‘इतिहास को इतिहास’ की तरह ही देखा जाए

Edited By ,Updated: 18 Feb, 2024 05:19 AM

history should be seen as history

हमारे प्रिय इतिहासकार इरफान हबीब पक्के माक्र्सवादी हैं, लेकिन ऐसा लगता है कि उनके भीतर भी धर्म (सम्प्रदाय के अर्थ में) का एक चेहरा है, जिसकी ओर उनकी निगाहें रह-रहकर झुकती रहती हैं।

हमारे प्रिय इतिहासकार इरफान हबीब पक्के माक्र्सवादी हैं, लेकिन ऐसा लगता है कि उनके भीतर भी धर्म (सम्प्रदाय के अर्थ में) का एक चेहरा है, जिसकी ओर उनकी निगाहें रह-रहकर झुकती रहती हैं। वैसे, माक्र्सवाद का अब तक का इतिहास देखें तो यह भी किसी धर्म से कम नहीं है और इसमें भी अफीम वाले भरपूर गुण विद्यमान हैं।  खैर, इरफान साहब के साथ बस एक बार का अपना परोक्ष संवाद रहा है। परोक्ष इसलिए कि आमना-सामना करने की जरूरत नहीं थी। एक चैनल पर गांधी की विचारधारा पर मुझे और उन्हें एक साथ बात रखनी थी। उन्होंने अपनी बात रखी और मैंने अपनी। उनके सामने मेरे जैसे लोग तो बच्चे से भी कमतर साबित होंगे, इसलिए बहस-मुबाहिसा करने की जरूरत नहीं थी। 

मथुरा और काशी पर इरफान साहब ने बयान दिया है। महत्वपूर्ण है कि उन्होंने इतिहासकार का चोला पहने एजैंडाधारियों या ओवैसी जैसों की तरह औरंगजेब को साफ-पाक साबित करने की कोई कोशिश नहीं की। उन्होंने साफ माना कि औरंगजेब ने काशी और मथुरा में हिन्दू मंदिरों को ध्वस्त किया था और ऐसा कर उसने गलत किया था। उन्होंने यहां तक कहा कि यह साबित करने के लिए किसी सर्वेक्षण या अदालत के आदेश की आवश्यकता नहीं है कि वाराणसी और मथुरा में मंदिर तोड़े गए थे, क्योंकि इतिहास की किताबों में पहले ही इसका उल्लेख है। 


मजहबी या गैर-मजहबी विचारधाराओं के परे जाकर इतिहास को इतिहास की तरह ही देखा जाए तो इरफान साहब के यहां तक के बयान में कोई समस्या नहीं है। समस्या इसके आगे है। आगे उन्होंने कहा कि औरंगजेब ने जो किया, उसे 300 साल बाद दुरुस्त करने का औचित्य नहीं है। इरफान साहब के हिसाब से आखिर 300 साल से वहां पर मस्जिद बनी हुई है। औरंगजेब ने भले ही वहां पर मंदिर की जगह मस्जिद बनवाई हो लेकिन अब उसे तोड़कर वापस से मंदिर बनाना उचित नहीं है, वह भी तब, जबकि देश में संविधान लागू है। वह कहते हैं कि जो काम औरंगजेब ने किया, वही काम अब आप करने जा रहे हैं, ऐसे में आप में और औरंगजेब में क्या अन्तर रह गया?

इस मामले में इरफान साहब से मैं सहमत नहीं हूं। आखिर गलती दुरुस्त हो सकती हो तो परेशानी क्या? अगर मंदिर को तोड़कर बनाई गई मस्जिद केवल इसलिए बनी रहने दी जाए कि वह 300 साल पहले से बनी हुई है, तो सवाल है कि सदियों तक मस्जिद की बुनियाद में मौजूद रही मन्दिर की पृष्ठभूमि पर क्या विस्मृति की धूल चढ़ा दी जाए? क्या सदियों पहले से मस्जिद की जगह मौजूद आस्था के मन्दिर की तुलना में एक कौम के स्वाभिमान को तोडऩे के लिए नफरत के भाव से बनाए गए इस मस्जिद के ढांचे को बड़ा मान लिया जाए? अगर सचमुच कहीं कोई गलती है, तो उसे दुरुस्त करने का औचित्य भी आखिर क्यों नहीं? 

अतीत की इतनी बड़ी घटना को ‘जो हुआ सो हुआ’ कहकर भुला देना क्या इतना आसान है? मुगलों द्वारा मंदिरों को तोड़कर मस्जिदें बना देना, एक इमारत को दूसरी इमारत में बदल देना भर नहीं था। यह दूसरी कौम की सम्पत्ति पर कब्जा कर लेना या उसे  हड़प लेना तो था ही, बुतशिकन के अहंकारी भाव से दूसरी कौम के सांस्कृतिक और धार्मिक चिह्नों को मिटा देने का अभियान भी था। हो सकता है, कुछ लोगों को ‘रेसकोर्स रोड’ को ‘लोककल्याण मार्ग’ बना देना, ‘किंग्सवे’ को ‘राजपथ’ के अहंकार से नीचे उतार कर ‘कत्र्तव्य पथ’ में बदल देना, ‘इंडियन पीनल कोड’ को ‘भारतीय न्याय संहिता’ बना देना, फैजाबाद को ‘अयोध्या’ का मूल नाम दे देना, ‘मुगल गार्डन’ को ‘अमृत उद्यान’ में रूपायित करना, या कि इंडिया गेट के सॢकल पर किंग जार्ज की जगह नेताजी सुभाषचन्द्र बोस की प्रतिमा लगा देना अखरे या गलत और अनौचित्यपूर्ण लगे, पर मैं समझता हूं कि जो कौम विरासत के गौरव पर ध्यान नहीं दे सकती, वह अपना आत्मसम्मान और स्वाभिमान भी नहीं बचा सकती। 

यदि आज काशी या मथुरा में दोबारा मंदिर निर्माण होता है तो इस पर यह कहना सरासर गलत है कि ‘जो काम औरंगजेेब ने किया वही काम अब आप करने जा रहे हैं, ऐसे में आप में और औरंगजेब में क्या अंतर रह गया?’ अगर यह समझाना पड़े कि औरंगजेब के काम में और अब के काम में बुनियादी अंतर है, तो यह समझदारों की समझदारी पर तरस खाने वाली बात होगी। ऐसा नहीं था कि हिन्दुओं ने मथुरा या काशी में किसी मस्जिद को तोड़कर मंदिर बना लिया हो और तब औरंगजेब ने मंदिर को तोड़कर दोबारा मस्जिद बनाई हो। 

सच्चाई यह है कि मुगलों ने भारतीय समाज के गौरवबोध और आत्मसम्मान के भाव को खत्म करने की मंशा से काम किया था। ऐसा भी नहीं है कि वे एकतरफा रूप से गलत ही थे। अपने हिसाब से अपनी नजर में वे ठीक ही कर रहे थे। वे इस्लाम की तत्कालीन व्याख्याओं के हिसाब से जन्नत बनाने और लाने का काम कर रहे थे। अंग्रेजों से पहले अंग्रेजों की तरह वे भी भारत को सभ्यता का पाठ पढ़ा रहे थे। असल में बात यह भी है कि जिन कौमों की अपनी कोई समृद्ध विरासत नहीं होती, वे कौमें दूसरी कौमों की गौरवपूर्ण विरासत का महत्व भी ठीक से नहीं समझ पातीं और अक्सर नफरत के वशीभूत होकर उन्हें नष्ट करने का काम करने लगती हैं। 

अयोध्या में आज अगर राम का मंदिर बना है तो यह किसी तरह की नफरत के वशीभूत नहीं है, बल्कि एक कौम की आस्था और संस्कृति के प्रतीक को पुनर्जीवन देने जैसा है। यह कितना जरूरी था, इसका अहसास इरफान हबीब की माक्र्सवादी नास्तिक भावनाओं के सहारे सम्भव नहीं है। यह भी याद रखना चाहिए कि मुसलमानों की एक बड़ी संख्या ने इस विरासत का महत्व समझा है और राम मन्दिर को भरपूर समर्थन दिया है; बल्कि, दर्शनार्थी बनकर वे राम मन्दिर तक गए हैं और जा रहे हैं। 


बहस लम्बी हो सकती है, पर मैं समझता हूं कि यह देश बहुभाषी और अनेकानेक मतावलम्बियों वाला है। इस्लाम के अनुयायियों के लिए अपना बड़ा दिल दिखाने का वक्त है। अंतत: वे भी यहीं की मिट्टी में जन्मे हैं और राम-कृष्ण उनके भी पूर्वज हैं। मान्यताएं भले बदल ली हों, पर पूर्वजों की विरासत और गौरवबोध सांझा हैं। इतिहास पर कितनी भी लीपापोती की जाए, पर मंदिर विरोधियों को भी पता है कि मुगलों ने इस देश के एक-दो नहीं हजारों मंदिरों को तोड़ा। 

बुतशिकन का यह मनोभाव अफगानिस्तान जैसे देश में आज भी देखा जा सकता है, जहां आए दिन अब तक बौद्धों-हिन्दुओं के बचे हुए चिह्नों को जमींदोज किया जाता रहा है। थोड़ी देर के लिए कल्पना कीजिए कि यदि इस देश में हिन्दू अल्पसंख्यक होते और मुसलमान बहुसंख्यक और आस्था के ये केन्द्र मुसलमानों के होते, तो क्या होता? क्या वही न होता जो ओवैसी का भाई अपने भाषणों में बोलता रहा है? संसार के सारे मुस्लिम राष्ट्रों का अतीत और वर्तमान देखिए और सोचिए कि बहुसंख्यक स्थिति में क्या मुसलमान समुदाय अपने आस्था के केन्द्रों के लिए इस तरह से अदालती लड़ाई लडऩे की जहमत उठाता? गंगा-जमुनी तहजीब के हिमायती और मजहब से पहले मुल्क को आगे रखने के सदाशयी कुछ मुसलमान भले ही ऐसा करने की बात करते, पर सबसे पहले वे ही जिबह किए जाते। -संत समीर

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