जेल की बजाय जमानत की अवधारणा केवल दिखावा बनकर रह गई

Edited By ,Updated: 18 Apr, 2024 05:25 AM

the concept of bail instead of jail remained a mere show off

पिछले महीने गुजरात में जिला न्यायाधीशों के एक अखिल भारतीय सम्मेलन में बोलते हुए, भारत के मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ ने कहा कि इस बात की आशंका बढ़ रही है कि जिला अदालतें व्यक्तिगत स्वतंत्रता से संबंधित मामलों पर विचार करने के लिए अनिच्छुक हैं।...

पिछले महीने गुजरात में जिला न्यायाधीशों के एक अखिल भारतीय सम्मेलन में बोलते हुए, भारत के मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ ने कहा कि इस बात की आशंका बढ़ रही है कि जिला अदालतें व्यक्तिगत स्वतंत्रता से संबंधित मामलों पर विचार करने के लिए अनिच्छुक हैं। उन्होंने कहा कि ‘जमानत एक नियम है, जेल एक अपवाद है’ का लंबे समय से चला आ रहा सिद्धांत कमजोर होता दिख रहा है, जैसा कि ट्रायल कोर्ट द्वारा जमानत की अस्वीकृति के खिलाफ अपील के रूप में उच्च न्यायालयों और सुप्रीम कोर्ट में पहुंच रहे मामलों की बढ़ती संख्या से पता चलता है। यह प्रवृत्ति पूरी तरह से पुनर्मूल्यांकन की मांग करती है। 

उन्होंने पिछले सप्ताह वही विचार दोहराए जब उन्होंने ट्रायल कोर्ट में ‘नियम के रूप में जमानत, अपवाद के रूप में जेल’ सिद्धांत के कमजोर होने पर चिंता व्यक्त की और कहा कि जिला न्यायाधीशों को नागरिकों की व्यक्तिगत स्वतंत्रता को उचित महत्व देकर इस प्रवृत्ति के साथ-साथ सार्वजनिक धारणा को भी उलटना चाहिए। समस्या यह है कि यद्यपि भारत के मुख्य न्यायाधीश अपना पद संभालने के बाद से ही इसे दोहराते रहे हैं, लेकिन संदिग्धों और विचाराधीन कैदियों को जमानत देने से इंकार करने में कोई कमी नहीं आई है तो आम इंसानों के बारे में क्या बात करें। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल का ही मामला लें। उन्हें दिल्ली की उत्पाद शुल्क नीति से संबंधित एक कथित घोटाले के सिलसिले में प्रवर्तन निदेशालय ने हिरासत में लिया है। उनके पूर्व उप-मुख्यमंत्री मनीष सिसौदिया इसी मामले में एक साल से अधिक समय से विचाराधीन कैदी के रूप में जेल में हैं। ई.डी. न तो मनी ट्रेल का पता लगा पाई है और न ही कथित रिश्वत की रकम बरामद कर पाई है। 

केजरीवाल को अब तिहाड़ जेल भेज दिया गया है और उनके साथ एक कट्टर अपराधी जैसा व्यवहार किया जा रहा है। उनके परिवार के सदस्य और अन्य आगंतुक उनके साथ दूर से बात कर सकते हैं, जैसे कि वह ङ्क्षहसक हो सकते हैं या भागने की कोशिश कर सकते हैं। निचली अदालत और हाई कोर्ट में उनकी जमानत याचिका खारिज होने के बाद अब उन्होंने इसके लिए सुप्रीम कोर्ट का रुख किया है। देश की खचाखच भरी जेलों में बंद कैदियों में से लगभग 75 प्रतिशत विचाराधीन कैदी हैं जिनका दोष सिद्ध नहीं हुआ है और फैसला आने के बाद उनमें से कई के अंतत: बरी हो जाने की संभावना है। ऐसे मामले हैं जहां लोग, दोषी साबित नहीं होने पर, अपनी जवानी का पूरा समय या लंबी अवधि जेलों में बिता चुके हैं, सिर्फ इसलिए क्योंकि अभियोजन पक्ष, आम तौर पर राज्य ही, उन्हें जमानत देने से इंकार करने के लिए अदालतों के सामने गुहार लगाता है, जबकि आरोपी बचाव के लिए खुद वकील का बंदोबस्त नहीं कर सकते। ऐसे अधिकांश आरोपियों पर चोरी और झपटमारी जैसे अपेक्षाकृत छोटे आरोप लगते हैं। 

जेलों में बंद बदकिस्मत लोग या तो जमानत राशि जमा करने और जमानतदारों की व्यवस्था करने की स्थिति में नहीं हैं, या वे अपने लिए वकील खड़ा नहीं कर सकते हैं या अदालतों द्वारा कुछ विशिष्ट कारणों से उन्हें जमानत देने से इंकार कर दिया जाता है। न्यायमूर्ति संजय किशन कौल और न्यायमूर्ति एम.एम. सुंदरेश की सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने पिछले साल सरकार से अनावश्यक गिरफ्तारी से बचने के लिए जमानत देने की सुविधा के लिए एक नया कानून बनाने पर विचार करने को कहा था, खासकर उन मामलों में जहां कथित अपराध के लिए अधिकतम सजा 7 साल तक थी। यह इंगित करते हुए कि देश की जेलें विचाराधीन कैदियों से भरी हुई हैं, अदालत ने कहा था कि पुलिस नियमित आधार पर गिरफ्तारियां करती है और यहां तक कि न्यायिक अधिकारी भी जमानत याचिकाओं को खारिज करने से पहले अपने दिमाग का इस्तेमाल नहीं करते हैं। अदालत ने एक बहुत ही महत्वपूर्ण टिप्पणी की। अदालतें जमानत देने से इंकार कर देती हैं क्योंकि न्यायाधीशों को लगता है कि अभियोजन पक्ष का मामला कमजोर था और आरोपी अंतत: बरी हो जाएगा! इस प्रकार यह अभियुक्त को विचाराधीन कैदी के रूप में सजा देने का एक तरीका था। 

अदालत ने यह भी कहा कि भारत में आपराधिक मामलों में सजा की दर बेहद कम है। हमें ऐसा प्रतीत होता है कि जमानत आवेदनों पर निर्णय लेते समय यह कारक नकारात्मक अर्थ में अदालत के दिमाग पर असर डालता है। यह अवलोकन देश भर के न्यायिक अधिकारियों के लिए आंखें खोलने वाला होना चाहिए। संयोग से, पिछले साल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भारत के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश एन.वी. रमन्ना की अध्यक्षता में मुख्यमंत्रियों के एक सम्मेलन में विचाराधीन कैदियों की दुर्दशा और हमारी खराब न्यायिक वितरण प्रणाली के कई अन्य पहलुओं पर चर्चा की गई थी। 

प्रधानमंत्री ने यह बताते हुए कि अधिकांश विचाराधीन कैदी गरीब या सामान्य परिवारों से थे जिसे देखते हुए उन्होंने राज्यों से अपील की थी कि जहां भी संभव हो उन्हें जमानत पर रिहा किया जाए। उन्होंने पुराने कानूनों को निरस्त करने की आवश्यकता को भी रेखांकित किया था। उन्होंने कहा कि यह महत्वपूर्ण है कि पुलिस, अभियोजन एजैंसियों के साथ-साथ न्यायपालिका की मानसिकता भी बदलनी चाहिए। दुर्भाग्य से जेल की बजाय जमानत की अवधारणा केवल दिखावा बनकर रह गई है और शीर्ष पर बैठे लोग इस पर अमल नहीं कर रहे हैं।-विपिन पब्बी

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