लोकतंत्र पर बोझ हैं ‘निष्क्रिय सांसद’

Edited By ,Updated: 17 Feb, 2024 04:46 AM

inactive mps  are a burden on democracy

नेता अक्सर बोलने के लिए ही जाने जाते हैं। कुछ तो अपने बड़बोलेपन के लिए भी चर्चित रहते हैं। ऐसे में आपको यह जान कर हैरत होगी कि 17वीं लोकसभा में 9 माननीय सांसद ऐसे रहे, जिनका मौन पांच साल के कार्यकाल में भी नहीं टूट पाया।

नेता अक्सर बोलने के लिए ही जाने जाते हैं। कुछ तो अपने बड़बोलेपन के लिए भी चर्चित रहते हैं। ऐसे में आपको यह जान कर हैरत होगी कि 17वीं लोकसभा में 9 माननीय सांसद ऐसे रहे, जिनका मौन पांच साल के कार्यकाल में भी नहीं टूट पाया। इनमें फिल्मी परदे पर दहाडऩे वाले वे हीरो भी शामिल हैं, जिनके डायलॉग सालों बाद भी मौके-बेमौके दोहराए जाते रहते हैं। 18वीं लोकसभा के चुनाव अप्रैल-मई में संभावित हैं, पर 17वीं लोकसभा का अंतिम सत्र समाप्त हो चुका है।

5 साल का कार्यकाल समाप्त होने पर लोकसभा और उसके माननीय सदस्यों के कामकाज की बाबत उपलब्ध आंकड़ों से ही यह खुलासा हुआ है कि 9 सांसदों ने सदन में मौन तोड़े बिना ही अपना कार्यकाल पूरा कर लिया। जाहिर है, उनके इस आचरण से उन्हें संसद के लिए चुनने वाले लाखों मतदाता खुद को छला हुआ महसूस कर रहे होंगे, जिन्होंने उम्मीद की थी कि उनके सांसद न सिर्फ निर्वाचन क्षेत्र से जुड़े सवाल उठाएंगे, बल्कि देश और समाज की दृष्टि से महत्वपूर्ण संसदीय चर्चाओं में भी भाग लेंगे।

ध्यान रहे कि सांसदों को कार्यकाल के दौरान भारी-भरकम वेतन-भत्तों के अलावा भी तमाम तरह की सुविधाएं दिए जाने पर ईमानदार करदाताओं की मेहनत की कमाई में से ही मोटी रकम खर्च होती है। यदि वे 5 साल तक मौन और निष्क्रिय ही रहे, तब तो सब कुछ व्यर्थ ही गया। बेशक ये ‘मौनी’ सांसद किसी दल विशेष के नहीं हैं, पर यह आंकड़ा चौंकाने वाला है कि इनमें सबसे ज्यादा 6 उस भाजपा के हैं, जिसके नेता भाषण कला में माहिर माने जाते हैं। दूसरे नंबर पर तेजतर्रार नेत्री एवं पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की पार्टी तृणमूल कांग्रेस है, जिसके 2 सांसदों ने अपने कार्यकाल के दौरान एक भी सवाल नहीं पूछा।

9वें सांसद मायावती की बसपा के अतुल कुमार सिंह हैं, जो उत्तर प्रदेश के घोसी निर्वाचन क्षेत्र से निर्वाचित हुए, पर एक मामले में सजा काटते हुए उनका ज्यादातर समय जेल में ही गुजरा। 
पांच साल के कार्यकाल में एक भी सवाल न पूछने वाले भाजपा सांसदों में सबसे दिलचस्प मामला फिल्म अभिनेता से राजनेता बने सनी देओल का है। वह पंजाब के गुरदासपुर से सांसद हैं, जहां से कभी एक और फिल्मी हीरो विनोद खन्ना सांसद हुआ करते थे। विनोद खन्ना केंद्र में मंत्री भी रहे।

दिलचस्प तथ्य यह भी है कि सनी देओल के अभिनेता पिता धर्मेंद्र भी भाजपा से सांसद रह चुके हैं। धर्मेंद्र 2004 से 2009 तक 16वीं लोकसभा में राजस्थान के बीकानेर से भाजपा सांसद थे। वैसे धर्मेंद्र की दूसरी पत्नी फिल्म अभिनेत्री हेमा मालिनी अभी भी उत्तर प्रदेश के मथुरा से भाजपा सांसद हैं। ध्यान रहे कि अपने निर्वाचन क्षेत्र गुरदासपुर में भी सनी देओल के लापता होने जैसे पोस्टर लगते रहे, यानी वह न तो संसद में सक्रिय नजर आए और न ही अपने मतदाताओं के बीच। अपने दौर के सर्वाधिक लोकप्रिय अभिनेताओं में शुमार धर्मेंद्र जब बीकानेर से सांसद थे, तब निर्वाचन क्षेत्र से उनके गायब रहने की चर्चाएं भी आम रहीं।

सनी देओल की फिल्म ‘दामिनी’ का एक अदालती दृश्य और उसमें यह डायलॉग बड़ा चॢचत हुआ था कि ‘इंसाफ नहीं मिलता, मिलती है तो बस तारीख पर तारीख’। गुरदासपुर के मतदाताओं की बेबसी देखिए कि उन्हें तो वह तारीख भी नसीब नहीं हुई, जब वे अपने सांसद को लोकसभा में बोलते हुए देख-सुन पाते। पूरा कार्यकाल मौन में गुजार देने वाले भाजपा के 5 अन्य सांसद रहे- प्रधान बरुआ, बी.एन. बाचे गौड़ा, अनंत कुमार हेगड़े, रमेश चंदप्पा जिगाजिनागी और श्रीनिवास प्रसाद। बरुआ असम के लखीमपुर से सांसद हैं, जबकि शेष चारों कर्नाटक से। बीजापुर के सांसद जिगाजिनागी के बारे में बताया जाता है कि वह खराब सेहत के चलते ज्यादातर समय सदन की कार्रवाई में भाग नहीं ले पाए। 

किसी भी अस्वस्थ व्यक्ति के प्रति संवेदनशीलता मानवीयता का तकाजा है, पर क्या ऐसी निष्क्रियता के बावजूद उनका सांसद बने रहना अपने मतदाताओं के प्रति जिम्मेदारी-जवाबदेही का प्रमाण है? ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस के जो दो सांसद पूरे कार्यकाल मौन रहे, उनमें से भी एक पुराने फिल्म अभिनेता हैं शत्रुघ्न सिन्हा, जो अपनी डायलॉग डिलीवरी के लिए ज्यादा जाने जाते रहे। एक डायलॉग तो उनकी जैसे पहचान ही बन गया- ‘खामोश’! विडंबना देखिए कि भाजपा से राजनीति शुरू कर कांग्रेस के रास्ते तृणमूल कांग्रेस में पहुंचे शत्रुघ्न सिन्हा लोकसभा में अपने कार्यकाल के दौरान खामोश ही बने रहे।

9वें ‘मौनी’ सांसद रहे दिव्येंदु अधिकारी, जो पश्चिम बंगाल के तमलुक से चुने गए। वैसे यह जानना भी दिलचस्प होगा कि 17वीं लोकसभा में भाजपा के दो सांसद ऐसे भी रहे, जो एक दिन भी सदन की कार्रवाई से अनुपस्थित नहीं रहे। ये हैं- भगीरथ चौधरी और मोहन मांडवी। लोकसभा के कुल 543 सांसदों में से 141 सांसद ऐसे रहे, जिनकी सदन में उपस्थिति 90 प्रतिशत रही, पर 29 सांसद ऐसे भी रहे, जिनकी उपस्थिति 50 प्रतिशत से कम थी।

50 प्रतिशत से कम उपस्थिति वाले सांसदों में कांग्रेस संसदीय दल की नेता सोनिया गांधी भी शामिल हैं, जिनकी सेहत अच्छी नहीं चल रही। ऐसे अन्य सांसदों में चॢचत नाम ज्यादा हैं। मसलन, हेमा मालिनी, सनी देओल, एक अन्य फिल्म अभिनेत्री किरण खेर और पंजाबी गायक हंसराज हंस। दिलचस्प यह है कि ये चारों भाजपा के सांसद हैं। सनी देओल तो मात्र 17 प्रतिशत उपस्थिति के साथ लोकसभा में मानो ‘गैस्ट एपीयरैंस’ देते नजर आए। वैसे सनी देओल और किरण खेर संसद के बाहर अपनी फिल्मी दुनिया और उससे जुड़े मनोरंजन के अन्य क्षेत्रों में खूब सक्रिय नजर आए। 

यह तो पता नहीं कि मतदाता किस आधार पर वोट डालते हैं, पर उन्हें यह अवश्य जानना चाहिए कि जिन्हें वे संसद में चुन कर भेजते हैं, वे दरअसल करते क्या हैं। जाहिर है, राजनीतिक दल ऐसे सैलिब्रिटीज को उनकी लोकप्रियता भुनाने के लिए ही अपने निष्ठावान नेताओं को नजरअंदाज कर टिकट देते हैं। यह भी, कि ये सैलिब्रिटीज भी अपनी लोकप्रियता भुना कर सत्ता गलियारों में प्रवेश को लालायित रहते हैं, पर इससे राजनीति और लोकतंत्र को क्या हासिल होता है, इस पर कम-से-कम मतदाताओं को अवश्य ङ्क्षचतन-मनन करना चाहिए। संसदीय लोकतंत्र को इस तरह मखौल बनाना और बनते देखना, दोनों ही दुर्भाग्यपूर्ण हैं। -राज कुमार सिंह

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