34 दिन बाद जिंदगी से जंग हारे ‘उडऩ सिख’ मिल्खा सिंह

Edited By ashwani,Updated: 19 Jun, 2021 01:24 AM

milkha singh is no more

‘भाग मिल्खा भाग’ देखकर रो पड़े थे मिल्खा सिंह

दिग्गज एथलीट मिल्खा सिंह उनके जीवन पर आधारित राकेश ओमप्रकाश मेहरा की फिल्म ‘भाग मिल्खा भाग’ देखकर भावुक हो गए थे क्योंकि इन दृश्यों ने उन्हें उनके कठिनाई और संघर्ष भरे दिनों की याद दिला दी। एक प्रैस कॉन्फ्रैंस में मिल्खा सिंह ने बताया था-‘यह फिल्म बंटवारे की जिंदा यादों को संजोये हुए है, जब मेरे पास न तो नौकरी थी और न ही खाने के लिए पर्याप्त भोजन। 

 

1 रुपया लेकर मिल्खा सिंह ने फिल्म में काम किया
मशहूर धावक मिल्खा सिंह ने अपनी जीवनी पर फिल्म बनाने की अनुमति देने के बदले निर्माता राकेश ओम प्रकाश मेहरा से मात्र एक रुपया लिया। इस एक रुपए की खास बात यह कि एक रुपए का यह नोट सन् 1958 का है, जब मिल्खा ने राष्ट्रमंडल खेलों में पहली बार स्वतंत्र भारत के लिए स्वर्ण पदक जीता था। मिल्खा चाहते थे कि उनकी जीवनी पर बनी फिल्म के माध्यम से देश के युवाओं को खेलों में देश के लिए मैडल जीतने की प्रेरणा मिले।

पाकिस्तान में  संयुक्त साम्राज्य में 1958 के कॉमनवैल्थ खेलों में स्वर्ण जीतने के बाद सिख होने की वजह से लंबे बालों के साथ पदक स्वीकारने पर पूरा खेल विश्व उन्हें जानने लगा। इसी समय पर उन्हें पाकिस्तान में दौडऩे का न्यौता मिला, लेकिन बचपन की घटनाओं की वजह से वे वहां जाने से हिचक रहे थे। लेकिन न जाने पर राजनैतिक उथल पुथल के डर से उन्हें जाने को कहा गया। उन्होंने दौडऩे का न्यौता स्वीकार लिया। दौड़ में मिल्खा सिंह ने सरलता से अपने प्रतिद्वंद्वियों को ध्वस्त कर दिया और आसानी से जीत गए। अधिकांशत: मुस्लिम दर्शक इतने प्रभावित हुए कि पूरी तरह बुर्कानशीन औरतों ने भी इस महान धावक को गुजरते देखने के लिए अपने नकाब उतार लिए थे, तभी से उन्हें फ्लाइंग सिख की उपाधि मिली।


सेना में उन्होंने कड़ी मेहनत की और 200 मीटर और 400 मीटर में अपने आपको स्थापित किया और कई प्रतियोगिताओं में सफलता हासिल की। उन्होंने सन 1956 के मेलबर्न ओलिंपिक खेलों में 200 और 400 मीटर में भारत का प्रतिनिधित्व किया पर अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अनुभव न होने के कारण सफल नहीं हो पाए लेकिन 400 मीटर प्रतियोगिता के विजेता चाल्र्स जेंकिंस के साथ हुई मुलाकात ने उन्हें न सिर्फ प्रेरित किया बल्कि ट्रेनिंग के नए तरीकों से अवगत भी कराया। 

राष्ट्रमंडल खेलों के व्यक्तिगत स्पर्धा में स्वर्ण पदक जीतने वाले स्वतंत्र भारत के पहले खिलाड़ी
सन् 1958 में कटक में आयोजित राष्ट्रीय खेलों में उन्होंने 200 मीटर और 400 मीटर प्रतियोगिता में राष्ट्रीय कीर्तिमान स्थापित किया और एशियन खेलों में भी इन दोनों प्रतियोगिताओं में स्वर्ण पदक हासिल किया। साल 1958 में उन्हें एक और महत्वपूर्ण सफलता मिली जब उन्होंने ब्रिटिश राष्ट्रमंडल खेलों में 400 मीटर प्रतियोगिता में स्वर्ण पदक हासिल किया। इस प्रकार वह राष्ट्रमंडल खेलों के व्यक्तिगत स्पर्धा में स्वर्ण पदक जीतने वाले स्वतंत्र भारत के पहले खिलाडी बन गए। 


पाकिस्तान के प्रसिद्ध धावक अब्दुल बासित को पछाड़ा
सन् 1960 में पाकिस्तान प्रसिद्ध धावक अब्दुल बासित को पाकिस्तान में पछाड़ा, जिसके बाद जनरल अयूब खान ने उन्हें ‘उडऩ सिख’ कहकर पुकारा। 1 जुलाई 2012 को उन्हें भारत का सबसे सफल धावक माना गया जिन्होंने ओलंपिक खेलों में लगभग 20 पदक अपने नाम किए हैं। यह अपने आपमें ही एक रिकॉर्ड है। मिल्खा ने कहा था कि वह पाकिस्तान में दौड़ में हिस्सा लेने जाना नहीं चाहते थे। लेकिन, प्रधानमंत्री नेहरू के समझाने पर वह इसके लिए राजी हो गए। उनका मुकाबला एशिया के सबसे तेज धावक माने जाने वाले अब्दुल बासित से था। 

 

इस बात का मलाल रहा...
रोम ओलिंपिक शुरू होने से कुछ वर्ष पूर्व से ही मिल्खा अपने खेल जीवन के सर्वश्रेष्ठ फॉर्म में थे और ऐसा माना जा रहा था कि इन खेलों में मिल्खा पदक जरूर प्राप्त करेंगे। रोम खेलों से कुछ समय पूर्व मिल्खा ने फ्रांस में 45.8 सेकंड का कीर्तिमान भी बनाया था। 400 मीटर दौड़ में मिल्खा सिंह ने पूर्व ओलिंपिक रिकॉर्ड तो जरूर तोड़ा पर चौथे स्थान के साथ पदक से वंचित रह गए। 250 मीटर की दूरी तक दौड़ में सबसे आगे रहने वाले मिल्खा ने एक ऐसी भूल कर दी जिसका पछतावा उन्हें रहा। उन्हें लगा कि वो अपने आपको अंत तक उसी गति पर शायद नहीं रख पाएंगे और पीछे मुड़कर अपने प्रतिद्वंदियों को देखने लगे, जिसका खामियाजा उन्हें भुगतना पड़ा और वह धावक जिससे स्वर्ण की आशा थी, कांस्य भी नहीं जीत पाया। मिल्खा ने कहा था कि 1960 के रोम ओलिंपिक में एक गलती के कारण वह चार सौ मीटर रेस में सैकेंड के सौवें हिस्से से पदक चूक गए। उस वक्त भी वह रो पड़े थे। इस असफलता से वह इतने निराश हुए कि उन्होंने दौड़ से संन्यास लेने का मन बना लिया पर बहुत समझाने के बाद मैदान में फिर वापसी की।
परिवार के सदस्यों की आंखों के सामने हत्या कर दी गई थी


मिल्खा ने कहा था कि 1947 में विभाजन के वक्त उनके परिवार के सदस्यों की उनकी आंखों के सामने ही हत्या कर दी गई। वह उस दौरान 16 वर्ष के थे। उन्होंने कहा कि हम अपना गांव (गोविंदपुरा, आज के पाकिस्तानी पंजाब में मुजफ्फरगढ़ शहर से कुछ दूर पर बसा गांव) नहीं छोडऩा चाहते थे। जब हमने विरोध किया तो इसका अंजाम विभाजन के कुरुप सत्य के रूप में हमें भुगतना पड़ा। चारों तरफ खूनखराबा था। उस वक्त मैं पहली बार रोया था। उन्होंने कहा कि विभाजन के बाद जब वह दिल्ली पहुंचे तो पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन पर उन्होंने कई शव देखे। उनके पास खाने के लिए खाना और रहने के लिए छत नहीं थी।


स्टेडियम में आते ही दर्शक करते थे उनका जोशपूर्ण स्वागत
मिल्खा सिंह ने खेलों में उस समय सफलता प्राप्त की जब खिलाडिय़ों के लिए कोई सुविधाएं उपलब्ध नहीं थीं, न ही उनके लिए किसी ट्रेनिंग की व्यवस्था थी। आज इतने वर्षों बाद भी कोई एथलीट ओलिंपिक में पदक पाने में कामयाब नहीं हो सका है। रोम ओलिंपिक में मिल्खा सिंह इतने लोकप्रिय हो गए थे कि जब वह स्टेडियम में घुसते थे, दर्शक उनका जोशपूर्वक स्वागत करते थे। यद्यपि वहां वह टॉप के खिलाड़ी नहीं थे, परन्तु सर्वश्रेष्ठ धावकों में उनका नाम अवश्य था। उनकी लोकप्रियता का दूसरा कारण उनकी बढ़ी हुई दाढ़ी व लंबे बाल थे। लोग उस वक्त सिख धर्म के बारे में अधिक नहीं जानते थे। लोगों को लगता था कि कोई साधु इतनी अच्छी दौड़ लगा रहा है। उस वक्त ‘पटके’ का चलन भी नहीं था, अत: सिख सिर पर रूमाल बांध लेते थे। मिल्खा सिंह की लोकप्रियता का एक अन्य कारण यह था कि रोम पहुंचने के पूर्व वह यूरोप के टूर में अनेक बड़े खिलाडिय़ों को हरा चुके थे।


टोक्यो एशियाई खेलों में रचा नया इतिहास
टोक्यो एशियाई खेलों में मिल्खा ने 200 और 400 मीटर की दौड़ जीतकर भारतीय एथलैटिक्स के लिए नए इतिहास की रचना की। मिल्खा ने एक स्थान पर लिखा है, ‘मैंने पहले दिन 400 मीटर दौड़ में भाग लिया। जीत का मुझे पहले से ही विश्वास था, क्योंकि एशियाई क्षेत्र में मेरा कीर्तिमान था। शुरू-शुरू में जो तनाव था वह स्टार्टर की पिस्तौल की आवाज के साथ रफूचक्कर हो गया। आशा के अनुसार मैंने सबसे पहले फीते को छुआ। मैंने नया रिकार्ड कायम किया था। जापान के सम्राट ने मिल्खा के गले में स्वर्ण पदक पहनाया। उन्होंने कहा था कि उस क्षण का रोमांच मैं शब्दों में व्यक्त नहीं कर सकता। मैं फिनिशिंग लाइन पर ही गिरा था। फोटो फिनिश में मैं विजेता घोषित हुआ और एशिया का सर्वश्रेष्ठ एथलीट भी। जापान के सम्राट ने उस समय मिल्खा से जो शब्द कहे थे, उन्होंने कहा था कि वह कभी वह शब्द नहीं भूल सकते। उन्होंने कहा था - दौडऩा जारी रखोगे तो तुम्हें विश्व का सर्वश्रेष्ठ स्थान मिल सकता है। दौडऩा जारी रखो। मिल्खा सिंह ने बाद में खेल से संन्यास ले लिया और भारत सरकार के साथ खेलकूद के प्रोत्साहन के लिए काम करना शुरू किया। 

उपलब्धियां
1958 के एशियाई खेलों में 200 मीटर व 400 मीटर में स्वर्ण पदक जीते।
1962 के एशियाई खेलों में स्वर्ण पदक जीता।
1958 के कॉमनवैल्थ खेलों में स्वर्ण पदक जीता।

पुरस्कार 
1959 में मिल्खा सिंह को ‘पद्मश्री’ से अलंकृत किया गया।


ओलिंपिक में ऐसे आएंगे मैडल
मिल्खा सिंह ने कहा था कि ओलिंपिक में मैडल एकदम से नहीं आएंगे। इसके लिए बड़े प्लान की जरूरत है। हमें प्रतिभाशाली खिलाडिय़ों को स्कूल स्तर से ही एकत्रित करना होगा। लगातार कंपीटिशन कराने होंगे, क्योंकि अगर किसी खिलाड़ी ने 100 मीटर मीटर की रेस 11 सैकेंड में पूरी की और अगले साल वह इतना भी समय नहीं निकाल पाता है तो पता लगता है कि हमारी मेहनत कितनी कमजोर है।

तीन बार रोए
मिल्खा सिंह ने कहा था कि वे जीवन में तीन बार रोए। एक जब विभाजन हुआ, दूसरा ओलिंपिक पदक मिस होने पर और फिल्म ‘भाग मिल्खा भाग’ में दोबारा ये सब देखने पर। 
अंतिम ख्वाहिश रह गई अधूरी
मिल्खा ने कहा था कि अब खुशी का वह लम्हा देखना चाहते हैं, जब कोई धावक ओलिंपिक में पदक जीतकर आए। यही उनकी अंतिम ख्वाहिश है।


विभाजन को फ्लाइंग सिख मिल्खा सिंह से भला और बेहतर कौन बता सकता था। ये वो माहौल था, जिसने पाकिस्तान में पैदा हुए एक सितारे को भारत की झोली में डाल दिया। मिल्खा सिंह ने बताया था कि बंटवारे के दौरान लोग एक-दूसरे से रोटियां छीनकर अपना पेट भरते थे। यह मंजर कहीं और का नहीं है, ये हालात मेरे ही देश भारत का था। जब लोग कुत्तों की तरह रोटियों पर झपट रहे थे तो ऐसे में 15 साल के एक सहमे हुए बच्चे के लिए रोटी हासिल करना आसान नहीं था। ऐसे हालात में एक बच्चे को कई दिन तक भूख से बिलखते हुए दिल्ली रेलवे स्टेशन पर सोना पड़ा। पाकिस्तान से आने के बाद जीना बेहद दर्दनाक था। विभाजन के बाद पाकिस्तान से हिंदुस्तान आने का फैसला किया, लेकिन यहां आकर जब माहौल देखा तो यहां जीना वहां के मरने से भी बुरा था। उन्होंने कहा था कि मैं दिल्ली स्टेशन पहुंचा और वहीं पर समय बिताने लगा। वहां मेरे पास न तो खाने के लिए खाना था और न ही पहनने के लिए कपड़े। मेरे पास इतने पैसे भी नहीं थे कि एक समय का खाना खा सकूं।


 

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