राज्यपाल के कार्यकलापों के संवैधानिक मानदंड क्या हैं

Edited By ,Updated: 22 Mar, 2023 06:06 AM

what are the constitutional parameters of the activities of the governor

उच्चतम न्यायालय में राज्यपाल के कार्यों के बारे में पुन: बहस चल रही है।

उच्चतम न्यायालय में राज्यपाल के कार्यों के बारे में पुन: बहस चल रही है। न्यायालय ने महाराष्ट्र के राज्यपाल कोश्यारी के बारे में कठोर शब्दों का प्रयोग किया है कि उनके द्वारा उद्धव सरकार को सदन के पटल पर बहुमत सिद्ध करने को कहने के कारण वैध रूप से स्थापित और कार्य कर रही उद्धव के नेतृत्व वाली सरकार का पतन हुआ। इससे राज्यपाल द्वारा शक्तियों के प्रयोग के बारे में गंभीर चिंताएं पैदा होती हैं।

न्यायालय तेलंगाना सरकार की उस याचिका पर भी सुनवाई कर रहा है, जिस पर राज्यपाल सौंदरराजन पर आरोप लगाया गया है कि वह पिछले सितंबर से 7 विधेयकों पर कुंडली मारे बैठे हैं और इस तरह राज्य में संवैधानिक गतिरोध पैदा कर रहे हैं, जो अनियमित और अवैध है। अनुच्छेद 200 में प्रावधान है कि राज्यपाल विधेयकों को पुनॢवचार के लिए वापस भेज सकता है, किंतु यदि सदन उन्हें पुन: राज्यपाल के पास भेजता है तो वह इन विधेयकों पर अपनी सहमति को रोक नहीं सकता।

इससे पूर्व न्यायालय ने पंजाब के मुख्यमंत्री बनाम राज्यपाल मामले में कहा था कि सदन में चर्चा का स्तर नहीं गिरना चाहिए। राजस्थान और पश्चिम बंगाल ने शिक्षा के क्षेत्र में राज्यपाल के हस्तक्षेप के विरुद्ध कानून पारित किए हैं। राजस्थान में राज्यपाल पर आरोप है कि उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ-भाजपा की विचारधारा के उपकुलपतियों की नियुक्ति की है। झारखंड के पूर्व राज्यपाल बैंस के बारे में जितना कम कहा जाए उतना अच्छा है क्योंकि वे मुख्यमंत्री सोरेन की अयोग्यता के बारे में निर्वाचन आयोग की राय पर 6 माह तक कुंडली मारे बैठे रहे।

एक पूर्व राज्यपाल का कहना है कि केन्द्र बड़ी भूल कर रहा है। इस तरह की संकीर्ण राजनीति से देश को नुक्सान होगा। कोई भी इसके दीर्घकालीन परिणामों के बारे में नहीं सोचता। व्यापक दृष्टिकोण का स्थान संकीर्ण दृष्टिकोण ने ले लिया है। ये घटनाएं बताती हैं कि यह समस्या भयावह बनती जा रही है। तमिलनाडु, केरल, छत्तीसगढ, दिल्ली और पश्चिम बंगाल राज्यों की सरकारों का आरोप है कि सरकार के कार्यकरण में राज्यपाल हस्तक्षेप कर रहे हैं।

केवल सौंदरराजन, बैंस या कोश्यारी आदि को ही क्यों दोष दें? राज्यपालों द्वारा नियमों की गलत व्याख्या करने, अक्सर अपने निष्कर्ष निकालने के मामले आम हैं, ताकि उसका और केन्द्र में उसके आकाओं का वर्चस्व बना रहे। वर्ष 2008 में मेघालय, 2007 में कर्नाटक, 2005 में गोवा, बिहार और झारखंड जैसे अनेक उदाहरण हैं। 1971 से 1981 के दौरान राज्यपाल के पद का दुरुपयोग कर 27 राज्यों की सरकारें गिराई गईं। वर्ष 1983 तक राज्यों में 70 बार राष्ट्रपति शासन लगाया गया।

राज्यपाल का इस्तेमाल अक्सर संतुलनकत्र्ता के रूप में किया जाता है, किंतु कई बार इसका इस्तेमाल केन्द्र द्वारा अपनी सरकार स्थापित करने के परोक्षी के रूप में भी किया जाता है, जिसके चलते इस पद की बदनामी होती है। आज दुर्भाग्यवश हमारे नेताओं ने राज्यपाल के संबंध में संविधान सभा के वाद-विवादों को नजरअंदाज कर दिया है जिनमें राज्यपाल के लिए तटस्थ भूमिका निर्धारित की गई है और जिससे अपेक्षा की जाती है कि वह एक संवैधानिक निगरानीकत्र्ता की भूमिका निभाए।

डा. अंबेडकर ने कहा था कि राज्यपाल का कोई ऐसा कार्य नहीं है जो वह स्वयं कर सके। उसे मंत्रिपरिषद की सलाह स्वीकार करनी होगी। तथापि राज्यपाल के पद पर राजनीति हावी हो गई है। पहला विवाद मद्रास में 1952 में पैदा हुआ। तब राज्यपाल शिव प्रकाश पर आरोप लगाया गया कि उन्होंने कांग्रेस सरकार के गठन के लिए सी. राजगोपालाचारी को आमंत्रित कर अनुचित कार्य किया। हालांकि सी. राजगोपालाचारी ने चुनाव नहीं लड़ा था और वह निर्वाचित विधायक नहीं थे। उसके बाद ऐसी हेराफेरी और षड्यंत्र निरंतर चलते रहे।

इसमें नई बात क्या है? 1970 के बाद कांग्रेस, जनता दल, संयुक्त मोर्चा और राजग की विभिन्न सरकारों ने राज्यपाल पद की गरिमा कम की है और राज्यपाल की निष्पक्षता कम हुई। हालांकि ऐसा करते समय उन्होंने बाहरी तौर पर संविधान के प्रावधानों का उल्लंघन नहीं किया। उन्होंने ऐसे प्रावधानों में खामियां ढूंढीं और उनका खुल्लमखुल्ला दुरुपयोग किया और हमारे संविधान निर्माताओं की चूक का लाभ उठाया।

संविधान में 42वें संशोधन के बाद मंत्रिपरिषद की सलाह राष्ट्रपति के  लिए बाध्यकारी बनाई गई, किंतु राज्यपाल की सलाह के संबंध में ऐसा नहीं किया गया, जिस कारण अनेक लोकतांत्रिक रूप से निर्वाचित सरकारें गिराई गईं। आज स्थिति यह है कि राज्यपाल एक राजनीतिक नियुक्ति है और केन्द्र में सत्तारूढ़ पार्टी के साथ उसका राजनीतिक जुड़ाव होता है, यह पद एक लॉलीपॉप के रूप में देखा जाता है। यह आज्ञाकारी नौकरशाहों के लिए एक उपहार, असुविधाजनक प्रतिस्पॢधयों के लिए एक सुविधाजनक पद के रूप में देखा जाता है और आज राज्यपाल के 60 प्रतिशत से अधिक पदों पर ऐसे लोग विराजमान हैं।

इस स्थिति में सुधार का एक उपाय यह है कि राज्यपाल की नियुक्ति और उसको हटाने के प्रावधानों की समीक्षा की जाए। दूसरा, राज्यपाल न केवल केन्द्र, अपितु राज्य और राज्यसभा के प्रति उत्तरदायी बनाया जाना चाहिए। राज्यपाल को केवल अपनी मंत्रिपरिषद की सलाह पर ही कार्य नहीं करना चाहिए, अपितु इस संबंध में दिशा-निर्देश निर्धारित करने चाहिएं, जिसके चलते राज्यपाल के पद पर नियुक्त होने वाले व्यक्ति के राजनीतिक संबंधों, राजनीति आदि के बारे में उसे गुमराह न किया जा सके और केवल वे लोग राज्यपाल बनाए जा सकें, जो राजनीतिक दृष्टि से तटस्थ हों।

मुख्यमंत्री की नियुक्ति में राजनीति करने से राज्यपाल को रोकने के लिए न्यायमूर्ति वेंकटचलैया की अध्यक्षता में संविधान समीक्षा आयोग ने व्यापक बदलावों की सिफारिश की थी। आयोग चाहता था कि मुख्यमंत्री की नियुक्ति विधानसभा द्वारा प्रत्यक्ष रूप से की जाए। इससे राजभवन में बहुमत सिद्ध करने की आवश्यकता नहीं होगी। आयोग की राय थी कि इससे दल बदल की समस्या पर भी अंकुश लगेगा।

सरकारिया आयोग और न्यायमूर्ति पुंछी की रिपोर्ट में भी कहा गया है कि राज्यपाल की भूमिका एक संवैधानिक प्रहरी और केन्द्र तथा राज्य के बीच एक महत्वपूर्ण संपर्क है। यह भी सुझाव दिया कि राज्यपाल की नियुक्ति राज्य के मुख्यमंत्री के साथ परामर्श कर की जानी चाहिए और उच्चतम न्यायालय ने भी इस बात का समर्थन किया। राज्यपाल की स्थिति, पद और कार्यों को सुचारू बनाने के लिए कुछ संशोधनों की आवश्यकता है, ताकि इस पद पर विराजमान होने वाले लोगों की गुणवत्ता में सुधार आए और इस सम्माननीय पद को गरिमा मिले। -पूनम आई. कौशिश

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