कपड़े करते हैं हमारी मर्यादा की रक्षा

Edited By Jyoti,Updated: 21 Feb, 2020 06:22 PM

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एक बहरूपिया राजा के दरबार में पहुंचा। राजा ने उससे कहा कि तुम्हारी कला को हम तब मानें जब तुम हमें भुलावे में डाल दो और तुम्हारे नाटक के समय हम तुम्हें पहचान न पाएं। बहरूपिया हंसते हुए सिर झुकाकर चला गया।

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एक बहरूपिया राजा के दरबार में पहुंचा। राजा ने उससे कहा कि तुम्हारी कला को हम तब मानें जब तुम हमें भुलावे में डाल दो और तुम्हारे नाटक के समय हम तुम्हें पहचान न पाएं। बहरूपिया हंसते हुए सिर झुकाकर चला गया। कुछ दिनों बाद अचानक एक दिन एक दिव्य संत राज-दरबार में उपस्थित हुआ। संत को देखकर राजा ने तुरंत ही अपने राज सिंहासन से उतरकर सन्त का अभिवादन किया और उन्हें राज सिंहासन पर विराजमान कर विधिवत पूजन-अर्चन किया। भोजन कराने के उपरान्त बहुत-सा धन राजा ने दक्षिणा के रूप में संत के श्रीचरणों में अर्पित किया किन्तु संत ने धन लेना तो दूर उस धन का स्पर्श भी नहीं किया और ऐसे ही उठकर चले गए।
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इसके कुछ देर बाद ही वह बहरूपिया राज-दरबार में उपस्थित हुआ और राजा से कहा कि महाराज लाइए मेरा पुरस्कार। राजा ने पूछा कि किस बात का? बहरूपिया बोला कि मेरे सच्चे नाटक का, जो आपसे पूर्व में तय हुआ था। वह संत मैं ही था, जिसको राज सिंहासन पर बैठाकर आपने पूजन-अर्चन किया। आप मेरे झूठे नाटक को सच मान बैठे और पहचान नहीं पाए।

बहरूपिया की बात सुनकर राजा अति प्रभावित हुआ। राजा ने कहा कि अब तुम हमसे पुरस्कार मांग रहे हो। हम तो उसी समय तुम्हें सब कुछ देने को तैयार थे, तब क्यों न लिया? बहरूपिया बोला कि महाराज! उस समय मैं संत था। संन्यासी के धर्म और अपने वेश की रक्षा करने की पूरी जिम्मेदारी भी मेरी ही थी। ऐसे परम पावन वेश को धारण करके मैं इसकी मर्यादा कैसे तोड़ सकता था। यही कारण है कि मैंने उस समय आपका दिया हुआ धन नहीं लिया। बहरूपिए की इस बात से राजा को अत्यधिक प्रसन्नता हुई और जो धन संन्यासी वेशधारी बहरूपिया को अर्पित किया था, उससे कुछ और अधिक धन देकर बहरूपिए को विदा किया।
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