पाकिस्तान : एक अंतिम खेल, जिसे भारत को खत्म ही करना होगा

Edited By ,Updated: 04 May, 2025 05:01 AM

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पाकिस्तान का विचार गोरसी कबीले के एक मुस्लिम गुज्जर रहमत अली द्वारा तैयार किया गया था जो बलाचौर से था जो मेरे तत्कालीन संसदीय क्षेत्र श्री आनंदपुर साहिब में आता है।

पाकिस्तान का विचार गोरसी कबीले के एक मुस्लिम गुज्जर रहमत अली द्वारा तैयार किया गया था जो बलाचौर से था जो मेरे तत्कालीन संसदीय क्षेत्र श्री आनंदपुर साहिब में आता है। कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में एक ‘स्थायी छात्र’ के रूप में उन्होंने 36 वर्ष की आयु में एक पुस्तिका लिखी जिसका नाम था ‘अब या कभी नहीं-हम हमेशा के लिए मर जाएंगे’ जिसमें उन्होंने भारत के उत्तर-पश्चिम में एक मुस्लिम राज्य का बौद्धिक आधार प्रस्तुत किया।

पाकिस्तान नाम पंजाब, अफग़ानिस्तान, एन.एफ.डब्ल्यू.पी., कश्मीर, सिंध के पहले अक्षरों से और बलूचिस्तान के अंतिम अक्षरों तान शब्द से बना है। उच्चारण में आसानी के लिए बाद में एक ‘प’ शब्द जोड़ा गया। इस नाम का उस पौराणिक कहावत से कोई लेना-देना नहीं है कि पाकिस्तान का मतलब पवित्र भूमि है। उक्त पुस्तिका में एक वाक्य था जिसने किसी कट्टर साम्राज्यवादी का ध्यान खींचा होगा क्योंकि यह इस तरह की इकाई के लिए रणनीतिक तर्क प्रदान करता था ‘उत्तर-पश्चिम भारत का यह मुस्लिम संघ किसी भी दिशा से विचारों या हथियारों के भारत पर आक्रमण के खिलाफ  एक बफ र राज्य की दीवार प्रदान करेगा’। शुरू में इस मूर्खतापूर्ण योजना का कोई भी समर्थक नहीं था लेकिन 1940 तक इसके शुरूआती समर्थकों में से एक ग्रेट ब्रिटेन के युद्धकालीन प्रधानमंत्री सर विंस्टन चर्चिल बन गए। 

ब्रिटेन की लड़ाई समाप्त होने के ठीक बाद 1940 के अक्तूबर-नवंबर तक चर्चिल मंत्रिमंडल में अपने सहयोगियों के साथ इस विचार पर गंभीरता से चर्चा कर रहे थे क्योंकि उन्हें भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस पर बिल्कुल भरोसा नहीं था जिसने अक्तूबर-नवंबर 1939 में तत्कालीन वायसराय विक्टर अलेक्जैंडर जॉन होप द्वितीय मार्कीस ऑफ लिनलिथगो के फैसले का विरोध करने के लिए सभी प्रांतीय मंत्रिमंडलों से इस्तीफा दे दिया था तब तक 23 मार्च 1940 को पाकिस्तान प्रस्ताव पारित हो चुका था। 1947 में विपक्ष के नेता के रूप में चर्चिल ने ही जिन्ना को एक ऐसे पाकिस्तान को स्वीकार करने के लिए राजी किया जिसे जिन्ना ने उपहासपूर्वक एक पतंगा खाया हुआ पाकिस्तान कहा था।

पश्चिमी पाकिस्तान विजयी एंग्लो-अमरीकन गठबंधन की एक रणनीतिक परियोजना थी क्योंकि शीत युद्ध 1945 में ही शुरू हो चुका था। पश्चिमी पाकिस्तान का भावी राज्य सोवियत प्रभाव को फैलने से रोकने के लिए बफर माना जाता था। इसलिए मित्र राष्ट्रों ने सफल होने के लिए पश्चिमी पाकिस्तान की स्थापना की। इसलिए उसे पश्चिमी पंजाब की समृद्ध सिंचित भूमि और लाहौर व कराची के समृद्ध व्यापारिक शहर मिले। इसके विपरीत पूर्वी पाकिस्तान का कोई रणनीतिक महत्व नहीं था क्योंकि बर्मा में अंग्रेजों के पास पर्याप्त हिस्सेदारी थी, इसलिए इसे विफल होने के लिए स्थापित किया गया था और इसलिए यह ज्यादातर देहाती चरित्र का था।

पाकिस्तान शायद एकमात्र ऐसा देश है जहां सेना के पास एक देश है, न कि एक ऐसा देश जिसके पास सेना है। इसके पास परमाणु हथियार हैं, पहले हमले का सिद्धांत है, चीन के साथ ग्राहक-संरक्षक संबंध हैं और यह 1980-89 तक अफगान जिहाद में और फिर 2001-2021 तक आतंकवाद के खिलाफ युद्ध में अमरीका का अग्रिम पंक्ति का सहयोगी था। पाकिस्तानी सेना राज्य की कमान संभाल सकती है  लेकिन वह एक एकीकृत राष्ट्र की कमान नहीं संभाल सकती। देश का अस्तित्व सैन्य प्रभुत्व, विदेशी सहायता और धार्मिक पहचान की निर्मित भावना पर टिका हुआ है। ये सभी दीर्घावधि में स्वाभाविक रूप से नाजुक हैं। पाकिस्तान दो-राष्ट्र सिद्धांत से पैदा हुआ है जो इस गलत धारणा पर आधारित है कि हिंदू और मुसलमान एक साथ नहीं रह सकते। फिर भी 70 साल से ज्यादा समय बाद पाकिस्तान की पहचान संकीर्ण रूप से परिभाषित और बहुत कमजोर बनी हुई है। सिर्फ धार्मिक पहचान पर बना एक राष्ट्र स्वाभाविक रूप से आंतरिक दरारों और अस्तित्वगत असुरक्षा से ग्रस्त है।

क्या इस्लाम भी पाकिस्तान को एकजुट करता है : अपने इस्लामी ढांचे के भीतर भी पाकिस्तान अपने मुस्लिम अल्पसंख्यकों की सुरक्षा करने में विफल रहा है। शिया, अहमदिया, हजारा, खोजा और अन्य को नियमित रूप से उत्पीडऩ का सामना करना पड़ता है, जिन्हें अक्सर विधर्मी करार दिया जाता है। सांप्रदायिक हिंसा आम बात है, खासकर पंजाब और बलूचिस्तान में जहां सिपाह-ए-सहाबा और लश्कर-ए-झांगवी जैसे चरमपंथी समूह पनपते हैं। ऐसी ताकतों पर लगाम लगाने में राज्य की अक्षमता या अनिच्छा एक खोखली वैचारिक कोर को उजागर करती है और कश्मीर में इसकी पवित्र भूमिका सहित मुस्लिम कारणों की रक्षा करने के इसके दावे को कमजोर करती है। पाकिस्तान के अति-केंद्रीकृत, सैन्य शासन ने विभिन्न जातीय और क्षेत्रीय समूहों को अलग-थलग कर दिया है। बलूचिस्तान उग्रवाद में उलझा हुआ है, जिसमें गायब होने और सैन्य दमन की विशेषता है। सिंध में, विशेष रूप से शहरी मोहाजिर समुदाय के बीच पंजाबी-प्रभुत्व वाली स्थापना के खिलाफ  आक्रोश बढ़ रहा है।  सत्ता एकात्मक संरचना में केंद्रित है, जिसमें सेना और नौकरशाही का प्रभुत्व है, जहां राजनीतिक दल केवल परिधीय भूमिका निभाते हैं। औपनिवेशिक शक्तियों द्वारा खींची गई ‘डूरंड रेखा ’ एक फ्लैश प्वाइंट बनी हुई है, जिसे तालिबान सहित किसी भी अफगान शासन द्वारा मान्यता नहीं दी गई है। 

दोनों पक्षों के पश्तून समुदाय इस कृत्रिम विभाजन को अस्वीकार करते हैं और पाकिस्तान की लंबे समय से चली आ रही महत्वाकांक्षा ‘रणनीतिक गहराई’ के लिए काबुल को नियंत्रित करने की है जो न केवल फिर से विफल हुई है बल्कि असफल भी हुई है। पाकिस्तान के विघटन की संभावना अब अटकलों के दायरे तक सीमित नहीं है। इसके आंतरिक विरोधाभास, वैचारिक कठोरता, जातीय अशांति, आर्थिक नाजुकता और राजनीतिक शिथिलता इतनी गहरी हो गई है कि राज्य का पतन अब अकल्पनीय नहीं है और समय की बात है। यह वह अंतिम खेल है जिस पर भारत को इन विरोधाभासों को तेज करके ध्यान केंद्रित करना चाहिए। जब तक पाकिस्तानी राज्य अपने वर्तमान स्वरूप में मौजूद है, तब तक इसका मूल व्यवहार नहीं बदलेगा।-मनीष तिवारी(वकील, सांसद एवं पूर्व मंत्री)
 

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