क्या अपने मकसद में कामयाब होगा जनसंख्या नियंत्रण विधेयक

Edited By ,Updated: 21 Jul, 2019 01:36 AM

will the population control bill be successful in its own motive

क्या इतिहास खुद को दोहरा रहा है? मुझे डर है कि ऐसा है। जिस बात के बारे में मैं आश्वस्त नहीं हूं, वह यह है कि यह दुखांत होगा या तमाशा। पिछले हफ्ते भाजपा के राज्यसभा सदस्य राकेश सिन्हा ने जनसंख्या नियंत्रण विधेयक पेश किया जिसमें दो बच्चों के परिवार का...

क्या इतिहास खुद को दोहरा रहा है? मुझे डर है कि ऐसा है। जिस बात के बारे में मैं आश्वस्त नहीं हूं, वह यह है कि यह दुखांत होगा या तमाशा। पिछले हफ्ते भाजपा के राज्यसभा सदस्य राकेश सिन्हा ने जनसंख्या नियंत्रण विधेयक पेश किया जिसमें दो बच्चों के परिवार का मानक बनाने का प्रावधान है। विधेयक में यह भी प्रावधान है कि जो लोग इस नियम का पालन करेंगे उन्हें प्रोत्साहन दिया जाएगा और पालन नहीं करने वालों को दंडित किया जाएगा। मैंने कहा, संजय गांधी का दौर फिर लौट आया। 40 वर्ष पहले आपातकाल के समय भी उनके द्वारा इसी तरह का प्रयास किया गया था। 

दो बच्चों का मानक 
सिन्हा के विधेयक में दो बच्चों तक सीमित रहने वाले परिवारों को 17 विभिन्न इनसैंटिव दिए जाने का प्रस्ताव है। इनमें आयकर छूट तथा माता-पिता के लिए नि:शुल्क स्वास्थ्य देखभाल, प्लाट और घरों के लिए सबसिडी और लोन तथा केवल एक बच्चा होने पर नि:शुल्क स्वास्थ्य देखभाल और शिक्षा शामिल हैं। इस नियम को तोडऩे वालों के लिए पांच प्रकार के दंड की पहचान की गई है। इनमें सार्वजनिक वितरण प्रणाली के लाभों में कमी, लोन पर अधिक ब्याज दर, बचतों पर कम ब्याज तथा संसद, राज्य विधानसभाओं और स्थानीय निकायों के चुनाव लडऩे पर प्रतिबंध शामिल हैं। 

एक अन्य बिंदू : प्रत्येक सरकारी कर्मचारी को यह वायदा करना होगा कि वह दो से अधिक बच्चे पैदा नहीं करेगा या करेगी। यदि इस वायदे को तोड़ा जाता है तो उनकी पदोन्नति रोक दी जाएगी। इससे दो मूलभूत प्रश्र पैदा होते हैं। क्या ये नैतिक तौर पर स्वीकार्य हैं? और क्या ये जरूरी हैं? आप इसमें तीसरा भी जोड़ सकते हैं: क्या यह किसी विशेष समुदाय के प्रति लक्षित है? किसी दम्पति के कितने बच्चे होने चाहिएं, मेरा मानना है कि यह तय करना उनका विशेषाधिकार है। मेरे दादा-दादी के 10 बच्चे थे, मेरे माता-पिता के चार, मेरी बहनों के प्रत्येक के दो-दो तथा एक। मेरा कोई नहीं है। हमें किसी संख्या के लिए बाधित नहीं किया गया। हमने यह निर्णय खुद लिए। और ऐसा ही होना चाहिए। विशेष परिस्थितियों को छोड़कर, सरकार को इस बात से कोई मतलब नहीं होना चाहिए कि वह इस संबंध में हमारे निर्णय को प्रभावित करे। तो क्या वह शर्त बरकरार है? क्या यह विधेयक इसलिए जरूरी है कि हमारी जनसंख्या नियंत्रण से बाहर हो रही है? आंकड़े दर्शाते हैं कि ऐसा नहीं है। 

घट रही जनसंख्या वृद्धि दर 
भारत के जनगणना आंकड़े इस बात की पुष्टि करते हैं कि हमारी जनसंख्या दर घट रही है। दशकीय जनसंख्या वृद्धि दर 1991-2001 के 21.5 प्रतिशत से घट कर 2001-2011 में 17.7 प्रतिशत हो गई। इसके परिणामस्वरूप भारत की जनसंख्या चीन से अधिक होने का वर्ष 2022 से 2027 हो गया। दूसरे, राष्ट्रीय कुल प्रजनन दर (टी.एफ.आर.) जिसका अर्थ किसी महिला के उसके जीवनकाल में पैदा होने वाले सम्भावित बच्चों की संख्या से है, घट कर 2.2 प्रतिशत हो गई है जो कि रिप्लेसमैंट स्तर अर्थात 2.1 से मामूली अधिक है। 

थोड़ा और गहराई में जाने पर स्थिति और स्पष्ट हो जाती है। 24 भारतीय राज्य तथा केन्द्रीय शासित प्रदेश पहले ही रिप्लेसमैंट स्तर के टी.एफ.आर. 2.1 पर पहुंच गए हैं। वास्तव में 2005-06 तथा 2015-16 के बीच आंध्र प्रदेश को छोड़कर, प्रत्येक राज्य में टी.एफ.आर. कम हुई है। पांच राज्यों में टी.एफ.आर. रिप्लेसमैंट स्तर से कम है। सिक्किम में यह केवल 1.2 है। पापुलेशन फाऊंडेशन आफ इंडिया (पी.एफ.आई.) का निष्कर्ष है, ‘ये बिल भ्रामक और भारत की डैमोग्राफिक ट्राजैक्टरी की गलत व्याख्या करता है।’ 

विशेष समुदाय के प्रति लक्षित
अब तीसरा प्रश्र, क्या यह विधेयक किसी विशेष समुदाय के प्रति लक्षित है? हालांकि मैं इसे साबित नहीं कर सकता, मुझे पूरा यकीन है कि ऐसा है। वास्तव में मेरे संदेह की पुष्टि स्वयं राकेश सिन्हा द्वारा की जा सकती है। विधेयक के उद्देश्यों और कारणों में वह लिखते हैं, ‘72 जिलों में टी.एफ.आर. चार बच्चे प्रति महिला से अधिक है।’ समाचार पत्रों से बात करते हुए वह जोड़ते हैं,‘‘बहुत से जिले जिनमें अल्पसंख्यकों की संख्या अधिक है’’, क्या इससे स्थिति स्पष्ट हो जाती है? 

आखिर में, पी.एफ.आई. का दावा है कि दो बच्चों का मानक न केवल अप्रभावी है बल्कि इसके कई अनचाहे परिणाम भी हैं। कई राज्यों ने इसे लागू करने का प्रयास किया लेकिन प्रजनन दर को कम करने में असफल रहे। बल्कि इसके कारण वहां लिंग आधारित और असुरक्षित गर्भपात की संख्या में बढ़ौतरी हुई। पुरुषों ने पत्नियों को तलाक दिया ताकि वे चुनाव में खड़े हो सकें और दंड से बचने के लिए लोगों ने अपने बच्चे गोद दे दिए। अब, मैं इस बात से बिल्कुल इंकार नहीं करता कि जनसंख्या के मामले में देश के सामने समस्याएं हैं। शायद सबसे ज्यादा परेशान करने वाली बात जन्म के समय लिंग अनुपात है। 2013 में 910 तक पहुंचने के बाद 2017 में यह फिर घटकर 898 हो गया। जैसा कि पी.एफ.आई. की कार्यकारी निदेशक पूनम मुतरेजा कहती हैं : ‘‘भारतीय लोग अब कम बच्चे चाहते हैं लेकिन वे बेटे चाहते हैं।’’ सिन्हा का विधेयक इस समस्या का कोई समाधान नहीं सुझाता। बेशक, यह इस समस्या को और बढ़ा सकता है।-करण थापर 
 

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