लोकसभा चुनाव में महिलाओं की निर्णायक भूमिका

Edited By ,Updated: 08 Apr, 2024 05:30 AM

decisive role of women in lok sabha elections

एक हालिया रिपोर्ट बताती है कि महिलाओं का उच्च मतदान आगामी 2024 के चुनावों में निर्णायक भूमिका निभा सकता है। परिणामस्वरूप, राजनीतिक दल मतदाताओं के एक महत्वपूर्ण वर्ग के रूप में महिलाओं को आकर्षित करने के लिए विभिन्न लाभों की पेशकश कर रहे हैं।

एक हालिया रिपोर्ट बताती है कि महिलाओं का उच्च मतदान आगामी 2024 के चुनावों में निर्णायक भूमिका निभा सकता है। परिणामस्वरूप, राजनीतिक दल मतदाताओं के एक महत्वपूर्ण वर्ग के रूप में महिलाओं को आकर्षित करने के लिए विभिन्न लाभों की पेशकश कर रहे हैं। रिपोर्ट यह भी बताती है कि 2047 तक महिलाओं का मतदान प्रतिशत 55 प्रतिशत तक पहुंच सकता है, जबकि पुरुषों का मतदान प्रतिशत घटकर 45 प्रतिशत रह सकता है। संसद ने महिलाओं को सशक्त बनाने के लिए पिछले सितंबर में महिला आरक्षण विधेयक पारित किया था। यह विधेयक संसद और राज्य विधानसभाओं में उनके लिए 33 प्रतिशत आरक्षण सुनिश्चित करता है। कांग्रेस और भाजपा दोनों ने विधेयक के पारित होने का श्रेय लिया। 

2008 में, सोनिया गांधी ने इसे उच्च सदन में पारित किया लेकिन लोकसभा में ऐसा करने में विफल रहीं। पी.एम. मोदी ने बड़े गर्व के साथ इस बिल को पेश किया और पिछले साल 27 साल बाद यह लगभग सर्वसम्मति से पास हो गया।
हालांकि, परिसीमन प्रक्रिया और नई जनगणना को पूरा करने में देरी के कारण विधेयक के कार्यान्वयन में 4 साल की देरी होगी। गौरतलब है कि भारतीय संविधान के प्रमुख निर्माताओं में से एक बी.आर. अम्बेडकर ने एक बार कहा था कि ‘राजनीतिक शक्ति सभी सामाजिक प्रगति की कुंजी है।’ 

यह कथन आज भी लागू है, क्योंकि महिलाओं को तब तक न्याय नहीं मिलेगा जब तक निर्णय लेने में उनकी भागीदारी न हो। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से, भारत में केवल एक महिला प्रधानमंत्री और 15 महिला मुख्यमंत्री हुई हैं। हालांकि, 1950 के दशक से चुनाव लडऩे वाली महिलाओं की संख्या 7 गुना बढ़ गई है। लोकसभा में महिलाओं का प्रतिनिधित्व केवल 5 प्रतिशत से बढ़कर 15 प्रतिशत हो गया है। एक महत्वपूर्ण उपाय यह था कि 1993 में, पंचायत की एक तिहाई सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित थीं, जिसे अब अधिकांश राज्यों में 50 प्रतिशत तक बढ़ा दिया गया है। लगभग 10 लाख महिलाएं जमीनी स्तर पर सरपंच के रूप में कार्य करती हैं। ये सरपंच अपने स्थूल अनुभव के बल पर उन्नति की सीढिय़ां चढ़ सके। 

आगामी आम चुनावों में 96.88 करोड़ से अधिक पात्र मतदाता होंगे, जिनमें से 47 करोड़ से अधिक महिलाएं हैं। 2.63 करोड़ नए मतदाताओं में से 1.41 करोड़ महिलाएं हैं। केरल, तेलंगाना, तमिलनाडु, पुडुचेरी, गोवा, आंध्र प्रदेश, मणिपुर, मेघालय, मिजोरम और नागालैंड में अधिक महिलाओं ने मतदान के लिए पंजीकरण कराया है। कोटा विधेयक से महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी में उल्लेखनीय वृद्धि नहीं हुई है। राजनीतिक दलों से अपेक्षा की गई थी कि वे हाल के विधानसभा चुनावों में महिलाओं को अधिक प्रतिनिधित्व प्रदान करेंगे। भले ही उन्होंने महिला आरक्षण विधेयक का समर्थन किया, लेकिन उन्होंने महिलाओं को केवल 10-15 प्रतिशत टिकट आबंटित किए। लोकसभा चुनाव का रुझान भी निराशाजनक है। भाजपा ने घोषित 421 उम्मीदवारों में से 67 महिलाओं को टिकट दिया है। ममता बनर्जी, नीतीश कुमार और अरविंद केजरीवाल जैसे मुख्यमंत्रियों ने महिला सशक्तिकरण को बढ़ावा देने के लाभों को समझा है। 

महिला आरक्षण विधेयक का बेहतर समर्थन करने के लिए पार्टियों को अधिक महिला नेताओं को विकसित करना चाहिए और अपनी उम्मीदवार सूची में अधिक महिलाओं को शामिल करना चाहिए। हालांकि, उनका तर्क है कि जब तक महिलाएं किसी ज्ञात राजनीतिक परिवार से न हों, तब तक उन्हें जीता नहीं जा सकता। गांधी, पवार, यादव, स्वराज, गोयल, करुणानिधि, ठाकरे, चन्द्रशेखर, रेड्डी और नायडू  जैसे कई नेता अपने राजवंश को बनाए रखने के लिए अपने परिवार के सदस्यों को प्रमुख राजनीतिक पदों पर नियुक्त करते हैं। यह समझना महत्वपूर्ण है कि हर महिला किसी महिला उम्मीदवार को वोट नहीं देगी। यह मान लेना कि सभी महिला उम्मीदवारों को महिलाओं से वोट मिलेंगे, गलत है। विश्व स्तर पर स्थिति समान है। अंतर-संसदीय संघ के अनुसार, दुनिया भर में लगभग 26 प्रतिशत कानून निर्माता महिलाएं हैं। दूसरी ओर, रवांडा में 60 प्रतिशत से अधिक सीटों पर महिलाओं का कब्जा है। 2008 में, रवांडा महिला-बहुमत संसद वाला पहला देश बन गया। 

भारत में केवल 14  प्रतिशत संसदीय सीटें महिलाओं के पास हैं। लोकसभा में 78 महिला सदस्य हैं, जबकि राज्यसभा में 24 हैं। 193 देशों की तुलना में, संसद के निचले सदन में महिलाओं के प्रतिनिधित्व के मामले में भारत 149वें स्थान पर है। भारत के प्रत्येक राज्य में 16 प्रतिशत से कम विधायक महिलाएं हैं। राजनीतिक दलों को प्रोत्साहन देने पर निर्भर रहने की बजाय आवश्यक मुद्दों को  संबोधित करने को प्राथमिकता देनी चाहिए। वे महिला मतदाताओं को प्रलोभन देकर लुभाते हैं लेकिन महिला उम्मीदवारों को मैदान में नहीं उतारते। भेदभाव खत्म करने के लिए उन्हें अपने एक तिहाई टिकट महिलाओं के लिए लागू करने चाहिएं। साथ ही, उन्हें राजवंशों को दिए जाने वाले लाभों को हतोत्साहित करना चाहिए। 

महिलाओं के प्रति राजनीतिक जवाबदेही निर्णय लेने की स्थिति में लिंग संतुलन हासिल करने, राजनीतिक दलों में महिलाओं की मजबूत उपस्थिति और प्रभाव को बढ़ावा देने और पार्टी नीतियों और प्लेटफार्मों में लैंगिक समानता के मुद्दों को आगे बढ़ाने से शुरू होती है। हालांकि, यह अपने आप में पर्याप्त नहीं है। हमें ऐसे शासन सुधारों की आवश्यकता है जो लैंगिक मुद्दों के प्रति संवेदनशील हों। ये सुधार निर्वाचित अधिकारियों को अधिक उत्तरदायी बनाने में सक्षम बनाएंगे।-कल्याणी शंकर
 

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