हिंदू धार्मिक ग्रंथों में समय समय पल धर्म और अधर्म की परिभाषा की गई है। रामायण हो, भागवत गीता, महाभारत या कोई अन्य शास्त्र। प्रत्येक ग्रंथ में बताया गया है कि धर्म की स्थापना कितनी ज़रूरी है। व
शास्त्रों की बात, जानें धर्म के साथ
हिंदू धार्मिक ग्रंथों में समय समय पल धर्म और अधर्म की परिभाषा की गई है। रामायण हो, भागवत गीता, महाभारत या कोई अन्य शास्त्र। प्रत्येक ग्रंथ में बताया गया है कि धर्म की स्थापना कितनी ज़रूरी है। वहीं इसमें अधर्म पर चलने वालों को दुर्गति भी दर्शायी गई है। इसी संदर्भ में आचार्य चाणक्य ने भी अपने नीति शास्त्र में एक ऐसा ही श्लोक लिखा है जिसमें उन्होंने बताना चाहा है कि कैसे अधर्मी इंसान अपनी बुद्धि के कारण खुद ही अपना विनाश कर लेता है।

आइए जानें चाणक्य नीति का ये श्लोक-
श्लोक-
अधर्म बुद्धि से आत्मविनाश
आत्मविनाशं सूचयत्यधर्मबुद्धि:।

भावार्थ : जब कोई राजा ‘रावण’ और ‘कंस’ जैसे दुराचारी राजाओं की तरह आचरण करने लगता है। अहंकार के मद में चूर होकर वह भले-बुरे का ज्ञान भूल जाता है, तब उसकी यह अधर्म बुद्धि उसके विनाश का कारण बन जाती है क्योंकि उसका लक्ष्य अपने स्वार्थ के लिए प्रजा को प्रताडि़त करना बन जाता है।
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