‘इसे चुनावी और सियासी बजट’ भी कहा जा सकता है

Edited By ,Updated: 08 Feb, 2021 03:28 AM

it can also be called  electoral and political budget

बजट केवल आमदन और खर्च का ही बही खाता नहीं होता, बल्कि राष्ट्र के उज्जवल भविष्य के निर्माण का प्रतीक होता है। इसमें सुधार के लिए सकारात्मक, सृजनात्मक और कारआमद कदम उठाने की आवश्यकता होती है। जिससे राष्ट्र की अर्थ व्यवस्था सुदृढ़ हो, लोगों को

बजट केवल आमदन और खर्च का ही बही खाता नहीं होता, बल्कि राष्ट्र के उज्जवल भविष्य के निर्माण का प्रतीक होता है। इसमें सुधार के लिए सकारात्मक, सृजनात्मक और कारआमद कदम उठाने की आवश्यकता होती है। जिससे राष्ट्र की अर्थ व्यवस्था सुदृढ़ हो, लोगों को दरपेश समस्याआें का समाधान हो। बेरोजगारी को दूर करने के लिए नए अवसरों को सुनियोजित और सुनिश्चित तरीके से तलाश किया जाए। 

सरकार में नीति-निर्माताआें और अर्थशास्त्रियों को एेसी अर्थव्यवस्था का प्रबंध करना चाहिए जिससे गरीब से गरीब नागरिक भी अपना गुजारा कर सकें न कि एेसी अर्थव्यवस्था की तामिर की जाए, जिससे अमीर अमीर होते जाएं और गरीब हर समय आर्थिक संकट के दौर में गुजरते रहें। भारत की वित्तमंत्री श्रीमती सीतारमण द्वारा पेश किए गए बजट के हर मुद्दे को विस्तारपूर्वक नजरसानी करने से ही किसी ठोस नतीजे पर पहुंचा जा सकता है। 

मोदी सरकार का कोरोना काल के बाद पहला बजट था। यह न तो लोग लुभावना है और न ही प्रोत्साहित जनक है, न ही इसमें मध्यम वर्ग के लोगों को कुछ ठोस सहूलियतें दी गई हैं और न ही गरीबी की दलदल में फंसे लोगों को बाहर निकालने के लिए कोई कदम उठाए गए हैं, बल्कि पब्लिक  सैक्टर यूनिट्स को बेचने की खुली वकालत की गई है। जिससे कार्पोरेट सैक्टर को और मालामाल होने का सुनहरी अवसर मिलेगा, जैसा कि कोरोनाकाल में कुछ बड़े घरानों को छोड़कर देश के लोगों का कारोबार न होने से आर्थिक हालत खस्ता हो गई। 

94 लाख लोग जिनके बैंकों में 2 से 5 लाख रुपए थे। इस गर्दिश के दौर में उनके बैंक खाते जीरो के करीब पहुंच गए हैं। सरकार ने उनकी किसी भी प्रकार से आर्थिक सहायता नहीं की, जबकि अमरीका, कनाडा और यूरोप के देशों ने कोरोना काल में अपने नागरिकों की खुलकर आर्थिक सहायता की, जिससे वह आर्थिक तंगी से बच गए। हकीकत में भारत की अर्थव्यवस्था कोरोना काल में ही नहीं बिगड़ी बल्कि सरकार की नीतियों के कारण 2016 में नोटबंदी के समय से ही अस्त-व्यस्त होनी शुरू हो गई थी। यह भारत की परम्परागत अर्थव्यवस्था को जोरदार धक्का था जिससे लाखों छोटे-छोटे कारखानेदार अपने काम-धंधों से हाथ धो बैठे और मजदूर बेकार हो गए, परन्तु सरकार भाषणों से ही हमदर्दी का इजहार करती रही। 

बजट में घाटे में इजाफे का असर हरेक क्षेत्र में देखने को मिल रहा है। ब्याज भुगतान के अलावा राजस्व नए वित्त वर्ष में संशोधित अनुमानों की अपेक्षा 8-6 प्रतिशत कम रहेगा। इसके साथ ही खाद्य सबसिडी, उर्वरक, ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना और एल.पी.जी. के लिए सबसिडी के आबंटन में 30 से 60 प्रतिशत कमी कर दी गई है। इससे जनसाधारण बोझ के नीचे दब जाएगा इस बजट से पहले कभी भी सबसिडी कम नहीं की गई। इसके साथ ही कृषि बुनियादी ढांचे के लिए उपकर भी देना पडेग़ा। उत्पादन में भारी कमी के कारण राजस्व में भारी गिरावट देखने को मिली है। इसके लिए भारत के लोग जिम्मेदार नहीं हैं बल्कि सरकार के नीति-निर्माताआें का दोष है। जिन्होंने देश की अर्थव्यवस्था का गंभीरता से विचार-विमर्श किए बिना अफरा-तफरी में फैसले किए। 

बजट वाले दिन सैंसेक्स में भारी उछाल देखने को मिला परन्तु इस बढ़त से आम लोगों का कोई लेना-देना नहीं है। केवल शेयर बाजार में काम करने वाले साहुकारों का ही धंधा है। इस पर सरकार को प्रसन्नता हो सकती है परन्तु जनसाधारण को इसका कोई लाभ नहीं है। सर्वप्रथम मध्यम वर्ग जिसमें कारखानेदार, अध्यापक, वकील, डाक्टर, इंजीनियर और छोटे दुकानदार आते हैं। उनको बजट में किसी भी तरह की राहत नहीं दी गई, हालांकि कोरोना काल में भी इन्हें सरकार की तरफ से कोई सहायता नहीं दी गई। वास्तव में पिछले 5 वर्षों से सरकार की नीतियों की वजह से लोगों की जेब से धन निकलकर सरकारी खजानों में जाता रहा है। अब खाली जेब वाले मकान खरीदेंगे कैसे? क्योंकि बढ़ते एन.पी.ए. के कारण बैंकों ने भी कर्ज देना बंद कर दिया है। अर्थव्यवस्था का नियम है कि जब लोगों के पास धन होगा वह बाजार से चीजें खरीदेंगे। उससे कारखानों में उत्पादन बढ़ेगा और मजदूरों को काम मिलेगा और सरकार की जी.एस.टी. में इजाफा होगा। 

इस तरह रियल-एस्टेट जिसमें करोड़ों मजदूरों को काम मिलता था, वह भी ठप्प होकर रह गई है। आटो सैक्टर में नई वाहन स्क्रैप पॉलिसी अपनाई गई है। 15 और 20 वर्ष पुरानी गाडिय़ों का चलन खत्म कर दिया जाएगा। उनके स्थान पर लोग नई गाडिय़ां खरीदेंगे जिससे सरकार के अनुमान के अनुसार भारी संख्या में लोगों को कारोबार मिलेगा। मंदी के कारण कारोबारी और लोग परेशानी के दौर से गुजर रहे हैं। इस समय एक अच्छी गाड़ी 8 से 12 लाख रुपए में उपलब्ध है। जिनको खरीदने के लिए एक करोड़ लोगों को धन का प्रबंध करना होगा। बजट में नए खरीददारों के लिए सरकार कितनी मदद करेगी, इस पर बिल्कुल चुप्पी साधे हुए है। बजट में सरकार 75 वर्ष उम्र दराज नागरिकों पर बहुत बड़ा अहसान करके अपनी पीठ थपथपा रही है, पैंशन धारकों को इंकम टैक्स में कोई राहत देने की बजाय केवल इंकम टैक्स रिटर्न भरने की छूट दी गई है। 

हकीकत में सदियों से लोग बच्चों को तो लॉलीपॉप से परचाते आए हैं परन्तु यह पहली सरकार है जिसने बुजुर्गों को भी लॉलीपॉप देकर उनसे भद्दा मजाक किया है। सरकार ने आत्मनिर्भर भारत निर्माण के लिए बाहर से आने वाली चीजों पर कस्टम व एक्साइज ड्यूटी बढ़ा दी है ताकि देश में इन्हीं चीजों का निर्माण किया जा सके, परन्तु यह तभी संभव है जब सरकार इन चीजों के निर्माताआें को आधुनिक तकनीक मुहैया करवाए। उनकी आवश्यकतानुसार कर्ज मुहैया का प्रबंध करे और अन्य सहूलियतें भी मुहैया करे कि इस प्रतिस्पर्धा के युग में कारखानेदार उभरकर विश्व उत्पादकों का मुकाबला कर सके। 

सरकार की विनिवेश की नीति राष्ट्रहित में नहीं है। सब कुछ प्राइवेट हाथों में दे देने से लोगों की परेशानियां बढ़ेंगी। सरकार को देश के आम लोगों के हितों की रक्षा करनी चाहिए। न कि कार्पोरेट सैक्टर को इतना प्रोत्साहित किया जाए कि राष्ट्र की पूंजी के मालिक ही वह बन जाए। इससे महंगाई आसमान को छुएगी और आम लोगों का जीना दुश्वार हो जाएगा। बजट में किसानों की समस्याआें को दूर करने के लिए कोई भी वायदा नहीं किया गया। केवल इतना कहा गया है कि किसानों को डेढ़ गुणा आमदन होगी। इसको कैसे व्यावहारिक रूप दिया जाएगा इसके लिए सरकार मौनी बाबा बनी हुई है।सरकार अन्नदाता को प्रोत्साहित करने की बजाय उन्हें चिता और निराशा की तरफ धकेल रही है, जो राष्ट्र हित में नहीं है। 

सरकार ने बजट को अपने चुनावी हित के लिए बुरी तरह दुरुपयोग किया है। इसे चुनावी और सियासी बजट भी कहा जा सकता है। क्योंकि जिन प्रदेशों में चार-पांच महीनों में चुनाव होने वाले हैं वहां पर बहुत सारी धनराशि खर्च करने की योजना बनाई है। जबकि दूसरे प्रदेशों को आॢथक सहायता से पूरी तरह महरूम कर दिया गया है। केवल बंगाल में 25 हजार करोड़ रुपए लाने का फैसला किया गया है, असम में 34 हजार करोड़, तमिलनाडु में 63 हजार करोड़, केरल में 65 हजार करोड़। जबकि पंजाब, हरियाणा, हिमाचल, उत्तराखंड, राजस्थान और कई प्रदेशों की आवश्यकताआें को अपने राजनीतिक हित साधने के लिए नजरअंदाज कर दिया गया है।-प्रो. दरबारी लाल पूर्व डिप्टी स्पीकर, पंजाब विधानसभा

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