‘जमीनी जरूरतें आज भी पूरी नहीं हो पा रहीं’

Edited By ,Updated: 29 Jan, 2021 04:32 AM

the ground needs are still not being met

देश ने अपना 72वां गणतंत्र दिवस मनाया है। आजादी के पश्चात् देश में अनेकों मूलभूत परिवर्तन हुए हैं। जहां एक बड़े मुद्दे से इतिहास रचा गया है, वहीं कई ऐसे जमीनी मुद्दे रहे हैं जिनका समाधान आज तक नहीं हो पाया। किसी भी देश में व्यवस्था

देश ने अपना 72वां गणतंत्र दिवस मनाया है। आजादी के पश्चात् देश में अनेकों मूलभूत परिवर्तन हुए हैं। जहां एक बड़े मुद्दे से इतिहास रचा गया है, वहीं कई ऐसे जमीनी मुद्दे रहे हैं जिनका समाधान आज तक नहीं हो पाया। किसी भी देश में व्यवस्था परिवर्तन से ढेरों उम्मीदें लगाई जाती हैं क्योंकि एक निश्चित समयावधि के पश्चात् परिणाम सामने होना अपेक्षित होता है। ऐसे में यह बात जरूर सामने आती है कि आधी आबादी के सच को कब तक झुठलाया जाएगा। कब देश, समाज इस बात को स्वीकार करेगा कि जमीनी जरूरतें आज भी पूरी नहीं हो पा रही हैं। शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, जनसंख्या, गरीबी, प्रदूषण, महिला सुरक्षा, न जाने कितनी ही बातें और मुद्दे ऐसे हैं जो दर्द से कराह रहे हैं। 

सच्चाई अगर देखनी हो तो गांवों का रुख जरूर करिए जहां एक घर में कमाने वाले एक सदस्य के जिम्मे 4 बेरोजगार सदस्य जरूर होंगे। ऐसे में सरकार के बड़े-बड़े दावों की पोल स्वत: खुली दिखेगी। हां यह केवल किसी एक सरकार की सच्चाई नहीं बयां करती, बल्कि पूर्ववर्ती और वर्तमान कई सरकारों की स्थिति को बयां करती है सबके अपने-अपने दावे हैं, पर समस्या का क्या? समस्त परिदृश्य को समझने और देखने के बाद आपके मन में यह विचार आना स्वाभाविक है कि क्या लोकतंत्र आम जन से दूर हो रहा है? 

संविधान की सच्चाई यही है कि जनता द्वारा जनता के लिए जनता कार्य करती है, जिससे बड़े हिस्से के लोगों के विकास की नींव पड़ती है। तो ऐसे में क्या अपनी जमीनी समस्याओं में सुधार करने के लिए सात दशकों से अधिक का समय काफी नहीं है? कराहती अर्थव्यवस्था, बिगड़े अंतर्राष्ट्रीय संबंध, बेरोजगारी मानो चीख रही हो कि कोई तो हमें बचा लो। स्वास्थ्य सेवाओं की हकीकत किसी से छिपी नहीं है। रहन-सहन, खान-पान आज भी बड़ी आबादी के लोगों का निचले दर्जे का है।

विकास के नाम पर बड़े-बड़े माल, लम्बी सड़कें दिखती हैं पर इन्हीं मालों में महज चंद रुपए में रोजगार के नाम पर शोषण नहीं दिखाई देता। विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका पर निगरानी का कार्य मीडिया करता रहा है पर अब उनमें भी बड़े बदलाव दिख रहे हैं। आप समाचार देखकर स्वयं आकलन कर सकते हैं कि सामाजिक सच्चाई और उसका ताना-बाना क्या है । चुनाव लडऩा आम आदमी के नियंत्रण से बाहर हो चुका है। समस्त व्यवस्थाओं में पूंजी की महत्ता बड़ी है।

जमीन को लेकर विवाद आपको हर गांव में दिख जाएगा, घूसखोरी आपको हर जगह नंगी आंखों से दिखाई दे सकती है पर इस पर कुछ कहना व्यर्थ का रोना ही है। जहां नीति और नियमों की बातें सिर्फ अंकित दिखेंगी व्यवहार से उसका लेना-देना नहीं है। लोकतंत्र जन मानस के अधिकारों, दायित्वों और विकास के लिए है पर सामाजिक सच्चाई इससे परे है। किसी ने सही कहा है कि चुनाव के समय नेता जनता के चक्कर लगाते हैं और अगले 5 वर्षों तक जनता नेता के चक्कर। वहीं दूसरी तरफ समस्याएं अपना मुंह फाड़े वही की वही खड़ी रहती हैं। 

देश की प्रमुख समस्या घूसखोरी है जिसकी बस परिचर्चा तो होती है पर अमल नहीं किया जाता। आज भी कई ऐसे महकमे हैं जहां खुली घूस चलती है जो सबकी निगाह में है पर समाप्ति के लिए कोई आगे नहीं बढऩा चाहता, जबकि नैतिक दायित्वों के तहत यह कार्य सरकार का है। अधिकांश मामलों में सरकारें मौन ही रहती हैं। जहां शिक्षा का प्रचार-प्रसार बढ़ा है, वहीं रोजगारोन्मुखी  शिक्षा का व्यापक अभाव हुआ है। गरीबी और गरीबों के बहुतायत देश में योजनाएं अनेकों हैं पर लाभ पाने वाले चुङ्क्षनदा लोग । महिला सुरक्षा की दर्दनाक कहानी रोज आप समाचार पत्रों में पढ़ते रहते हैं, साथ ही कुछ ऐसे निर्णय जो महिलाओं के हितों को विपरीत रूप से प्रभावित करते हैं, को भी लोग आसानी से स्वीकार कर लेते हैं।

रोजगार की स्थिति यह है  कि आपका पूरा सिस्टम बैठ चुका है, सारी व्यवस्था भगवान भरोसे चल रही है। रोजगार देने का वायदा तो किया जाता है मगर रोजगार दिए नहीं जाते। नीति नियमों का क्रियान्वयन जनता के हितों की अपेक्षा बड़े व्यावसायिक घरानों, विदेशी कंपनियों के लिए किया जाता है। यदि आप समझ रहे हैं कि यह व्यथा किसी एक सरकार की है तो मैं स्पष्ट कहना चाहूंगा कि आजादी से लेकर अब तक की अव्यवस्था के लिए सभी सरकारें जिम्मेदार हैं भले ही सभी का अनुपात अलग-अलग हो सकता है। 

हम चीन, सिंगापुर की व्यवस्था का न आकलन करते हैं न कुछ सीखते हैं, आखिर सरकारों को भी पता होता है कि हमसे पूछने वाला कौन है। कोई पूछने की जहमत उठाता है तो अनेकों समस्याओं का सामना करना पड़ता है। फिर लोकतंत्र की बात करना कोरी कल्पना जैसा है उन्हें जहां कहने के आपके अनेकों अधिकार हैं पर प्रस्तुत सरकारें करेंगी अपनी नीतियों के अनुरूप। आज भी न्याय के लिए करोड़ों लोग संघर्ष करते हैं पर लोगों की व्यथा सुनने वाला कोई नहीं है। पूंजीवादी व्यवस्था में आम आदमी की पहुंच न्याय से मीलों दूर है। 

विगत कई दशकों से जन से लोकतंत्र दूर होता दिख रहा है, जहां देश में कई तरह की व्यवस्थाएं चल रही हैं, पूंजीपति, रसूखदारों की अलग व्यवस्था, आम आदमी की अलग व्यवस्था। ऐसे में समग्र विकास की कल्पना मात्र ख्वाबों तक ही सीमित दिखाई देती है। इतनी बातों को लिखने से पहले ही यह विचार कई बार उत्पन्न हुआ कि जितनी अच्छी बातें जरूरी हैं, वे अब तक लिखी जा चुकी हैं, जरूरत है तो उन पर अमल करने की। फिर भी पुन: लिखने में एक जिद यह दिखती है कि आप तब तक लिखते रहें जब तक जन मानस की पीड़ा आप महसूस करते रहें। कहीं न कहीं ऐसा जरूर होगा कि हम किसी एक पर भी प्रभाव डालने में सफल रहे तो उद्देश्यों की पूर्ति का आरंभ जरूर होगा। 

लोकतंत्र की सच्ची सफलता तभी दिखेगी जब पंक्ति में अंतिम क्रम पर खड़े व्यक्ति को भी सरकारी योजनाओं का न केवल शत-प्रतिशत मिल पाएगा बल्कि बिना डरे बिना झुके वह हर स्तर पर अपनी बात रखने के साथ-साथ विकास में योगदान डाल सकेगा। नीति नियम जन मानस की आवश्यकता के अनुरूप बनाए जाएंगे न कि किसी बड़े वर्ग को लाभ पहुंचाने के उद्देश्य से। आप अव्यवस्था पर ध्यान देंगे तो सोचने के लिए मजबूर होंगे कि क्या वास्तव में लोकतंत्र आम जन से दूर हो रहा है?-डा. अजय कुमार मिश्रा
 

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