Edited By Niyati Bhandari,Updated: 23 May, 2024 08:56 AM
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प्रत्येक व्यक्ति में एक बाल बुद्ध बैठे हैं। महात्मा बुद्ध बनने से पहले वे राजकुमार सिद्धार्थ थे। बहुत छोटी उम्र में सिद्धार्थ समझ गए थे कि
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प्रत्येक व्यक्ति में एक बाल बुद्ध बैठे हैं। महात्मा बुद्ध बनने से पहले वे राजकुमार सिद्धार्थ थे। बहुत छोटी उम्र में सिद्धार्थ समझ गए थे कि ' सब कुछ दुख है '। उनके हृदय में ज्ञान की इच्छा थी, वे ज्ञान के लिए भटक रहे थे। उन्होंने कहा था कि ‘ यह सारा संसार दुःख है और मैं इस दुःख से मुक्त होना चाहता हूं ’। वे दुःख से मुक्ति का मार्ग नहीं जानते थे। हर व्यक्ति के भीतर एक बाल बुद्ध होते हैं, बस उन्हें जगाना होता है। कामनाओं से लड़े नहीं, उनके साक्षी हो जाएं।
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ऐसी कथा है कि जब बुद्ध बोधि वृक्ष के नीचे बैठकर ध्यान कर रहे थे और आत्मज्ञान के अंतिम चरण में थे, तब ‘मार’ नाम के एक राक्षस ने बुद्ध की समाधि भंग करने का प्रयास किया था लेकिन तब बुद्ध ने भूमि को अपनी उंगली से स्पर्श कर साक्षी बनने के लिए कहा और जैसे ही भूमि बुद्ध के आसन की साक्षी बनी, राक्षस 'मार' समाप्त हो गया और बुद्ध को आत्म साक्षात्कार हो गया। इस घटना का एक गूढ़ अर्थ है !
'मार' माने कामदेव! भगवान विष्णु को 'मार जनक' कहा जाता है, माने वे 'काम' के जनक हैं और काम का संहार कारक माने काम दहन शिव जी करते हैं तो उन्हें मारांतक कहा गया। बुद्ध ने दोनों के बीच का मार्ग लिया और ‘मार' के 'साक्षी' बने! तो बुद्ध ने यही बात कही कि इच्छाओं को मारना नहीं है बल्कि उनका साक्षी बनना है। इच्छाओं के साक्षी बनते ही इच्छायें अपने आप चली जाती हैं। जीवन में तृप्त हो जाना ही निर्वाण है।
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निर्वाण का मतलब है, ' सभी भावनाओं का साक्षी हो जाना '। भगवान् बुद्ध ने भूमि को ही साक्षी बना दिया। ' साक्षी होना ' ऊंगली से चलने वाला काम है, इसके लिए हथौड़ी लेने की आवश्यकता नहीं है। साक्षी होने के लिए लड़ने की आवश्यकता नहीं है। लोग 'काम' से लड़ते रहते हैं। मन को शांत अद्वैत चेतना में ले जाते ही सभी कामनाएं गायब हो जाती हैं। इसलिए जब हम शांत और तृप्त हो जाते हैं तो मुक्त हो जाते हैं। तो इस तरह से तृप्त हो जाना ही निर्वाण है ।
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जो 'जानते' हैं, उन्हें शब्दों में बताने की आवश्यकता नहीं
जब बुद्ध को वैशाख पूर्णिमा के दिन आत्मज्ञान हुआ तो वे मौन हो गए। उन्होंने पूरे एक सप्ताह तक कुछ नहीं कहा। पुराणों में ऐसी मान्यता है कि उनके इस मौन के कारण स्वर्ग के देवी-देवता चिंतित हो गए कि सहस्राब्दियों में एक बार, कोई बुद्ध की तरह पूरी तरह से खिलता है और अब इस अवस्था में आकर भी वे मौन हो गए हैं। वे एक शब्द भी नहीं कह रहे हैं।
ऐसा कहा जाता है कि वे बुद्ध के पास गए और उन्होंने बुद्ध से प्रार्थना की कि ‘ कृपया कुछ बोलिए ’।
बुद्ध ने कहा, ‘जो जानते हैं, वे बिना मेरे कुछ कहे भी जान लेंगे और जो नहीं जानते वे मेरे बोलने पर भी नहीं जान पाएंगे। एक अंधे व्यक्ति के लिए जीवन की कोई भी व्याख्या करना व्यर्थ है। जिसने अस्तित्व के अमृत का स्वाद नहीं चखा है, उससे इस बारे में बात करने का कोई मतलब नहीं है। इसलिए मैं मौन हूं।’
आप इतनी अंतरंग बात कैसे अभिव्यक्त कर सकते हैं, इन्हें शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता। अतीत में कई धर्मग्रंथों में कहा गया है कि ‘शब्द वहीं समाप्त होते हैं, जहां सत्य शुरू होता है।’
देवदूतों ने कहा, ‘हम सहमत हैं। आप जो कह रहे हैं वह सही है लेकिन कृपया उनके बारे में सोचिये जो सीमा रेखा पर हैं। जिन्हें न ही पूरी तरह से ज्ञान प्राप्त हुआ है और न ही वे पूरी तरह अज्ञानी हैं। उन्हें आपके शब्द प्रेरणा देंगे। उनके लिए कुछ कहिये। फिर बुद्ध ने ज्ञान का प्रसार करने का निर्णय लिया और उसे आम लोगों तक पहुंचाया ।
जिस समय इतनी समृद्धि थी, बुद्ध ने अपने प्रमुख शिष्यों को भिक्षापात्र दिया और उनसे कहा कि ‘जाओ और भिक्षा मांगो’ उन्होंने राजाओं को उनके राजसी वस्त्र उतार कर उनके हाथ में कटोरा पकड़ा दिया, ऐसा नहीं था कि उन्हें भोजन की आवश्यकता थी बल्कि वह उन्हें 'मैं कुछ हूं' से 'मैं कुछ भी नहीं' की शिक्षा देना चाहते थे। आप कुछ भी नहीं हैं। इस ब्रह्माण्ड में आप ‘महत्वहीन’ हैं। जब उस समय के राजाओं और प्रतिभाशाली लोगों को भिक्षा मांगने के लिए कहा गया, तो वे सभी करुणा के अवतार बन गये।
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