देश को उद्योग प्रधान बनाए बिना आर्थिक विकास संभव नहीं

Edited By ,Updated: 31 Jul, 2021 05:53 AM

ed is not possible without making country industrial oriented

खेतीबाड़ी के मामले में अपने को कृषि प्रधान कहते हुए देशवासी इतने भावुक हो जाते हैं कि धरती को मां और किसान को अन्नदाता कहते नहीं थकते। अब यह बात और है कि जमीन जब बंजर...

खेतीबाड़ी के मामले में अपने को कृषि प्रधान कहते हुए देशवासी इतने भावुक हो जाते हैं कि धरती को मां और किसान को अन्नदाता कहते नहीं थकते। अब यह बात और है कि जमीन जब बंजर, सूखाग्रस्त और रेतीली हो जाती है तो उसका इलाज कर खेती के काबिल बनाने की बजाय या तो बेच देते हैं या सरकार द्वारा अधिग्रहण करने का इंतजार करते हैं। कृषि प्रधान होने के बावजूद किसानी में कम आमदनी, खर्चे ज्यादा होने से किसान अभावग्रस्त जीवन व्यतीत करता है, सरकारी सहायता पर निर्भर रहता है और हमेशा कर्जे में डूबा रहता है। फिर भी कृषि को हमारी अर्थव्यवस्था का पहला स्तंभ माना जाता है। 

उद्योग प्रधान बनना नियति है : कृषि के बाद उद्योग को आर्थिक विकास का दूसरा स्तंभ कहा गया है लेकिन उसकी हालत ऐसी है कि सबसिडी और छूट पर निर्भर और हमेशा ऐसी सरकारी घोषणाओं और योजनाओं की तलाश में रहता है जिनसे कुछ आर्थिक लाभ होता हो। 

रुकावट कहां है :अगर इतिहास में झांकें तो देखेंगे कि भारत में औद्योगिक विकास का अर्थ ऐसे नियम-कायदे बनाना था कि उद्यमी सरकार के चंगुल में फंसे रहकर ही उत्पादन करे और तनिक भी इधर-उधर होने पर कानून का शिकंजा उसे कस सके। उद्योगपति को हमेशा शक की नजर से देखा गया, उस पर स त  पाबंदियां लगती रहीं।  देश में इंस्पैक्टरी राज पनपने से नौकरशाहों और ऐसे उद्योगपतियों का गठजोड़ बन गया जो एक दूसरे को आॢथक लाभ पहुंचाते रहे और इस तरह पैरलल यानी समानांतर इकोनॉमी की शुरुआत हो गई जिसे काला धन कहा गया। 

सरकारी अफसरों ने ऐसे नियम बनाने शुरू कर दिए, अनावश्यक फार्म जमा करने और बेतुकी मांग पूरी करने के फरमान जारी कर दिए और उद्योग लगाने की इच्छा रखने वाले उद्यमियों के सामने इतनी जटिल प्रक्रिया रख दी जिसे केवल अफसरशाही ही सुलझा सकती थी। नतीजा यह हुआ कि रिश्वतखोरी और भाई-भतीजावाद का ऐसा सिलसिला शुरू हुआ जो भ्रष्ट राजनीतिज्ञों, उद्योगपतियों और नौकरशाहों के लिए अकूत संपत्ति जमा करने का अवसर बन गया। 

वर्तमान सरकार कितने भी दावे कर ले कि उसने गली सड़ी व्यवस्था को बदल दिया है पर हकीकत यही है कि आज भी देश में सरकारी नियम पालन करना तब तक अस भव है जब तक कि नेताओं की सिफारिश और अफसरों की मुट्ठी गरम करने के लिए ढेर सारा पैसा न हो। ऐसी हालत में कोई उद्योग सफल कैसे होगा? 

उद्योगों की बंदरबांट : उद्योगों को ग्राम, कुटीर, स्माल, मीडियम, बड़े उद्योगों में बांट दिया और उनके लिए इन्वैस्टमैंट, संचालन, उत्पादन, मूल्य तय करने आदि पर इतने नियंत्रण लगा दिए कि उद्योग शुरू करने से पहले ही उद्योगपति निराश हो जाए। इस तरह की नीति, बदन पर होने वाली खुजली की तरह सिद्ध हुई जो एक अंग पर अगर शांत हो जाती तो दूसरे अंग पर होने लगती है। मतलब यह कि आज अगर किसी श्रेणी को छूट मिल रही है तो दूसरा उद्योग भी उसकी मांग करने लगता है। होना यह चाहिए था कि सभी उद्योगों के लिए समान नियम, सुविधाएं और आसान प्रक्रिया बनतीं, जिससे सभी का ध्यान स्वतंत्र होकर केवल उत्पादन बढ़ाने पर होता न कि भेदभाव होने से छूट हासिल करने की प्रतियोगिता करना। 

दिशाहीन होने के परिणाम : औद्योगिक विकास को सही दिशा न मिलने का परिणाम नौकरियां पैदा करने में असफलता, विकास दर में गिरावट, प्रति व्यक्ति आय में कमी, देसी और विदेशी निवेश में रुकावट और बेरोजगारी बढ़ते जाने के रूप में निकला, जिसका भविष्य में भारी मुसीबत का कारण बनना तय है, यदि समय रहते ठोस कदम न उठाए गए। यहां यह भी

उल्लेखनीय है कि रिसर्च और जमीनी हकीकत को दरकिनार कर ट्रेनिंग और सुविधाएं तैयार किए बिना स्किल इंडिया, मेक इन इंडिया, लोकल से ग्लोबल जैसी घोषणाएं कर दी गईं, जो केवल कागजी बन कर रह गई हैं। एक अनुमान के अनुसार अगले दस साल में यदि आॢथक विकास की दर 6 प्रतिशत रहती है तो कई 17.5 करोड़ लोग रोजगार मांगने वालों की कतार में लगे होंगे जबकि केवल 12.5 करोड़ को ही रोजगार मिल सकेगा और बाकी निक मे साबित होने से या तो भूख और गरीबी में पिसेंगे या आपराधिक तथा गैर कानूनी कामों में शामिल हो जाएंगे। 

उद्योग प्रधान बनने का संकल्प : यदि वक्त रहते औद्योगिक उत्पादन को बढ़ावा देने वाली नीतियां लागू नहीं की गईं तो स्थिति बहुत खराब हो जाने में कोई शंका नहीं। देश को उद्योग प्रधान बनाने के लिए नियमों में आमूल-चूल परिवर्तन, विनिवेश में तेजी, उद्योग लगाने वालों को बंधनों से मुक्त कर अपना निर्णय स्वयं लेने की छूट देनी होगी, विशेषकर उन उद्योगों में, जिनमें कामगार, श्रमिक, मजदूर और स्किल्ड लोग चाहिएं। ऐसे उद्योग जिनमें बहुत अधिक पूंजी लगती है, उन्हें छोड़कर मैन्युफैक्चरिंग और सॢवस सैक्टर को युवा, साहसी और कुछ नया कर दिखाने की चाहत रखने वाले उद्यमियों तथा अनुभवी उद्योगपतियों के हवाले करना होगा। उनके लिए पूंजी उपलब्ध करने के साथ-साथ मूलभूत सुविधाओं का पूरे देश में जाल बिछाना होगा। 

इस बात को स्वीकार करना होगा कि कृषि से अधिक उद्योगों में आॢथक विकास करने की क्षमता और संभावना है। भावुकता और राजनीतिक फायदों को ताक पर रखकर वास्तविकता का सामना करने से ही देश विकसित देशों की पंक्ति में स्थान सुनिश्चित कर सकता है। यह बात जितनी जल्दी समझ ली जाए, उतना ही देशवासियों के लिए बेहतर होगा।-पूरन चंद सरीन
 

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