Edited By Jyoti,Updated: 11 Apr, 2019 04:41 PM
भावनात्मक नाटकों में उलझे रहना हमारी आदत-सी बन गई है। यानी हम किसी भी परिस्थिति को बढ़ा-बढ़ा कर देखने के अभ्यस्थ हो गए हैं।
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भावनात्मक नाटकों में उलझे रहना हमारी आदत-सी बन गई है। यानि हम किसी भी परिस्थिति को बढ़ा-बढ़ा कर देखने के अभ्यस्थ हो गए हैं। रोजमर्रा की जिंदगी में होने वाली सहज घटनाएं-जैसे दूध का उफन कर गिर जाना या महत्वपूर्ण मीटिंग पर जाते समय ट्रैफिक जाम में फंस जाना भी हमारे अंदर भावनात्मक उबाल लाने के लिए पर्याप्त हैं। आए दिन होने वाली इस तरह की घटनाओं से हम न सिर्फ अपने जीवन में तनाव-जनित बीमारियों को आमंत्रित करते हैं बल्कि भावनाओं की यह बेलगाम अभिव्यक्ति हमें हमारे आत्मीयों से भी दूर कर देती है। हमारे भीतर इतना अधिक भावनात्मक उबाल क्यों? इसके दुष्परिणाम और इससे बचने के उपाय सवाल बनकर कौंधने लगते हैं।
इस जीवन की वास्तविकता है कि जिन भावनाओं का हम दमन करते हैं, वे कुछ समय बाद हमारे ही भीतर कुरुक्षेत्र में बदल जाती हैं। फिर हम प्रतिपल स्वयं से लड़ रहे होते हैं और इस लड़ाई में अंततोगत्वा हार हमारी ही होती है। आमतौर पर भावनात्मक परिपक्वता के लिए भावनाओं से थोड़ी दूरी बनाने की सलाह दी जाती है, जो भावनात्मक दबाव में उलझे मनुष्य को अटपटी लगती है। कारण कि वह अपने अंदर उठ रही प्रेम, दया, करुणा जैसी सकारात्मक भावनाओं को तो स्वीकार करता है पर नकारात्मक भावनाओं जैसे क्रोध, द्वेष, ईष्र्या आदि का विरोध या निषेध करने से बचता है।
आप प्रकट में कहते हैं कि मनुष्य को उदार बनना चाहिए पर स्वयं के प्रति कठोर होते हैं। बिना अवकाश लिए कार्य करते हैं और उसे कार्य के प्रति प्रेम का नाम देते हैं, जबकि यह स्वयं के प्रति हिंसा है। ऐसे में जब आप थोड़ी भी कठिन परिस्थिति का सामना करते हैं तो आपकी प्रतिक्रिया आवश्यकता से अधिक बढ़-चढ़ कर होती है।
जीवन के बहाव में अड़चन उत्पन्न करना न सिर्फ आनंद में बाधक है बल्कि आपके भावनात्मक उबाल का कारण भी है। जैसे आप ट्रैफिक जाम में फंस जाएं तो गाड़ी के अंदर कितना भी हॉर्न बजा लें आगे एक कदम नहीं बढ़ेंगे, वैसे ही विपरीत परिस्थिति में चाहे कितना भी चीख-चिल्ला लें हासिल कुछ नहीं होगा।
विपरीत समय में आस्था एवं विश्वास आपको भावनात्मक संतुलन देता है जिसके बाद आप कठिन क्षणों में शांत रह पाएंगे और बिना बिफरे वह करेंगे जो आपको करना चाहिए।