैट यानी इन तीनों शीर्ष राजस्व में भारी कमी आयी है।

राज्य के प्रमुख क्षेत्रों में से एक आतिथ्य उद्योग(Hospitality industry),जिसका उत्पाद शुल्क में योगदान होता है, वह तबाह हो चुका है। इसी तरह, वैट राजस्व काफ़ी गिर गया है। सीमेंट उत्पादन और कारों की बिक्री केवल दो ही ऐसे क्षेत्र हैं, जो राज्य के जीएसटी में योगदान देते हैं। हालांकि,लॉकडाउन के चलते सीमेंट की मांग भी घट गयी थी। मार्च से जून तक इन दोनों क्षेत्रों से भी शायद ही कोई राजस्व हासिल हुआ हो। सिर्फ़ जुलाई और अगस्त में ही राज्य में लगभग 300 करोड़ रुपये प्रति माह जीएसटी सृजित हो पाया था।

15वें वित्त आयोग के मुताबिक़, एक बड़ी देनदारी वाला राज्य राजस्व घाटा अनुदान के सहारे ही बचा रह सकता है, लेकिन वह भी इस साल ख़त्म होने जा रहा है। यह तक़रीबन 11,400 करोड़ रुपये है। लंबे समय तक राज्य सरकार में वित्तीय विभाग में अपनी सेवा दे चुके एक सेवानिवृत्त नौकरशाह कहते हैं, "यह एक गंभीर स्थिति है"। राज्य में 2020-21 के लिए वेतन को लेकर देनदारी 44,545.05 करोड़ रुपये है, इसके साथ ही 7,266 करोड़ रुपये की पेंशन और 4,931.92 करोड़ रुपये की उधारी पर ब्याज़ का भुगतान करना है। ये तीनों मिलकर राज्य में कुल व्यय का 51.49% होता है; वेतन-26.66%, पेंशन-14.79% और ब्याज़ भुगतान-10.04% है।

राज्य के सकल घरेलू उत्पाद या जीएसडीपी का कुल कर्ज़ 42% तक पहुंच चुका है और 1,82,020 करोड़ रुपये का अनुमानित यह जीएसडीपी पहुंच से अब बाहर है। पिछले साल कृषि में 4% की नकारात्मक बढ़ोत्तरी दर्ज की गयी थी और सेवायें राज्य की अर्थव्यवस्था की बढ़ोत्तरी में योगदान देने वाला प्रमुख क्षेत्र थीं, लेकिन इस क्षेत्र पर भी बहुत ही गंभीर असर पड़ा है। मौजूदा 2020-21 के लिए राज्य की राजस्व आय में तक़रीबन 20% की कमी आयी है।

राजकोषीय घाटे का अनुमान,अनुमानित जीएसडीपी के 4.35% से बढ़कर 6.42% होने का रहा है, और अगर राज्य को ज़्यादा उधार लेने के लिए कहा जाता है, तो इससे स्थिति और बदतर हो जायेगी। राज्य को यह सुनिश्चित करने के लिए कि राज्य कम से अपने कर्मचारियों को समय पर वेतन देने में सक्षम है,इसके लिए राज्य को लगभग 5,000 करोड़ रुपये का उधार लेना पड़ सकता है। पर्यटन और परिवहन जैसे कुछ विभाग पहले से ही पिछले तीन से चार महीनों से वेतन का भुगतान करने में असमर्थ हैं।

सवाल है कि राज्य पर भारी कर्ज़ जमा होता जा रहा है, उसका भुगतान कौन करेगा? या फिर राज्य सरकार किसी दिन यह कह दे कि वह अपने कर्मचारियों के वेतन में एक निश्चित प्रतिशत की कटौती करने के लिए तैयार है, क्योंकि राज्य इन्हें चुकाने में असमर्थ है? जाहिर है, हिमाचल प्रदेश के सामने जो चुनौतियां मुंह बाये खड़ी है, उसे हल करने की क्षमता राज्य के वश की बात नहीं रह गयी है। केंद्र के फरमानों को आंख बंद करके मंज़ूर करने के बजाय, भाजपा की अगुवाई वाली राज्य सरकार को मुखर रूप से अपनी आवाज उठानी चाहिए, और अतीत में मिले 'विशेष श्रेणी के दर्जा' की मांग करनी चाहिए।

केरल, राजस्थान और महाराष्ट्र जैसे अन्य राज्यों के साथ-साथ हिमाचल प्रदेश को भी केंद्र सरकार के जीएसटी की इस हुक़म के खिलाफ आवाज़ उठानी चाहिए और इसे इस अधिनियम के मुताबिक ही काम करना चाहिए। इस बात को याद रखना जरूरी है कि सत्तारूढ़ सरकार राज्य के अधिकारों का एक मात्र संरक्षक होती है और इसके हित लोगों के हितों में निहित होते हैं। सरकारें आती हैं और जाती हैं,मगर राज्य और उसके लोगों के हित सर्वोच्च होते हैं।

(नोट: इस लेख में उल्लिखित आंकड़े हिमाचल प्रदेश के आर्थिक सर्वेक्षण और 2020-21 के राज्य बजट से लिए गये हैं।)

  (लेखक टिकेंदर सिंह पंवार शिमला के पूर्व डिप्टी मेयर और National Coalition for Inclusive Sustainable Urbanisation (NCU) के राष्ट्रीय संयोजक भी हैं। यह उनके निजी विचार हैं।)  

 

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