‘आजाद आप्रेशन’ थोड़ा बेढंगे प्रकार का था

Edited By ,Updated: 14 Nov, 2020 04:10 AM

the  free operation  was kind of clumsy

‘‘फौजी अगर 100 राऊंड में एक लाश गिराते हैं तो इसे आमतौर पर अच्छी औसत समझा जाता है। पिछले दो विश्व युद्धों में एक लाश गिराने का औसत खर्च 100 राऊंड नहीं बल्कि कई 100 राऊंड था। दूसरी तरफ कबायली आमतौर पर इतने निकट और सावधानी से फायर करते कि...

‘‘फौजी अगर 100 राऊंड में एक लाश गिराते हैं तो इसे आमतौर पर अच्छी औसत समझा जाता है। पिछले दो विश्व युद्धों में एक लाश गिराने का औसत खर्च 100 राऊंड नहीं बल्कि कई 100 राऊंड था। दूसरी तरफ कबायली आमतौर पर इतने निकट और सावधानी से फायर करते कि मामूली 100 राऊंड में 1 लाश गिरा देते थे और बाकी अपने लिए बचा रखते थे। इस प्रकार वह कुछ भी नहीं खोते थे। कुछ महीने बाद इस सच्चाई से मैं अपने प्रभाव की तस्दीक करने के काबिल हो गया था। 500 कबायली और 500 बाकायदा फौजियों ने 3 महीने की अवधि में लगभग इसी मात्रा में गोला-बारूद इस्तेमाल किया था और लगभग बराबर लाशों के ढेर लगा दिए थे। 

गोला-बारूद से आगे एक और महत्वपूर्ण हद थी जिसे स्वीकार भी किया जाता था। फोर्स की दृष्टि से आजाद ऑप्रेशन थोड़ा बेढंगे प्रकार का था। किसी विशेष सामूहिक रणनीति का होना या लागू करना सम्भव नहीं था। रणनीतिक उद्देश्यों के लिए, कोई खास मंसूबा हासिल करने के लिए साधनों और जवानों दोनों की आवश्यकता होती है परन्तु यहां तो ऐसा कुछ भी नहीं किया जा सकता था क्योंकि फौज के पास गोला-बारूद अथवा राशन का सैंट्रल रिजर्व तो कोई था ही नहीं जो खास मोर्चे की ओर भेजा जा सके। न ही ऐसे आदमी थे जिनको एक स्थान से दूसरे स्थान पर भेजा जा सके। 

वह अपने इलाके में अपने घरों की रक्षा कर रहे थे। इसलिए शक्ति और स्थानीय हालत हर जगह दिन-ब-दिन विभिन्न थी। साथ ही किसी एक जगह को कमजोर करके दूसरी को मजबूत करना सम्भव नहीं था। जैसा कि कुछ साधारण मंसूबे की प्राप्ति के लिए आमतौर पर जरूरी होता है। 

केवल सक्रिय तत्व, जिसे विचारधारा के रूप में इस तरह इस्तेमाल किया जा सकता था वह थे कबायली। लेकिन वह थोड़े अंतराल के लिए इस्तेमाल किए जा सकते थे, क्योंकि उन्हें खास इलाकों में रखा जा सकता था, लेकिन फिर भी वह स्वयं ही अपने स्वामी थे, कई बार तो ऐसा होता था कि वह चुपके से दूसरे इलाके में दाखिल हो जाते थे। यहां उन्हें मुनासिब निशाना मिल जाता। इसलिए साधारण रूप से हमें केवल संघर्ष के बरकरार रहने से खुश रहना होगा और इसके बरकरार रहने में बहुत अधिक लॉ एंड आर्डर की जरूरत होगी। यह लॉ एंड आर्डर ज्यादातर आजाद कमेटी और जनरल हैडक्वार्टर स्वतंत्र रूप से लागू करेंगे।’’ 

4 दिसम्बर को मुझे वजीर-ए-आजम के साथ कांफ्रैंस के लिए पिंडी बुलाया गया। यह कांफ्रैंस सॢकट हाऊस में हुई। इस समय तक कमांडर इन चीफ जनरल मसूरी को विश्वास में लिया जा चुका था। उन्होंने कांफ्रैंस में भाग नहीं लिया लेकिन साथ वाले कमरे में मौजूद थे। यहां से उन्होंने मुझे कर्नल सिकंदर मिर्जा के हाथों एक पर्ची भेजी, मैं बाहर आकर उनसे मिला। उन्होंने पिछली मुलाकात का जिक्र किया जब मैंने उनको थोड़ा उत्तेजित कर दिया था।

यह सितम्बर महीने की बात थी जब कश्मीर में मुश्किलें शुरू हो गई थीं तब जनरल ने जनरल हैडक्वार्टर ऑफिसर की मीटिंग से सम्बोधित करते हुए हमें भारत के साथ दुश्मनी के खिलाफ सावधान किया था। उन्होंने कहा था कि उनका विचार है कि जंग होने पर भारत पाकिस्तान को 10 दिन में पिछाड़ देगा। मुझे तब उस बात पर गुस्सा आया था क्योंकि यह बात उस समय कही गई जब भारतीय फौज के दो अधिकारी भी वहां मौजूद थे। मैंने उनके पास एक रोष पत्र लिख भेजा जिसमें कहा गया था कि यह कितनी बदकिस्मती की बात है कि उन्होंने भारतीय अधिकारियों की मौजूदगी में ऐसी बात कह दी। 

इस प्रकार के बयान से गलत तौर पर उनके हौसले बढ़ेंगे, केवल गिनती और मात्रा की शक्ति का हवाला भ्रामक हो सकता था क्योंकि इन तथ्यों को जंग में गिना नहीं जाता, लड़ने के लिए लोगों की भावनाएं और इच्छाएं भी तो होती हैं और इसलिए मेरा मानना है कि यदि भारतीय पाकिस्तान की धरती पर पांव रखते हैं तो हम उनसे जंग लड़ेंगे चाहे हमारे पास लडऩे के लिए लकड़ी का एक टुकड़ा ही हो।-पेशकश: ओम प्रकाश खेमकरणी
 

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