Edited By ,Updated: 18 Feb, 2024 05:12 AM
यह तो तय हो गया है कि कांग्रेस जिन दलों को लोकतंत्र बचाने के नाम पर एकत्र कर इंडिया गठबंधन बना रही थी, वह योजना फ्लॉप हो गई है और कांग्रेस में जिसने भी इस योजना को बनाया था, वह असल में चाहता ही नहीं था कि कांग्रेस अपने पैरों पर आए।
यह तो तय हो गया है कि कांग्रेस जिन दलों को लोकतंत्र बचाने के नाम पर एकत्र कर इंडिया गठबंधन बना रही थी, वह योजना फ्लॉप हो गई है और कांग्रेस में जिसने भी इस योजना को बनाया था, वह असल में चाहता ही नहीं था कि कांग्रेस अपने पैरों पर आए। इसमें कोई शक नहीं कि यदि आज भी देश के सबसे बड़े विपक्षी दल या हर राज्य में निर्णायक उपस्थिति रखने वाला कोई राजनीतिक दल है तो वह कांग्रेस ही है और यदि किसी की आस्था लोकतंत्र में है तो वह एक मजबूत विपक्ष की अपेक्षा रखेगा ही।
16वीं लोकसभा चुनाव के नतीजे हों या उसके बाद हुए विभिन्न राज्यों के विधानसभा चुनाव या फिर सत्ताधारी दलों के हमले, निॢववाद है कि सत्ताधारी दल के बाद सबसे ज्यादा और पूरे देश में, हर राज्य व जिले में वोट पाने वाला एकमात्र दल कांग्रेस ही है। अब स्पष्ट हो चुका है कि कांग्रेस के भीतर बैठे स्लीपर सेल ने इंडिया गठबंधन के नाम पर समूची कांग्रेस की आगामी लोकसभा चुनाव की तैयारियों को बहुत पीछे कर दिया है। कांग्रेस असल में एक राजनीतिक दल से अधिक शासन चलाने का तरीका है और जो भी दल सत्ता में आता है, कांग्रेस हो जाता है।
यही कारण है कि कांग्रेस के अधिकांश क्षत्रप बगैर सत्ता के रह नहीं सकते और तभी बेचैनी में कांग्रेस छोड़कर जा रहे हैं। कांग्रेस का नेता और संभावित उम्मीदवार, आम कार्यकर्ता अब ऊब गया है अगले 2 महीने बाद उसे किसका झंडा उठाना होगा, नीतीश कुमार, ममता बनर्जी और अब केजरीवाल का रुख बताया जा चुका है कि वे ऐसे हालात में समझौता करने के प्रस्ताव देंगे जिससे बात भी न बने और न ही उन पर गठबंधन तोडऩे का आरोप लगे। बीते 2 दशक में जिस तरह कांग्रेस के टुकड़े हुए हैं यह नेतृत्व के प्रति अविश्वास या मजबूत पकड़ न होने से ही हुए हैं और अधिकांश राज्य स्तर के दलों या भाजपा द्वारा बनाए गए मुख्यमंत्री का मूल गौत्र कांग्रेस है।
कांग्रेस को सबसे पहले इस बिखराव के कारणों को खोजने तथा अपने बिछुड़े साथियों को वापस लाने की योजना पर काम करना चाहिए। हो सकता है, इसमें पार्टी के कतिपय पुराने क्षत्रपों के कुछ निजी हित टकराएं, लेकिन संगठन को आधे दर्जन राज्यों में मोर्चे पर वापस लाने के लिए कांग्रेस यदि कोई भी कीमत चुका कर यह काम करती है तो मान कर चलें कि बिखरा, टूटा, जनाधार खो चुकी कांग्रेस आगामी चुनावों में मुकाबले में दिखेगी ।
नेहरूजी से लेकर इंदिराजी तक और आज भी कांग्रेस ताकतवर नेताओं की गणेश परिक्रमा वाली पार्टी है, और तभी दल में न तो नया नेत्ृत्व उभर रहा है और न ही कार्यकत्र्ता। ऐसे में बिखराव रोकने के लिए कांग्रेस को सबसे पहले ‘इंडिया’ के सपने को यहीं मार कर अपने पुराने ‘यू.पी.ए.’ को एकजुट कर उम्मीदवारों की घोषणा के काम पर आगे बढऩा होगा।
एक बात और, भाजपा और आर.एस.एस. अच्छी तरह से जानते हैं कि कांग्रेस पार्टी का ‘मेगनेट या गोंद’ नेहरू-गांधी परिवार ही है और इसी लिए पहले सोनिया गांधी के विदेशी मूल के और उसके बाद राहुल गांधी को पप्पू, बेवकूफ या असरहीन करार देने का अच्छा प्रचार किया गया। जाहिर है कि विपक्षी दल अपने विरोधी की सबसे बड़ी ताकत को ही कमजोर करना चाहता है।
हकीकत यह है कि राहुल गांधी की राजनीति में कहीं कोई गलती नहीं है, लेकिन उन्हें यह सोचना चाहिए था कि जब एक तरफ लाखों की भीड़ के साथ यात्रा और सभा की चर्चा होती है तो उसे वोट में बदलने में कांग्रेस कार्यकर्ता असफल क्यों रहता है? कांग्रेस का एक और प्रयोग असफल रहा, जिसमें सरकार व पार्टी का चेहरा अलग-अलग दिखाना था। जबकि भारत में जनता एक ही नेतृत्व देखना चाहती है। अपने पारंपरिक वोट को पाने के लिए अब पार्टी में राज्य स्तर के क्षत्रप तैयार कर केंद्र पर एक ही चेहरे के प्रयोग की तरफ लौटना होगा। इसके लिए अनिवार्य है कि कांग्रेस अब विभिन्न दलों को जोडऩे की बजाय केवल अपने पुराने साथियों को जोड़ कर टिकट घोषित करे।
हाल के राज्यसभा चुनाव में जिस तरह बीजू जनता दल ने भाजपा का समर्थन किया, यह इशारा मात्र है कि विभिन्न राज्यों में केवल कांग्रेस का विरोध कर उभरे दल किसी भी हालत में कांग्रेस के साथी हो नहीं सकते। इसमें वे सभी दल शामिल हैं जो कभी न कभी भाजपा की उंगली से शहद चाट चुके हैं। कांग्रेस को यह भी विचार करना होगा कि वे कौन से नेता थे जिन्होंने अन्ना आंदोलन से उपजे सरकार-विरोधी असंतोष की पूरी योजना को नजरअंदाज किया या फिर उसकी प्रतिरोध-योजना नहीं बनाई।
आज मोदीजी की प्रचंड जीत की भूमिका अन्ना आंदोलन से ही लिख दी गई थी, जिसमें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की सीधी भूमिका थी, फिर बाबा रामदेव प्रसंग हुआ, बीच में निर्भया वाला विरोध प्रकरण..... और देखें आंदोलन से निकले वी.के. सिंह हों या फिर रामदेव या आम आदमी पार्टी के कई अन्य नेता, बाद में भाजपा के अग्रणी चेहरे बन गए। पहले भीड़ जोडऩा, उसमें सरकार की नाकामियों को दिखा कर विरोध की भावना पैदा करना, फिर उसी भीड़ को मोदी जी की सभा में ले जा कर उसे अपना वोट बनाने की योजना भाजपा की उत्कृष्ट योजना रही, और मदमस्त, जनता के सरोकारों से विमुख कांग्रेसी अपने संगठन के लिए कुछ योगदान नहीं कर पाए।
यह विडंबना है कि बड़े से बड़ा कांग्रेसी सोनिया, राहुल या प्रियंका की पीठ पर चढ़ कर अपनी सफलता की इबारत लिखना चाहता है, जबकि वह अपने कार्यकत्र्ताओं तक से न केवल दुव्र्यवहार करता है, जनता से दूर ही रहता है। एक बात समझ लें राम मंदिर मुद्दा अब धीरे-धीरे शून्य की तरफ है और इसे भाजपा भी चुनावी विषय बनाने से बचेगी। ऐसे में कांग्रेस को इस विषय पर मौन ही रहना होगा। यदि अब कांग्रेस चाहती है कि उसका अस्तित्व बचा रहे तो उसे इस महीने के अंतिम दिनों तक पुराने यू.पी.ए. के साथियों के साथ सीटें बांट लेना चाहिए ।
कांग्रेस को अपने बूथ कार्यकत्र्ता को दल से जोड़ कर रखने के लिए कुछ करना होगा। जान लें कि कार्यकत्र्ता केवल निष्ठा या विचारधारा के कारण दल से जुड़ता है, यदि उसे सम्मान नहीं मिलेगा तो वह अपने व्यवसाय या परिवार का समय पार्टी को देने के बारे में सोचेगा भी नहीं। मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में बीते विधानसभा चुनाव में कांग्रेस आखिरी हफ्ते में बूथ प्रबंधन में हार गई थी।
कांग्रेस यदि वास्तव में अपनी मटियामेट हो गई प्रतिष्ठा को फिर से शिखर पर लाना चाहती है तो उसे नए गठबंधन के नाम पर भीड़ जोडऩे के बनिस्बत, आत्ममंथन, बिछड़े लोगों को वापस लाने, कार्यकत्र्ता को सम्मान देने के कार्य तत्काल करने होंगे। हालांकि आज पार्टी जिस हाल में है उसको देखते हुए तो मोदी जी को सन 2024 के चुनाव में भी कोई चुनौती नहीं दिख रही है। -पंकज चतुर्वेदी