प्रकृति की प्रचुरता और मानव शक्ति के प्रतीक है गाय और बैल

Edited By Updated: 06 Aug, 2025 02:18 PM

history of gau mata

गाय किसी एक विशेष धर्म या समुदाय की नहीं बल्कि पूरी दुनिया की साझी विरासत है। सम्पूर्ण मानव जाति की उत्पत्ति का स्रोत एक ही है और सभी उसी एक में मिल जायेंगे अर्थात हमारा आदि और अंत एक ही है।

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गाय किसी एक विशेष धर्म या समुदाय की नहीं बल्कि पूरी दुनिया की साझी विरासत है। सम्पूर्ण मानव जाति की उत्पत्ति का स्रोत एक ही है और सभी उसी एक में मिल जायेंगे अर्थात हमारा आदि और अंत एक ही है। हम सभी के देव और देवी भी एक ही हैं और कुछ पूजनीय जीव भी जैसे कि सर्प, गाय आदि भी। गाय और गौवंश में कुछ तो ऐसा है कि जिसने दुनिया की सभी संस्कृतियों में एक प्रतिष्ठित स्थान अर्जित किया है। वर्तमान समय में ‘ हौली काऊ ‘ को भारतवर्ष से जोड़ा जाता है पर इतिहास के पन्नों से इस गोजातीय देवी की सर्व उपस्थिति का पता चलता है।

मेसोपोटेमिया के निवासी बैल को असाधारण शक्ति और जनन क्षमता का प्रतीक समझ औरोक्स के रूप में उसकी पूजा करते थे। बैल, बेबीलोन देवता एन्न, सिन और मर्दुक का भी चिह्न था और गाय, देवी ईश्तर की। असीरियन देव निन का भी राज्य चिह्नन मानव - बैल के रूप में था। प्राचीन बेबीलोन निवासी तथा असीरियन लोगों ने अपने महलों (जिसमें देवताओं का आह्वान करने वाले शिलालेख रखे थे ) की रक्षा करने के लिए,  विशाल पंखों वाले बैलों की प्रतिमाओं का निर्माण किया था।  ईरानियों के पास भी उनके महलों की रक्षा के लिए भारी पंखों वाले बैल थे। सेमिटिक कानांइट्स के लिए भी बैल बाल का प्रतीक था और गाय अस्तरते का। प्राचीन मिस्रवासी गाय को हाथोर् के नाम से और बैल को एपिस नाम से पूजते थे। बैल की इतनी महत्ता थी कि एपिस बैल के मरने के बाद उसके शव पर लेप लगाकर ग्रेनाइट ताबूत में दफनाया जाता था।

एक्सोडस के एक लोकप्रिय भाग ३२ : १ - ३२ : ४५  में इस बात का उल्लेख है कि किस तरह इजराइल के लोगों ने मोसेस की अनुपस्थिति में एक सोने का बछड़ा बनाकर उसकी पूजा की थी। इस उद्धरण से यह पता चलता है इजराइल के पारम्परिक इतिहास में गाय और बछड़े की कितनी श्रद्धॆय स्थिति थी। पारसी शास्त्रों के अनुसार ‘गवयवोदता’( विशेष रूप से बनाई गई गाय ) अहुरा माज़दा द्वारा बनाये गए छह मुख्य भौतिक पदार्थों में से एक है जो कि सभी गुणकारी पशुओं की पूर्वज प्रजनक बन गयी।

सेल्टिक संस्कृतियों में भी गोजातीय देवी दमोना और बोअन्न की पूजा होती थी। नॉर्स परम्परा में भी अति प्राचीन गाय  औधुम्ब्ला का उल्लेख है। यूनान में भी स्त्री और विवाह की देवी हेरा के लिए भी गाय पवित्र पशु था। चीन और जापान की प्राचीन सभ्यताओं में भी गोजातीय पशुओं का सम्मान किया जाता था और गौ माँस का आहार वर्जित था। बैल, भगवान शिव का प्रिय वाहन,जो कि नन्दी के रूप में श्रृद्धेय है, सिंधु घाटी की मुद्राओं की मुख्य आकृति है।

ऋग्वेद, विश्व का सबसे प्राचीन शास्त्र, भी गाय को अदिति और अघ्न्या कहता है अर्थात जिसको टुकड़ों में नहीं काटा जाना चाहिए। अथर्ववेद उसको समृद्धि का मूलस्रोत मानता है (धेनु सदानम् रयीणाम् - अथर्ववेदा ११ . १ . ३४ )  एक वैदिक यज्ञ में गव्य उत्पादों के प्रयोग का महत्व तो सभी जानते हैं। एक और दिलचस्प बात, भारतीय मंदिरों के प्रवेश द्वार की रक्षा हेतु भी उनके बाहर बैलों की प्रतिमाएँ स्थापित की जाती थीं।

इन सभी तथ्यों के आधार पर हम यह कह सकते हैं कि हमारे पूर्वजों ने, चाहे वो दुनिया के किसी भी कोने से हों, गाय को पूजनीय और पवित्र माना है। मिस्र से लेकर उत्तरी यूरोप तथा पूर्व तक गाय और बैल प्रजनन, शक्ति और प्रचुरता के सार्वभौमिक प्रतीक थे। होली काऊ अर्थात पवित्र गाय किसी एक विशेष धर्म के लिए ही महत्वपूर्ण नहीं है बल्कि इस पूरी दुनिया की साझी विरासत है।

हमें यह नहीं भूलना चाहिए की आधुनिक विज्ञान के अनुसार कुछ सदियों पहले पूरी दुनिया एक बड़ा भू भाग था जो बाद में अलग हुआ। यह भी प्रमाणित हो चूका है कि आरम्भ में सारी पृथ्वी पानी में डूबी हुई थी और दुनिया भर की सभ्यताएँ और संस्कृति इस बात से सहमत हैं कि सारी मानव जाति, जीवित बचे लोगों के एक समूह से ही उभरी है चाहे उसे हम मनु की नाव कह लें या नोअहस आर्क, या फिर डुकलिओंस चेस्ट या उत्नापिष्टिम् की नाव, सारी मानव जाति का एक ही मूलस्रोत सभी ने स्वीकार किया है। वेदों की गूंज दुनिया के सभी धर्मों में सुनाई देती है।

अश्विनी गुरुजी 

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