Edited By ,Updated: 19 Jan, 2024 06:56 AM
श्री वाल्मीकि रामायण का सबसे पहला श्लोक है ‘श्रीराम शरणम् समस्तजगतां, राम विना का गति’, यानी श्रीरामचंद्रजी समस्त संसार को शरण देने वाले हैं, श्रीराम के बिना दूसरी कौन-सी गति है। सनातन संस्कृति में राम के प्रति समर्पण का यह भाव उसकी सांस्कृतिक,...
श्री वाल्मीकि रामायण का सबसे पहला श्लोक है ‘श्रीराम शरणम् समस्तजगतां, राम विना का गति’, यानी श्रीरामचंद्रजी समस्त संसार को शरण देने वाले हैं, श्रीराम के बिना दूसरी कौन-सी गति है। सनातन संस्कृति में राम के प्रति समर्पण का यह भाव उसकी सांस्कृतिक, सामाजिक और आध्यात्मिक चेतना में हजारों सालों से रचा-बसा है। राम और कृष्ण त्याग, मर्यादा और निष्काम-कर्म के उन 3 आदर्शों के स्रोत हैं जिनसे भारतीय सभ्यता, संस्कृति और राजधर्म प्रभावित होते आए हैं।
बाल गंगाधर तिलक, जो गांधी जी से पहले स्वतंत्रता आंदोलन के सर्वमान्य नेता थे, ने अंग्रेजों द्वारा बर्मा के मांडले जेल में कैद किए जाने के दौरान श्रीमद् भागवदगीता पर अपनी प्रसिद्ध टिप्पणी ‘गीता रहस्य’ लिखी। गांधी जी जिस आदर्श राज्य की बात करते थे वह भी ‘रामराज्य’ ही था। इतना ही नहीं, आजादी के बाद जब भारत का संविधान लिखा गया तो उसके डिजाइन और सजावट में भारतीय सनातनी परंपरा के जिन सर्वमान्य प्रतीकों का प्रयोग किया गया उनमें भी राम, सीता और लक्ष्मण शामिल थे। फिर भारत की सनातनी परंपरा और चेतना से मर्यादा पुरुषोत्तम प्रभु श्रीराम और लीला पुरुष श्रीकृष्ण को अलग कैसे किया जा सकता है?
5 सदियों के लंबे इंतजार के बाद अयोध्या में भव्य राम मंदिर अब तैयार हो चला है। यह मंदिर धैर्य, त्याग और सहनशीलता की उसी सनातनी परंपरा का प्रतीक है जो प्रभु श्रीराम हमें सिखा गए हैं। नकली वामपंथी धर्मनिरपेक्षता ने दशकों तक इस देश में जो प्रपंच रचे उसने पीढिय़ों तक भारत की बहुसंख्यक आस्थावान प्रजा को इस भ्रम में रखा कि धार्मिक आस्था और राजधर्म परस्पर विरोधी हैं। सैकुलर और वामपंथी सोच रखने वाले न तो कभी धर्म की भारतीय परंपरा और उच्च आदर्शों को ही ठीक से समझ सके और न ही राजधर्म को। वे धर्मनिरपेक्षता के नाम पर सनातनियों में उनके धर्म और आस्था के प्रति संदेह और अविश्वास पैदा कर अपना राजनीतिक एजैंडा चलाते रहे। लेकिन सनातनी भारतीय संस्कृति के अनुसार राज्य या शासक के लिए धर्मनिरपेक्ष नहीं बल्कि धर्मसापेक्ष होना जरूरी है क्योंकि धर्म ही दया, करुणा, और कत्र्तव्य बोध सिखाता है।
वामपंथ प्रेरित पाखंडी धर्मनिरपेक्षता लोगों को उनके जीवन के उच्च आदर्शों और सांस्कृतिक मूल्यों से दूर करने का प्रयास करती रही। ऐसे परंपराहीन समाज की कल्पना भी कैसे संभव है जिसका न कोई नैतिक मूल्य हो और न ही उन्हें स्थापित करने के लिए मर्यादा पुरुषोत्तम जैसा कोई आदर्श या कृष्ण जैसा दार्शनिक मार्गदर्शक? राम और कृष्ण ने इस देश को धर्म सापेक्ष होना सिखाया है। धर्म का नाश होने पर उसको फिर से स्थापित करने के लिए महापुरुषों का अवतरित होना हमारी आस्था का मूल आधार है। यही आस्था हमें धैर्य और सहनशीलता सिखाती है। अब प्रत्येक भारतीय को इस भव्य राम मंदिर को उसी धर्मसापेक्षता के प्रतीक के रूप में देखने की जरूरत है जिसके आदर्श राम और कृष्ण हैं। धर्म राज-काज का मूल आधार है। उसके प्रति ‘निरपेक्ष’ होना अधर्म और अनैतिक है। राम मंदिर निर्माण भारत के करोड़ों सनातनियों के लिए किसी शानदार जीत से ज्यादा 21वीं सदी में भारतीय सभ्यता के पुनर्जागरण की शुरूआत है।
इसमें न कोई प्रतिशोध है और न ही गुमान। अगर कुछ है तो सिर्फ अपनी विरासत को ठीक से समझने, सहेजने और उसकी क्षमताओं को दुनिया के सामने रखने का एक संकल्प। आस्थावान होते हुए भी हम कैसे आधुनिक और वैज्ञानिक सोच को साथ लेकर चल सकते हैं, उसी का एक मॉडल भारत आज दुनिया के सामने रखने के प्रयास में जुटा है। राम मंदिर उसका सबसे सफल प्रतीक है। 1963 में भाखड़ा बांध का उद्घाटन करते हुए नेहरूजी ने उसे देश का आधुनिक मंदिर बताया था। आजादी के अमृतकाल में निर्मित यह मंदिर न सिर्फ भारत की आस्था और सांस्कृतिक चेतना को पुनर्जीवित कर रहा है बल्कि उसके माध्यम से देश में विकसित तकनीक, इंजीनियरिंग, कला और अन्य दक्षताओं को भी दुनिया को गर्व से दिखा रहा है। यही भारत की ‘धर्मसापेक्षता’ है।-मिहिर भोले