कर्नाटक जाति जनगणना : राजनीतिक समीकरण बदल गए

Edited By ,Updated: 16 Apr, 2025 04:41 AM

karnataka caste census political equations have changed

लगभग तीन दशक पहले हमारी राजनीति द्वारा छोड़ा गया जातिवाद का जिन्न कर्नाटक में फिर से अपने जहरीले फन दिखा रहा है, जहां जातिवाद ही इसका प्रमुख कारण बन गया है। मुख्यमंत्री सिद्धारमैया ने कर्नाटक राज्य पिछड़ा वर्ग आयोग द्वारा जाति जनगणना...

लगभग तीन दशक पहले हमारी राजनीति द्वारा छोड़ा गया जातिवाद का जिन्न कर्नाटक में फिर से अपने जहरीले फन दिखा रहा है, जहां जातिवाद ही इसका प्रमुख कारण बन गया है। मुख्यमंत्री सिद्धारमैया ने कर्नाटक राज्य पिछड़ा वर्ग आयोग द्वारा जाति जनगणना सामाजिक-आर्थिक-शैक्षणिक सर्वेक्षण (एस.ई.एस.) 2015 (जो उनके पिछले कार्यकाल के दौरान 2014 में कराया गया था) की एक प्रति अपने मंत्रिमंडल को सौंपी, जिस पर गुरुवार को चर्चा होगी। लेकिन यदि इसके आंकड़ों पर विश्वास किया जाए तो लीक हुई कॉपी एक गर्म मुद्दा है।

अपनी आंखें मलें, मुसलमान कर्नाटक का सबसे बड़ा समुदाय है, जिनकी जनसंख्या 12.87 प्रतिशत है, दूसरे स्थान पर अनुसूचित जातियां हैं, जिनकी जनसंख्या 12 प्रतिशत है, राजनीतिक और आर्थिक रूप से शक्तिशाली वीरशैव लिंगायत 11.09 प्रतिशत तीसरे, वोक्कालिंगा 10.31 प्रतिशत चौथे, कुरुबा 7.38 प्रतिशत, अनुसूचित जनजाति 7.1 प्रतिशत, अनुसूचित जनजाति वाल्मीकि-नायक 30,31,656 (5.07 प्रतिशत) हैं। सर्वेक्षण में शामिल 167 जातियों में ब्राह्मण मात्र 2.98 प्रतिशत, जैन 0.70 प्रतिशत, ईसाई 1.44 प्रतिशत, ओ.बी.सी. (अन्य) 2.96 प्रतिशत, देवांग 1.05 प्रतिशत हैं, जिनमें 32 सदस्यों वाली बडगा जाति भी शामिल है तथा 0.56 प्रतिशत ऐसी जातियां हैं, जिनकी कोई जाति नहीं है।

सर्वेक्षण में 98 प्रतिशत ग्रामीण और 95 प्रतिशत शहरी आबादी को शामिल किया गया, जो कुल 6.35 करोड़ थी, जिनमें से 37 लाख लोगों को अज्ञात कारणों से छोड़ दिया गया। इसके साथ ही, राज्य सरकार की योजना ओ.बी.सी. आरक्षण को मौजूदा 32 प्रतिशत से बढ़ाकर 51 प्रतिशत करने और ‘पिछड़े’ मुसलमानों के लिए 4 प्रतिशत से 8 प्रतिशत करने की है, जो कुल मिलाकर 73.5 प्रतिशत होगा, जिसमें एस.सी. के लिए 15 प्रतिशत और एस.टी. के लिए 7.5 प्रतिशत आरक्षण शामिल है, जो सर्वोच्च न्यायालय द्वारा निर्धारित 50 प्रतिशत से अधिक है, जिससे राजनीतिक विवाद पैदा हो गया है।

जैसा कि अनुमान था, इसने राजनीतिक समीकरण बदल दिए हैं, विभिन्न समुदायों के नेताओं में खलबली मचा दी है, जिससे उनके राजनीतिक प्रभुत्व को खतरा पैदा हो गया है और कांग्रेस जाति के आधार पर विभाजित हो गई है। नाराज नेताओं ने इसे ‘अवैज्ञानिक और फर्जी’ बताते हुए सरकार से इसे खारिज करने का आग्रह किया है। लिंगायत नेताओं ने आयोग पर ‘लिंगायतों की कम गिनती’ करने का आरोप लगाया। ‘हम किसी भी हालत में इस रिपोर्ट को स्वीकार नहीं करेंगे। हम सरकार से नए सिरे से जाति जनगणना कराने की अपील करेंगे।’ वोक्कालिंगा लोग चिल्ला उठे। लिंगायत और वोक्कालिंगा का संवैधानिक निकायों में प्रतिनिधित्व काफी अधिक है। वर्तमान में 50 प्रतिशत से अधिक विधायक इन दोनों समुदायों से हैं।
ब्राह्मणों में भी नाराजगी व्याप्त है, जो कांग्रेस को ओ.बी.सी. से मिलने वाले राजनीतिक लाभ पर भारी पड़ सकता है, क्योंकि वे एकजुट समूह नहीं हैं। इसके अलावा, यदि रिपोर्ट जारी की जाती है, तो उसे मजबूत राजनीतिक, प्रशासनिक और कल्याणकारी उपायों का समर्थन प्राप्त होना आवश्यक होगा, जो एक बड़ी चुनौती होगी। इस प्रकार, कर्नाटक की जाति-आधारित राजनीति को उलट दिया गया।

संकटग्रस्त मुख्यमंत्री को लगता है कि वह अछूते हैं, जनगणना क्रियान्वयन पर निर्णय होने तक वह अपनी कुर्सी पर सुरक्षित हैं, जिसमें एक या दो साल लग सकते हैं। इसके अलावा, उन्हें कुरुबा समुदाय का समर्थन भी प्राप्त है क्योंकि वह उनमें से एक हैं और इससे उनका अहिंदा (अल्पसंख्यक, पिछड़ा वर्ग, अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति) गठबंधन पुन: मजबूत होगा, जिससे कांग्रेस को भाजपा-जद (एस) को रोकने के लिए एक मजबूत राजनीतिक मंच मिलेगा। भाजपा ने पलटवार करते हुए कांग्रेस पर अल्पसंख्यक तुष्टीकरण और राजनीतिक लाभ के लिए जाति का लाभ उठाने का प्रयास करने का आरोप लगाया। गौड़ा की जे.डी.एस. इस घटनाक्रम पर सतर्कता से नजर रख रही है, जबकि ओ.बी.सी. उत्साहित हैं क्योंकि इससे कर्नाटक का सामाजिक-राजनीतिक परिदृश्य पूरी तरह से उनके पक्ष में बदल जाएगा। कुछ लोगों का मानना है कि सरकार ने मधुमक्खी के छत्ते पर पत्थर फैंका है।

कांग्रेस के केंद्रीय नेतृत्व का कहना है कि जाति जनगणना का लक्ष्य ओ.बी.सी. कल्याण है। एक वरिष्ठ नेता ने कहा, ‘‘जाति जनगणना एक और मोर्चा खोलेगी और भाजपा के लिए समस्याएं पैदा करेगी। धुरी मोदी समर्थक बनाम मोदी विरोधी होगी और हम ओ.बी.सी. को लामबंद करने की कोशिश करेंगे। यह मंडल 2.0 होगा, मंडल 1.0 से अलग, जिसमें आक्रामक ओ.बी.सी. लामबंदी शामिल थी।’’ मंडलवाद से प्रेरित होकर, राजनीति अब जाति के आधार पर ध्रुवीकृत हो गई है और चुनाव जाति के आधार पर लड़े जा रहे हैं। मतदाता प्रतिगामी रूप से लेकिन निर्णायक रूप से जातिगत आधार पर मतदान कर रहे हैं। आखिर, मात्र 15 प्रतिशत वोट बैंक वाले ब्राह्मण और ठाकुर ही क्यों राज करते हैं?

स्पष्टत:, आज राजनीतिक चेतना जाति स्तर पर समाप्त हो गई है। इसके अलावा, जाति जनगणना ऐतिहासिक अन्याय और भेदभाव को दूर करने में मदद करेगी, सरकारी कल्याणकारी योजनाओं और नीतियों को लक्षित करने के लिए उचित नीतियां बनाने में उपयोगी होगी और यह सुनिश्चित करेगी कि वे लक्षित लाभार्थियों तक पहुंचें। जिससे जड़विहीन दलितों को एक नई पहचान और दृष्टिकोण में बदलाव मिलेगा। लेकिन क्या इससे समान परिणाम प्राप्त होंगे, यह बहस का विषय है। इसमें संदेह है कि जाति राष्ट्रीय राजनीति को और अधिक विभाजित नहीं करेगी। भाजपा ने कोई रुख नहीं अपनाया है क्योंकि इससे उसके हिंदुत्व अभियान को बड़ी चुनौती मिल सकती है, जिससे उसका वोट शेयर बिखर सकता है, जबकि वह हिंदुत्व के तहत विभिन्न जातियों को एकजुट करने का प्रयास कर रही है।

इसके अलावा, जाति जनगणना कराने से राजनीतिक जोखिम भी पैदा हो सकता है। जनगणना में ओ.बी.सी. की गणना से न केवल विभिन्न राज्यों में उनकी संख्यात्मक ताकत के बारे में ठोस आंकड़े उपलब्ध होंगे, बल्कि राज्य संस्थाओं, विशेषकर न्यायपालिका, शैक्षणिक प्रतिष्ठानों में ओ.बी.सी. की हिस्सेदारी की जांच करने में भी मदद मिलेगी, जो सामाजिक अभिजात वर्ग द्वारा नियंत्रित और एकाधिकार में हैं, जिससे दलितों और बहुजन समूहों की उपस्थिति नगण्य है। इससे इन समूहों के लिए अधिक प्रतिनिधित्व और आरक्षण की मांग उठ सकती है, जिससे मौजूदा सत्ता गतिशीलता और राजनीतिक प्रतिनिधित्व में बाधा उत्पन्न हो सकती है। परिणामस्वरूप, सामाजिक रूप से हाशिए पर पड़े समूहों में नई राजनीतिक चेतना पैदा हुई, जिसके नतीजे में सामाजिक न्याय के लिए एक नया आंदोलन शुरू हुआ, जो भाजपा को हाशिए पर धकेल सकता है। वर्तमान में भाजपा ओ.बी.सी. को 2 वर्गों में देखती है- प्रभावशाली और अप्रभावी, उच्च और निम्न। इसका उद्देश्य बिहार और उत्तर प्रदेश में यादव, कुर्मी और कुशवाहा तथा कर्नाटक में वोक्कालिंगा जैसी प्रभावशाली जातियों को लुभाना है। किसी भी उप-वर्गीकरण से इन उप-जातियों के लिए दरवाजे बंद हो जाएंगे और मंडल 1 के वंशज अखिलेश, लालू और नीतीश अपने समुदायों में और अधिक मजबूत हो जाएंगे।

जाति-विरोधी विचारकों का मानना है कि शिक्षा, रोजगार, आर्थिक उपलब्धि स्तर और अंतर-पीढ़ीगत गतिशीलता पर जाति के प्रभाव को समझने के लिए जनगणना महत्वपूर्ण है। तर्क यह है कि चूंकि जाति एक सामाजिक-आर्थिक वास्तविकता है, इसलिए इसके प्रभाव पर ठोस आंकड़े होना ही नीतियां बनाने का एकमात्र तरीका है। जातिगत पूर्वाग्रह के प्रभाव को समाप्त करने से हाशिए पर पड़े समूहों के विरुद्ध खतरा और भी बढ़ जाता है। स्पष्टत:, काफ्कावादी (अवास्तविक) दुनिया में, जहां जातिगत पहचान एक चिपचिपा बोझ है, जिसे सामाजिक परिवेश में हटाना कठिन है तथा जहां जाति बनाम जाति की लड़ाई किसी के भाग्य का फैसला करती है, कोई भी पार्टी अपने जातिगत वोट बैंक को खतरे में नहीं डालना चाहती। यह सामाजिक समूह की राजनीति के बिना सोचे-समझे लोकप्रियता हासिल करने का समय नहीं है, क्योंकि यह लोगों को जाति के आधार पर और अधिक विभाजित करेगा तथा संपन्न और वंचित के बीच की खाई को और बढ़ाएगा। यदि भारत को सफलता के शिखर पर पहुंचना है तो वह क्षुद्र राजनीति में लिप्त नहीं हो सकता।-पूनम आई. कौशिश    
 

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