आवश्यक है लोकतांत्रिक मूल्यों को सहेजना

Edited By ,Updated: 01 Oct, 2023 05:40 AM

it is necessary to preserve democratic values

वैश्विक स्तर पर स्थापित विभिन्न राजनीतिक व्यवस्थाओं में लोकतांत्रिक व्यवस्था सर्वोत्तम मानी गई है। जनहितैषी मूल्यों में विश्वास रखने वाला यह तंत्र सदैव ‘जनता का, जनता के द्वारा, जनता के लिए’ सिद्धांत का पक्षधर रहा है किंतु बदलते परिदृश्य में...

वैश्विक स्तर पर स्थापित विभिन्न राजनीतिक व्यवस्थाओं में लोकतांत्रिक व्यवस्था सर्वोत्तम मानी गई है। जनहितैषी मूल्यों में विश्वास रखने वाला यह तंत्र सदैव ‘जनता का, जनता के द्वारा, जनता के लिए’ सिद्धांत का पक्षधर रहा है किंतु बदलते परिदृश्य में व्यवस्थात्मक स्वार्थपरायणता लोकहित पर प्रभावी होने लगी है। कोई भी व्यवस्था, जो मूलभूत समस्याओं का समयानुकूल समाधान निकालने में अपेक्षित प्रभावशाली सिद्ध न हो तो स्वाभाविक तौर पर इसका सीधा असर तंत्र की लोकप्रियता पर भी पड़ता है। गौरतलब है, सर्वश्रेष्ठ शासन पद्धति के तौर पर स्वीकार्य इस लोकतांत्रिक व्यवस्था को लेकर हाल ही में चौंकाने वाले तथ्य सामने आए। 

‘ओपन सोसायटी फाऊंडेशन’ द्वारा 30 देशों के 36 हजार लोगों पर किया गया सर्वेक्षण बताता है कि विश्व भर में 18 से 35 आयुवर्ग के मध्य शामिल 42' युवा लोकतंत्र की अपेक्षा सैन्य शासन व्यवस्था को प्रभावी मानतेे हैं। रिपोर्ट के तहत, 35 वर्ष से अधिक आयुवर्ग के 20' लोगों का मानना है कि लोकतांत्रिक सरकार ग्लोबल वार्मिंग, गरीबी, असमानता जैसी समसामयिक चुनौतियों से निपटने में अक्षम है। मतानुसार विभक्त  चीन, पाक, मिस्र जैसे देश सैन्य व्यवस्था से बेहतरी की उम्मीद करते हैं तो जापान, जर्मनी, अमेरिका तथा ब्रिटेन निवासी विकास के दृष्टिगत इसे प्रतिकूल मानते हैं। 

रिपोर्ट के मुताबिक, बांग्लादेश के 90' लोग ग्लोबल वार्मिंग को लेकर बेहद गंभीर हैं। भारत में यह आंकड़ा 84' बताया गया जबकि चीन, रूस तथा ब्रिटेन निवासी पर्यावरण मुद्दे को किसी बड़ी चुनौती के मद्देनजर नहीं देखते। उपरोक्त सर्वेक्षण को पूर्णांक न भी दें तो भी विश्व की सबसे बड़ी लोकतांत्रिक व्यवस्था के नागरिक होने के नाते यह विचारणीय विषय बन जाता है। अधिकतर लोगों द्वारा मानवाधिकारों को महत्व देने के बावजूद लोकतंत्र के प्रति शंकालु दृष्टि, आखिर क्यों? 

आत्ममंथन पर जो मुख्य कारण दृष्टिगोचर होता है, वह है लोकतांत्रिक मूल्यों में आ रही गिरावट। लोकतांत्रिक ढांचे में पैठ बनाती राजनीतिक स्वार्थपरायणता निर्धनता, पर्यावरणीय सजगता व सामाजिक असमानता में अपेक्षित सुधार न आ पाने के लिए काफी हद तक जिम्मेदार है। दरअसल, लोकतांत्रिक प्रणाली का सुचारू संचालन तभी संभव है जब जनप्रतिनिधि ईमानदार तथा चरित्रवान हों एवं कर्मचारी-अधिकारी कत्र्तव्यपरायण। प्रतिनिधित्व के आधार पर जब दूषित छवियां चयनित की जाएं तो लोकहित कार्यों के प्रति संशय उठेगा ही! 

विश्व की सबसे बड़ी लोकतांत्रिक व्यवस्था होने का श्रेय हासिल करने वाले भारत को ही लें,  ढोल की पोल खोलती ‘एसोसिएशन फॉर डैमोक्रेटिक रिफॉम्र्स’ (ए.डी.आर.) की ताजातरीन रिपोर्ट बताती है कि देश में लोकसभा तथा राज्यसभा के लगभग 40' सांसदों के विरुद्ध आपराधिक मामले दर्ज हैं। वर्तमान सांसदों के हलफनामा-विश्लेषण से प्राप्त जानकारी के मुताबिक, 25' सांसद हत्या, हत्या-प्रयास, अपहरण, महिलाओं के विरुद्ध जैसे गंभीर आपराधिक मामलों में संलिप्त हैं। 21 सांसद महिलाओं के विरुद्ध अपराध-केस के अंतर्गत विचाराधीन हैं। इनमें से 4 बलात्कार, 11 हत्या व 31 हत्या-प्रयास जैसे जघन्य मामलों में आरोपित हैं। भाजपा सांसदों में 36', कांग्रेस के 53', तृणमूल कांग्रस के 39', राजद में 83', माकपा में 75' तथा आप के 27' सांसद आपराधिक कृत्यों में नामजद हैं तो अन्य दल भी इस विषय में अपवाद नहीं। 

विगत जुलाई माह में भी ए.डी.आर. तथा नैशनल इलैक्शन वॉच (एन.ई.डब्ल्यू.) द्वारा किए गए विश्लेषण के दौरान भारत की राज्य विधानसभाओं में 44' विधायकों के विरुद्ध आपराधिक मामले दर्ज होने की बात भी सामने आई थी। लगभग 28' घोषित मामलों में हत्या-हत्या प्रयास, अपहरण तथा महिलाओं के खिलाफ अपराध जैसे गंभीर मामले सम्मिलित रहे। दूसरे शब्दों में, वर्तमान भारतीय लोकतांत्रिक प्रणाली में ऐसे जनप्रतिनिधियों की कमी नहीं, जिन्हें आपराधिक पृष्ठभूमि होने के बावजूद टिकट आबंटित किया गया। दीर्घकाल से यह चर्चा का विषय बना हुआ है। वर्ष 2017 में सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्र सरकार से इन चयनित जन-प्रतिनिधियों पर चल रहे मामलों के त्वरित निपटान हेतु विशेष अदालतें गठित करने को कहा था। सर्वोच्च न्यायालय के आदेशानुसार, निपटारा एक वर्ष के भीतर होने की बात उठी थी। संभव न होने पर निचली अदालतों को इस संदर्भ में उच्च न्यायालय को स्पष्टीकरण देने की मांग भी की गई। बावजूद इसके अभी तक लगभग 5,000 मामले अदालतों में लंबित हैं। 

40' मामलों का फैसला आने तक 5 वर्ष से अधिक का समय हो चुका था अर्थात इस संदर्भ में न तो न्याय-व्यवस्था प्रभावी सिद्ध हो पाई, न ही चुनाव आयोग दागी व्यक्तियों के चयन पर रोक लगाने हेतु कोई समुचित समाधान ढूंढ पाया। कार्यकाल पूर्णता के उपरांत फैसला आए भी तो बेमानी लगता है। बिहार के पूर्व लोकसभा सदस्य प्रभुनाथ सिंह का ही मामला लें, जिन्हें दोहरे हत्याकांड के लंबित प्रकरण में इसी माह उम्रकैद की सजा मिलनी संभव हो पाई। सजग मतदाता के तौर पर मतदान से पूर्व प्रत्याशी के संबंध में पर्याप्त जानकारी जुटाना यदि श्रेष्ठ नागरिक का कत्र्तव्य है तो राष्ट्रहित के दृष्टिकोण से सर्वाधिक जिम्मेदारी राजनीतिक दलों पर आती है कि किसी भी कीमत पर दागी लोगों को राजनीति में न लाया जाए। ‘यथा राजा, तथा प्रजा’; न केवल इससे लोकहित धराशायी होता है अपितु लोकतांत्रिक प्रणाली भी दूषित होती है। दु:शासकों की छत्रछाया में सुशासन की परिकल्पना भला कैसे कर सकते हैं?-दीपिका अरोड़ा
 

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