किस श्राप की मुक्ति के लिए लक्ष्मी जी को करनी पड़ी महादेव की उपासना

Edited By Lata,Updated: 01 Feb, 2019 12:08 PM

religious story about mata lakshmi

ये बात तो सब जानते ही हैं कि माता लक्ष्मी अपने भक्तों पर जल्दी खुश होकर उनकी हर मनोकामना को पूरी करती हैं।

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ये बात तो सब जानते ही हैं कि माता लक्ष्मी अपने भक्तों पर जल्दी खुश होकर उनकी हर मनोकामना को पूरी करती हैं। शुक्रवार का दिन मां लक्ष्मी को समर्पित है और इस दिन इनकी पूजा-अर्चना करने का विधान बताया गया है। हमारे हिंदू धर्म के धार्मिक ग्रंथों में भगवान विष्णु और माता लक्ष्मी से जुड़ी ऐसी बहुत सी कथाएं प्रचलित हैं ,जिनके बारे में बहुत से लोग जानते होंगे। लेकिन आज हम आपको एक ऐसी कथा के बारे में बताने जा रहे हैं जो शायद ही किसी को पता हो। आज हम बात करेंगे कि आखिर ऐसा क्या कारण था, जिससे कि श्री हरि को अपनी ही पत्नी लक्ष्मी को श्राप देना पड़ा। तो चलिए जानते हैं इस कथा के बारे में-
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एक पौराणिक कथा के अनुसार एक बार भगवान विष्णु ने लक्ष्मी जी को भूलोक में अश्व योनी में जन्म लेने का श्राप दे दिया। जैसे कि सब जानते ही है कि भगवान विष्मउ की हर लीला के पीछे कोई न कोई कारण जरूर रहा है और इसी तरह इसके पीछे भी उनकी कोई लीला ही थी। लक्ष्मी जी को इस बात का बहुत बुरा लगा और उनकी प्रार्थना सुनने के बाद भगवान विष्णु ने कहा, ‘देवी! यद्यपि मेरा वचन अन्यथा तो हो नहीं सकता तथापि कुछ काल तक आप अश्व योनी में रहोगी और उसके बाद मेरे समान ही तुम्हारे एक पुत्र उत्पन्न होग। उसके बाद ही इस श्राप से आपकी मुक्ति होगी और फिर आप वापिस मेरे पास बैकुंठ आ जाएंगी।' 
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एक दिन भगवान के श्राप से लक्ष्मी जी ने भूलोक में आकर अश्व योनी में जन्म लिया और कुछ समय बीत जाने के बाद उन्होंने काल्न्दी व तमसा के संगम पर भगवान शंकर की आराधना करनी शुरु कर दी। वे भगवान सदाशिव त्रिलोचन का सच्चे मन से एक हजार वर्षो तक ध्यान करती रही।  उनकी तपस्या से महादेव जी बहुत प्रसन्न हुए और लक्ष्मी के सामने वृषभ पर आरूढ़ हो, पार्वती के साथ दर्शन देकर कहने लगे, 'देवी आप तो जगत कि माता है और भगवान विष्णु कि परम प्रिय हैं। आप भक्ति-मुक्ति देने वाले, सम्पूर्ण चराचर जगत के स्वामी विष्णु भगवान कि आराधना छोड़कर मेरे भजन क्यों कर रही है? वेदों का कथन है कि स्त्रियों को सर्वदा अपने पति की ही उपासना करनी चाहिए और उनके लिए पति के अतिरिक्त और कोई देवता ही नहीं होता है। पति कैसा भी हो वह स्त्री का आराध्य देव होता है। भगवान नारायण तो पुरषोत्तम है, ऐसे देवेश्वर पति की उपासना छोड़कर आप मेरे उपासना क्यों कर रही हैं?' 
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ये सब सुनने के बाद लक्ष्मी जी ने कहा, 'हे प्रभु! मेरे पतिदेव ने मुझे अश्व योनी में जन्म लेने का श्राप दे दिया है और इस श्राप का अंत मेरे पुत्र होने पर ही होगा। आपकी उपासना मैंने इसलिए क्योंकि आप में और श्री हरि में जरा सा भी भेद-भाव नहीं है। आप और वे एक ही हैं, केवल रूप अलग है। आपका और उनका एकत्व जानकार ही मैंने आपकी आरधना की है और यदि आप मुझपर प्रसन्न हैं तो मेरा यह दुःख दूर कीजिए।'
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भगवान शिव माता लक्ष्मी के वचनों को सुनकर बहुत प्रसन्न हुए और भगवान विष्णु से इस विषय के बारे में प्रार्थना करने का वचन दिया और श्री हरि को प्राप्त करने व एक महान प्रकर्मशाली पुत्र प्राप्त करने का वर भी उन्हें प्रदान किया। भगवान शिव का सन्देश और देवी लक्ष्मी की स्तिथि जानकार भगवान विष्णु अश्व का रूप धारणकर लक्ष्मी जी के पास गए और कुछ समय अश्व व अश्वी के रूप में समय बीताने के बाद देवी लक्ष्मी को ‘एकवीर’ नामका पुत्र की प्राप्ति हुई। उसी से “हैहय-वंश” की उत्पति हुई। बाद में लक्ष्मी जी को उस श्राप से मुक्ति मिली और अंत में वे दोनों बैकुंठ लोक को चले गए।
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