श्यामा प्रसाद मुखर्जी का ‘शिक्षा’ के प्रसार में अतुलनीय योगदान

Edited By ,Updated: 06 Jul, 2019 04:38 AM

shyama prasad mukherjee s incomparable contribution in the spread of  education

डा. ,श्यामा प्रसाद मुखर्जी एक ऐसे राजनेता हुए जिनके जीवन का अधिकांश भाग शिक्षा, साहित्य, विज्ञान प्रसार और औद्योगिकीकरण को समॢपत रहा लेकिन राष्ट्रीय घटनाक्रम ने कुछ ऐसी करवटें बदलीं कि वह कश्मीर की शेष भारत के साथ एकता और अखंडता के नाते ही ज्यादा...

डा. ,श्यामा प्रसाद मुखर्जी एक ऐसे राजनेता हुए जिनके जीवन का अधिकांश भाग शिक्षा, साहित्य, विज्ञान प्रसार और औद्योगिकीकरण को समॢपत रहा लेकिन राष्ट्रीय घटनाक्रम ने कुछ ऐसी करवटें बदलीं कि वह कश्मीर की शेष भारत के साथ एकता और अखंडता के नाते ही ज्यादा जाने गए। 

उनका जन्म 6 जुलाई 1901 को कलकत्ता में हुआ था। उनके परिवार के अधिकांश सदस्य अपने पूर्वजों के ग्रीष्मकालीन बंगले (वर्तमान झारखंड में देवघर के पास मधुपुर) में छुट्टियों के लिए जाते थे। बचपन में श्यामा प्रसाद भी लम्बे समय की छुट्टियों में मधुपुर जाते थे और उनका पूरा परिवार ही देशभक्ति और अध्यात्म को समॢपत था। उनके दादा गंगा प्रसाद मुखोपाध्याय बंगाल के पहले ऐसे साहित्यकार थे जिन्होंने सम्पूर्ण रामायण का बांग्ला में अनुवाद किया जो काफी प्रसिद्ध हुआ। उनके पिता आशुतोष मुखर्जी विश्व प्रसिद्ध गणितज्ञ थे, जिनकी गणित पर शोध अनेक विश्वविद्यालयों में पढ़ाई जाती थी। वह कलकत्ता विश्वविद्यालय के कुलपति भी नामांकित हुए थे तथा अपनी विद्वता और सम्पूर्ण बंगाल में एक उच्च स्थान के कारण बंगाली समाज में उनकी कीर्ति बहुत फैली। 

श्यामा प्रसाद के घर में बांग्ला के प्रति गहरी भक्ति थी। उन्होंने प्रथम रहकर बी.ए. पास की। गोल्ड मैडल मिला पर पिता ने कहा कि एम.ए. बांग्ला भाषा में करो। श्यामा प्रसाद ने अंग्रेजी की बजाय बांग्ला में एम.ए. किया और उसमें भी प्रथम रहे। वह भारतीय भाषाओं को अंग्रेजी से बेहतर स्थान दिलाने के लिए हमेशा प्रयास करते थे। 

23 वर्ष की आयु में विश्वविद्यालय बोर्ड के फैलो बने 
वह 23 वर्ष की आयु में ही कलकत्ता विश्वविद्यालय के बोर्ड के फैलो निर्वाचित हुए। 1926 में बैरिस्टरी की पढ़ाई के लिए वह लंदन गए और 1927 में बैरिस्टर बनकर लौटे पर उन्होंने कभी वकालत को अपना व्यवसाय नहीं बनाया। 1934 में वह तत्कालीन भारत के सबसे बड़े कलकत्ता विश्वविद्यालय के कुलपति चुने गए तथा 1938 तक अर्थात दो कार्यकाल इस पद पर निभाए। उन्होंने कलकत्ता विश्वविद्यालय को नया रूप दिया- पहली बार बांग्ला भाषा में दीक्षांत भाषण कराया जो उनके आमंत्रण पर कवि गुरु रबीन्द्र नाथ ठाकुर ने दिया। बेंगलूर में इंस्टीच्यूट ऑफ साइंस के भी अध्यक्ष थे। वहीं उनका परिचय प्रो. डा. सर्वपल्ली राधाकृष्णन से हुआ। उनकी प्रतिभा से प्रभावित श्यामा प्रसाद ने राधाकृष्णन को कलकत्ता विश्वविद्यालय बुला लिया और यहां से डा. राधाकृष्णन का वास्तविक स्वरूप निखरा जिसके लिए वह सदैव डा. श्यामा प्रसाद के कृतज्ञ रहे। 

श्यामा बाबू ने कलकत्ता विश्वविद्यालय में कृषि की शिक्षा प्रारम्भ की और कृषि में डिप्लोमा कोर्स प्रतिष्ठित किया। विशेष रूप से युवतियों की शिक्षा के लिए उन्होंने स्थानीय सहयोगियों से दान लेकर विशेष छात्रवृत्तियां प्रारम्भ कीं। उनके नेतृत्व में कलकत्ता विश्वविद्यालय देश का एक ऐसा पहला विश्वविद्यालय बना, जहां शिक्षक प्रशिक्षण विभाग खुला तथा चीनी व तिब्बती अध्ययन केन्द्र खुले। उन्होंने अपने पिता आशुतोष मुखर्जी के नाम पर भारतीय ललित कला संग्रहालय स्थापित किया और केन्द्रीय गंथागार बनवाया, जहां शोध और अध्ययन की आधुनिकतम सुविधाएं थीं। यही नहीं, उन्होंने भारत में पहली बार बांग्ला, हिंदी और उर्दू माध्यम में बी.ए. के पाठ्यक्रम आरम्भ किए और बांग्ला में विज्ञान विषय पढ़ाने के लिए वैज्ञानिक शब्दों का बांग्ला भाषा में शब्दकोष निकलवाया। विज्ञान की शिक्षा का समाज के विकास में क्या उपयोग होना चाहिए, इसके लिए उन्होंने एप्लाइड कैमिस्ट्री विभाग खोला ताकि विश्वविद्यालीय शिक्षा को सीधे औद्योगिकीकरण से जोड़ा जा सके। उन्हें महाबोधि सोसाइटी बोधगया का अध्यक्ष चुना गया। जब बुद्ध के पवित्र अवशेष लेकर उथांट तत्कालीन बर्मा से बोधगया आए तो उन अवशेषों को डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने ग्रहण किया था। 

अकाल के दौरान राहत कार्य 
बंगाल में 1943 के भयंकर अकाल में 30 लाख से अधिक भारतीय भूख से मारे गए थे। यह चॢचल की कुटिल नीतियों के कारण मानव निर्मित अकाल था। उस समय श्यामा प्रसाद ने बहुत विराट स्तर पर राहत कार्य आयोजित किए। उन्होंने बंगाल के अकाल पर जो आॢथक कारणों की विवेचना करते हुए निबंध लिखा, वह अनेक प्रसिद्ध अर्थशास्त्रियों के शोध का हिस्सा बना। उनका श्री अरविंद के प्रति गहरा भक्तिभाव था। श्री अरविंद के निर्वाण के पश्चात श्री मां ने श्री अरविंद विश्वविद्यालय की कल्पना की और उसका प्रथम कुलपति डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी को नामांकित किया। 

डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी की वर्तमान बंगलादेश और तत्कालीन पूर्वी बंगाल के महान राष्ट्रीय कवि काजी नजरूल इस्लाम से गहरी मित्रता थी। जब नजरूल इस्लाम बीमार पड़े तो श्यामा बाबू उन्हें कलकत्ता अपने घर ले आए जहां वह 6 महीने उनके घर पर रहकर स्वास्थ्य लाभ करते रहे। बाद में ढाका पहुंच कर काजी नजरूल इस्लाम ने श्यामा बाबू को कृतज्ञता का लम्बा पत्र लिखा, वह बांग्ला साहित्य की धरोहर माना जाता है। 

पत्रकार व सम्पादक 
श्यामा प्रसाद मुखर्जी पत्रकार और सम्पादक भी थे तथा उन्होंने 1944 में अंग्रेजी ‘दैनिक दि नैशनलिस्ट’ प्रारम्भ किया। वह ङ्क्षहदू महासभा के अध्यक्ष रहे और देश भर में प्रखर राष्ट्रीय विचारों का प्रसार किया। उनकी विद्वता और गहरे ज्ञान के कारण देश के सभी प्रमुख केन्द्रीय विश्वविद्यालय उन्हें दीक्षांत भाषण के लिए आमंत्रित करते थे। बहुत कम लोग यह जानते होंगे कि डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने पटना विश्वविद्यालय, आगरा और मैसूर विश्वविद्यालय सहित देश के शीर्ष 22 विश्वविद्यालयों में दीक्षांत भाषण दिए हैं। उनका अंतिम दीक्षांत भाषण 1948 में दिल्ली विश्वविद्यालय में हुआ था। 

उनकी ज्ञान सम्पदा और अकादमिक करियर कश्मीर आंदोलन के समान ही विराट और महत्वपूर्ण है। आशा की जानी चाहिए कि श्यामा प्रसाद मुखर्जी के पदचिन्हों पर चलने की घोषणा करने वाली सरकार देश के विभिन्न विश्वविद्यालयों में डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी के शिक्षा संबंधी विचारों के प्रचार-प्रसार के लिए श्यामा प्रसाद पीठ एवं श्यामा प्रसाद विचार अध्ययन केन्द्र स्थापित करेगी।-तरुण विजय    

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