‘1947 : पुंछ के विरुद्ध जंगबंदी का हुक्म पाक सैक्टर कमांडर सादिक खान को मिला’

Edited By ,Updated: 18 Nov, 2020 04:09 AM

pakistan sector commander sadiq khan gets the order for the war against poonch

भारतीय केवल हवाई सफर पर निर्भर थे। कुछ डाकोटा जो यहां उतरे थे वे कम से कम जीवन उपयोगी वस्तुएं ही ला सके थे। लेकिन अब क्योंकि हमने लैंडिंग ग्राऊंड पर फायरिंग कर दी थी, गुजारे का यह ढंग भी बंद हो गया। कुछ ही दिनों में पुंछ की हालत बहुत ही गैर-यकीनी हो...

भारतीय केवल हवाई सफर पर निर्भर थे। कुछ डाकोटा जो यहां उतरे थे वे कम से कम जीवन उपयोगी वस्तुएं ही ला सके थे। लेकिन अब क्योंकि हमने लैंडिंग ग्राऊंड पर फायरिंग कर दी थी, गुजारे का यह ढंग भी बंद हो गया। कुछ ही दिनों में पुंछ की हालत बहुत ही गैर-यकीनी हो गई थी लेकिन तभी एक असाधारण घटना हुई। 

सैक्टर कमांडर कर्नल सादिक खान को हुक्म मिला कि हमें पुंछ के खिलाफ अस्थाई जंगबंदी करनी है। यह स्पष्ट रूप से बीमार और जख्मियों को निकालने की इजाजत देने  बाबत थी फिर भी हमारे लोगों की नजर में, भारतीयों को साजो-सामान और अतिरिक्त नफरी पहुंचाने और पास की पहाडिय़ों पर कब्जा करने का मौका मिल गया ताकि वह भविष्य में हवाई जहाजों को सुरक्षित ढंग से उतरने देने के मंसूबे पर काम कर सकें।’’ ‘‘ठंड का मौसम शांति के साथ बीता। लेकिन हर जगह हालात हौसला बढ़ाने वाले नहीं थे। घरेलू मोर्चे पर भ्रष्टाचार ने अपना सिर उठाना शुरू किया। 

रावलपिंडी से भेजे गए सामान, राशन अधिकतर तो मोर्चे पर बिल्कुल ही नहीं पहुंच रहे थे। कपड़े, रजाइयां और अन्य सामान, जिसे पाकिस्तान के लोग दिल खोलकर भेज रहे थे, वह पिंडी मार्कीट में खुलेआम बेचे जा रहे थे। अधिकारी और नेतागण जो तुरंत प्रबंध करने की कठिनाइयों के लिए आजाद इलाके का निरीक्षण करने में कठिनाई से माने, वह इमारती लकड़ी और आमदनी के अन्य साधनों के निजी मामलों में सक्रिय हो गए।’’ 

‘‘हमारे सीनियर भी बेकार नहीं बैठे थे। पहले केवल सहायता ही मिलती थी जो उनको आगे देनी ही नहीं होती थी। इसके बाद कश्मीर में सेवा करने के लिए अपनी इच्छा से काम करने वाले अधिकारियों की सक्रिय विरोधता थी। इसके बाद मेरे विरुद्ध निजी रूप से एक मुहिम चलाई गई। जिसके बारे में मैं इस कारण से बिल्कुल ही वाकिफ नहीं था क्योंकि मेरा पूरा समय और ध्यान सामने वाली समस्या पर केन्द्रित था। मुझे तब झटका लगा जब एक दिन मुझे पता लगा कि मुझे 3 महीने की तनख्वाह से इस आधार पर हटा दिया गया है क्योंकि ‘मैं सेवा से गायब था’ मैंने यह सोचकर कुछ नहीं किया कि यह एक साधारण बात है जिसका निपटारा बाद में किया जा सकता है। लेकिन यहीं पर बस नहीं थी। पिंडी के अपने अगले दौरे पर मुझे मालूम हुआ कि सिलैक्शन बोर्ड, जो हमारे जरनैलों पर आधारित था, ने फैसला किया था कि मेरे से जूनियर दो अधिकारियों को मुझ पर तरक्की दी जाए। 

मुझे अब इस बारे नोटिस लेना था। यह निर्णय इतना अन्यायपूर्ण था कि मेरे प्रोटैस्ट के 24 घंटों के अंदर यह साफ हो गया। लेकिन तब मैंने उस षड्यंत्र एवं विरोधता की गहराई से कोई कल्पना ही नहीं की थी जो मेरे विरुद्ध कुछ ही हफ्तों में पैदा हुई थी।’’ ‘‘फिर भी मुझे अनुभव हो गया था कि मोर्चे में जरूरी सहयोग नहीं मिल रहा था। वजीर-ए-आजम से लाहौर कान्फ्रैंस में मुलाकात के मौके पर मुझे 3 महीने तक संघर्ष जारी रखने का काम सौंपा गया और अब जबकि यह 3 महीने पूरे हो गए थे, मेरा फर्ज पूरा हो गया था। मैंने महसूस किया कि फौज में वापसी का यही सही समय है।’’ 

‘‘फ्रंट के किसी हिसाब पर शीघ्र आने वाला कोई खतरा नहीं था। उड़ी का क्षेत्र भारी बर्फबारी से ढंका हुआ था। हर जगह हालात लगभग शांतिपूर्ण थे। कश्मीर पर हमारे दावे को विश्व स्तर पर बहुत महत्वपूर्ण समर्थन मिला जबकि फैसला तो राष्ट्र संघ को करना था।’’ ‘‘इसलिए फरवरी 1948 के मध्य में  मैंने स्वयं को फारिग किए जाने की बेनती की। कुछ दिन के पश्चात् दूसरी कान्फ्रैंस में वजीर-ए-आजम ने इससे सहमति प्रकट की। सरकार इस काम को सेना के हवाले करने पर विचार कर रही थी। इसी बीच आजाद कमेटी की मेरी जिम्मेदारियां ब्रिगेडियर शेर खान के सुपुर्द कर दी गईं।’’-पेशकश: ओम प्रकाश खेमकरणी
 

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