Edited By ,Updated: 20 Nov, 2023 05:09 AM

फ्रीबीज यानी मुफ्तखोरी की घोषणाएं इस समय विवाद और बहस का विषय हैं तो यह बिल्कुल स्वाभाविक है। 5 राज्यों के विधानसभा चुनावों में राजनीतिक दलों के बीच मतदाताओं को मुफ्त प्रदान करने की जिस तरह होड़ बढ़ी है वह चिंताजनक है।
फ्रीबीज यानी मुफ्तखोरी की घोषणाएं इस समय विवाद और बहस का विषय हैं तो यह बिल्कुल स्वाभाविक है। 5 राज्यों के विधानसभा चुनावों में राजनीतिक दलों के बीच मतदाताओं को मुफ्त प्रदान करने की जिस तरह होड़ बढ़ी है वह चिंताजनक है। उच्चतम न्यायालय ने राजनीतिक दलों की इस प्रवृत्ति पर गहरी चिंता प्रकट की। स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने कई भाषणों में इसे देश के लिए चिंताजनक बताया। उन्होंने जनता को आगाह किया था कि ऐसे लोग आपको कुछ भी मुफ्त देने का वादा कर सकते हैं लेकिन इसका असर देश के विकास पर पड़ेगा। बावजूद आप देखेंगे कि हर पार्टी अपने संकल्प पत्र, गारंटी पत्र या घोषणा पत्र में मुफ्त वस्तुएं, सेवाएं या नकदी वादों की संख्या बढ़ा रही थी।
वैसे तो इसकी शुरूआत 80 और 90 के दशक में दक्षिण से हुई लेकिन 21वीं सदी के दूसरे दशक में अरविंद केजरीवाल और आम आदमी पार्टी इसे दोबारा वापस लाए। 5 राज्यों मध्यप्रदेश, राजस्थान ,छत्तीसगढ़, तेलंगाना और मिजोरम के चुनाव में दलों के घोषणा पत्रों में मुफ्त सेवाओं, वस्तुओं और नकदी के वायदों के विवरणों को लिखने में एक छोटी पुस्तक तैयार हो जाएगी। ऐसा नहीं है कि राजनीतिक दलों को इसके नकारात्मक परिणामों का आभास नहीं है। बावजूद वे ऐसा कर रहे हैं तो इसे एक ट्रैजेडी ही कहा जाएगा।
मुफ्त आप कुछ भी दीजिए, जाएगा तो राज्य के कोषागार से ही। हमारे देश के ज्यादातर राज्य वित्तीय दृष्टि से काफी कमजोर पायदानों पर खड़े हैं और लगातार कर्ज लेकर अपने खर्च की पूर्ति कर रहे हैं। यानी अनेक राज्यों का राजस्व आय स्रोत इतना नहीं है कि वह अपने वर्तमान व्यय को पूरा कर सकें। कई राज्यों के व्यय के विवरण का विश्लेषण बताता है कि मुफ्त चुनावी वादों को पूरा करने या भविष्य के चुनाव को जीतने की दृष्टि से मुफ्त प्रदानगी वाले कदमों की इसमें बड़ी भूमिका है। देश की राजधानी दिल्ली में कोरोना काल में समय पर कर्मचारियों का वेतन देने तक की समस्या खड़ी हो गई थी। दिल्ली ऐसा अकेला राज्य नहीं था। जब राज्य अकारण नकदी देने लगे, मुफ्त सेवाएं वह वस्तुएं तक पहुंचाए तो फिर लोगों में परिश्रम से जीवन जीने और प्रगति करने का भाव कमजोर होता है। कोई भी देश तभी ऊंचाइयां छू सकता है जब वहां के लोग परिश्रम की पराकाष्ठा करें।
विश्व में जिन देशों को हम शीर्ष पर देखते हैं वहां के लोगों ने अपने परिश्रम, पुरुषार्थ और पराक्रम से इसे प्राप्त किया है। मुफ्तखोर समाज आलसी, कामचोर और भ्रष्ट होता है। अगर राजनीतिक दलों में मुफ्त देने की प्रतिस्पर्धा शुरू हो जाए तो उस देश और समाज का क्या होगा इसकी आसानी से कल्पना की जा सकती है। एक ओर आपकी अर्थव्यवस्था कमजोर होगी, खजाने खाली होंगे और दूसरी ओर मेहनत की मानसिकता नहीं रहेगी तो फिर होगा क्या? क्या इस कल्पना मात्र से आपके अंदर डर पैदा नहीं होता?
आप किसी बस्ती में चले जाइए कुछ लोग ऐसा कहते मिल जाएंगे कि जो पार्टी हमको कुछ देगी उसी को वोट देंगे। मैं ऐसी कई बस्तियों में गया जहां महिलाओं ने वोट के बारे में पूछने पर सवाल ही किया कि आप लेकर क्या आए हो? यानी उनके लिए राज्य और देश के समक्ष उत्पन्न चुनौतियां, समस्याएं और मुद्दों के कोई मायने नहीं। फिर तो जो मुफ्त देगा उसको ये वोट दे देंगे। कोई भी शासन प्रणाली वहां के लोगों के व्यवहार पर ही सफल या असफल हो सकती है। कोई भी प्रवृत्ति अपने आप पैदा नहीं होती। संसदीय लोकतांत्रिक प्रणाली में चुनाव भी एक अङ्क्षहसक युद्ध हो गया है। राजनीतिक दलों का सत्ता में आने की आकांक्षा पालने में कोई समस्या नहीं है। कोई भी दल अपने कार्यक्रम या विचारधारा सत्ता में आने के बाद ही लागू कर सकता है।
सत्ता बड़े लक्ष्य पाने का साधन बनने की बजाय सत्ता के ही साधन और लक्ष्य बन जाने से राजनीति का यह खतरनाक चरित्र पैदा होता है। फिर एकमात्र लक्ष्य हर हाल में अधिक से अधिक वोट पाना रह गया जिसके लिए अनेक नेताओं और दलों ने वह सारे रास्ते अपनाए जो स्वस्थ समाज और लोकतंत्र में अस्वीकार्य थे। इसी में बाहुबली और धनबलियों का राजनीति पर वर्चस्व हुआ तथा राजनीति का अपराधीकरण लंबे समय तक हमारी सत्ता का चरित्र रहा।
थोड़ी गहराई से विचार करें तो मुफ्त सेवाएं, वस्तुएं और नकदी देने का चरित्र भी इसी धारा का अंग है। प्रकारांतर से देखा जाए तो यह सत्ता की ताकत के दुरुपयोग को वैध बनाने का उपक्रम है। पश्चिमी देशों से आम जनता को अधिकार प्रदान करने की एक प्रवृत्ति चली। यानी यह अधिकार आपका है नहीं, हम दे रहे हैं। इसी में से खाद्य सुरक्षा से लेकर रोजगार गारंटी जैसे कार्यक्रम निकले हैं। पहली दृष्टि में लगता है कि ये सारे जनकल्याण के कार्यक्रम हैं किंतु धरातल पर इनका साकार स्वरूप देखें तो तस्वीर अलग है। ये सब मुफ्तखोरी के अंग बन गए हैं।
गांधी जी कहते थे कि मैं अपने भारत में मुफ्तखोरी की किसी शर्त पर अनुमति नहीं दे सकता। वर्तमान राजनीति की प्रवृत्ति भी गांधी जी की सोच के विपरीत है। यानी हम राज्य के खजाने को मुफ्तखोरी बढ़ाने की प्रवृत्ति पर खर्च करेंगे। संसदीय लोकतंत्र में जनमत निर्माण के पीछे राजनीतिक दलों के साथ पत्रकारिता ,सामाजिक-सांस्कृतिक धार्मिक समूहों की प्रमुख भूमिका होती है। इसलिए ऐसे सभी तत्वों को सामने आकर इसका प्रतिकार करते हुए आम जनता को सचेत करना चाहिए ताकि वह मुफ्त कौड़ी के लालच में वोट देने की बजाय योग्यतम का चयन करें।-अवधेश कुमार