जानें, कैसे मिला मोहनदास को भारत के राष्ट्रपिता का दर्जा

Edited By Lata,Updated: 11 Sep, 2019 11:32 AM

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मोहनदास अपने पिता की खूब सेवा करते थे। विद्यालय का समय पूरा होने पर वह सीधा घर आ जाते और पिता की सेवा में लग जाते।

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मोहनदास अपने पिता की खूब सेवा करते थे। विद्यालय का समय पूरा होने पर वह सीधा घर आ जाते और पिता की सेवा में लग जाते। जब उनके पिता करमचंद गांधी बीमार हुए तो वह उन्हें समय पर दवा देते, हर प्रकार से उनकी देख-रेख करते। पिता जी उनकी सेवा से खूब प्रसन्न थे और स्नेह भरे आशीर्वाद दिया करते थे।
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उस रात पिता की सेवा से निवृत्त हो मोहनदास पढ़ाई कर रहे थे। उसी समय उनके भाई ने आकर उन्हें बताया कि उन पर 25 रुपए उधार हो गए हैं। इस कर्जे को चुकाने के लिए वह मोहनदास की मदद चाहते थे। मोहनदास के पास पैसे तो थे नहीं। अंत में उन्हें एक युक्ति सूझी। हालांकि इसके लिए उनका मन नहीं मान रहा था लेकिन बड़े भाई को भी बचाना था। रात्रि के समय मोहनदास ने अपने दूसरे भाई के बाजूबंद में से थोड़ा-सा सोना निकाल लिया और उसे सुनार के यहां बेचकर भाई को 25 रुपए दे दिए।
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भाई तो कर्ज मुक्त हो गया परन्तु चोरी करने के अपराध बोध से मोहनदास का दिल दबा-दबा सा रहने लगा। खाने-पीने, खेलकूद, पढ़ाई आदि सभी क्रियाओं से उनका मन उचाट हो गया। वह बेचैन हो उठे। साहस कर उन्होंने अपने पिता जी को एक पत्र लिखा। वह पिता के पास गए और धीरे से उन्हें पत्र पकड़ाकर वहीं बैठ गए। पत्र में मोहनदास ने अपनी गलती स्वीकार की थी और पिता जी से कठोर से कठोर दंड देने का निवेदन किया था। पिता जी ने उनका पत्र पढ़ा। पत्र पढ़ते-पढ़ते उनकी आंखों से आंसू बहने लगे। उन्हें अपने पुत्र पर गर्व हो रहा था। ये आंसू मोहनदास की सच्चाई का प्रमाण दे रहे थे। पिता की अश्रुधारा ने मोहनदास के हृदय के मैल को धो दिया। सच्चाई, ईमानदारी और पर-दुख से दुखी होने जैसे उनके गुणों के कारण ही मोहनदास को भारत ने राष्ट्रपिता का दर्जा दिया है।

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