Edited By Sonia Goswami,Updated: 08 Jul, 2018 01:20 PM
अच्छी किताब वही होती है जो उम्मीद के साथ खोली जाए और कुछ हासिल होने के एहसास के साथ बंद की जाए।
नई दिल्ली : अच्छी किताब वही होती है जो उम्मीद के साथ खोली जाए और कुछ हासिल होने के एहसास के साथ बंद की जाए। पुरानी दिल्ली में जामा मस्जिद के करीब एक ऐसी लाइब्रेरी है, जहां ढेरों ‘अच्छी’ किताबें हैं जो अपने आप में दुर्लभ होने के साथ ही इल्म के पुरनूर उजाले से रौशन हैं।
पुरानी दिल्ली राजधानी का एक ऐसा इलाका है, जिसने अभी अपना सदियों पुराना मिजाज बदला नहीं है। यहां शाह वलीउल्लाह नाम की एक लाइब्रेरी है जो सदियों पुरानी किताबों को उसी शिद्दत से सहेजे हुए है। लाल पत्थर से बनी, बड़ी सी, जामा मस्जिद के पास ही चूड़ीवालान में पहाड़ी इमली नाम की एक पतली सी गली में स्थित इस लाइब्रेरी को शिक्षा की लौ जलाने के लिए इलाके के ही चंद नौजवानों ने 1994 में शुरू किया था और आज यहां 22 हजार से भी ज्यादा किताबें हैं जो देश विदेश में बसे किताबों के कद्रदानों को इल्म से रौशन कर रही हैं।
इस लाइब्रेरी को धर्मनिरपेक्षता की सच्ची मिसाल कहा जा सकता है, जहां 90 साल पहले संस्कृत और उर्दू में लिखी ‘श्रीमद् भागवत गीता’ के बगल वाले रैक में आखिरी मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर का दीवान नुमाया है, 225 साल पुरानी फारसी की ‘सैरूल अख्ताब’ के साथ ही अरबी भाषा की ‘बदी उल मिजान’ भी नजर आती हैं, गुरू नानक देव जी की बाणी ‘जपजी सुखमणि साहेब’ के नजदीक ही यूनानी चिकित्सा पद्धति पर आधारित हकीम हरजानी की ‘मिजान उन तिब’ भी खामोशी से पड़ी है।
पुस्तकालय के निर्माण में महत्वपूर्ण योगदान देने वाले सिकंदर चंगेजी ने बताया कि इलाके के कुछ लोगों ने अपने घर में पड़ी किताबें दान करके इस सार्वजनिक पुस्तकालय की शुरूआत की और फिर बहुत से लोग अपनी किताबें यहां लेकर आने लगे। आज यह आलम है कि किताबों की संख्या 22 हजार का आंकड़ा पार कर चुकी है और इन्हें रखने की जगह कम पडऩे लगी है। इस पुस्तकालय की देख-रेख करने वाली संस्था यूथ वेलफेयर एसोसिएशन के अध्यक्ष मोहम्मद नईम ने बताया कि स्थानीय बच्चों को उच्च शिक्षा से जोडऩे के लिए 21 मार्च 1994 को चंद किताबों के साथ इस पुस्तकालय की स्थापना की गई थी और अब इसके सहारे 10 से ज्यादा लोगों ने डॉक्टरेट की उपाधि ली है। यहां नियमित रूप से आने वालों में डीयू, जेएनयू, जामिया मिलिया इस्लामिया के साथ ही कोलंबिया विश्वविद्यालय के छात्र और अध्यापक भी हैं। कई विदेशी पर्यटक भी इसका लाभ उठाते हैं।
पुस्तकालय में 2000 किताबें दान करने वाले चंगेजी बताते हैं कि यहां आने वालों से कोई शुल्क नहीं लिया जाता, लेकिन किसी को किताब अपने साथ ले जाने की इजाजत भी नहीं दी जाती। उनका कहना है कि पहले लोगों को किताबें साथ ले जाने की इजाजत थी, लेकिन बहुत से लोग किताबें ले तो गए, पर उन्हें लौटाने कभी नहीं आए। वह अफसोस के साथ बताते हैं कि लोगों की इस आदत के कारण करीब 150 दुर्लभ किताबें लाइब्रेरी से कम हो गईं।
मोहम्मद नईम बताते हैं कि एक छोटे से कमरे में शुरू की गई इस लाइब्रेरी के लिए अब जगह कम पड़ने लगी है। बिना किसी सरकारी सहायता के चल रही इस लाइब्रेरी के लिए कोई सदस्यता शुल्क नहीं है। उनका अनुरोध है कि लाइब्रेरी के लिए सरकार की तरफ से बड़ी जगह का इंतजाम किया जाए ताकि किताबों को तरतीब से रखने के साथ ही यहां आने वालों के लिए बैठने की बेहतर व्यवस्था की जा सके।
लाइब्रेरी में उपलब्ध दुर्लभ किताबों की बात करें तो यहां 675 साल पुरानी तर्कशास्त्र पर आधारित अरबी भाषा की हस्तलिखित ‘बदी उल मिजान’, लाहौर में प्रकाशित दुर्लभ ‘जपजी सुखमणि साहब’, आखिरी मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर का दीवान, जिसका प्रकाशन लाल किले के अंदर बने ‘रायल प्रेस’ में हुआ था, रखी हैं।
संस्कृत और उर्दू भाषा में लिखी गई 90 साल पुरानी ‘श्रीमद् भागवत गीता’ के साथ ही यहां 225 साल पुरानी फारसी में लिखी हस्तलिखित दुर्लभ किताब ‘सैरूल अख्ताब’ भी है, जो भारत के सूफियों की शिक्षाओं पर आधारित है और इसे काजी सैयद फरजान अली ने लिखा है।
इसके अलावा हकीम हरजानी की यूनानी चिकित्सा पद्धति पर आधारित किताब ‘मिजान उन तिब’ 133 साल पुरानी है। यहां ‘खजानातुल लुगान’ नाम का एक शब्दकोश है जो छह भाषाओं- उर्दू, फारसी, अरबी, संस्कृत, अंग्रेजी और तुर्की- में है। इसे सन 1870 में भोपाल की शाहजहां बेगम ने संकलित किया था। इसके अलावा यहां 80 साल पुराना एक हिंदी अंग्रेजी कोश भी है, जिसके लेखक थामसन हैं।
छोटे से कमरे में हजारों किताबों के अलावा लाइब्रेरी में एक और दिलचस्प चीज है। यहां कई तरह के नजर के चश्में रखे गए हैं। अगर कोई अपने चश्मे घर भूल आया हो तो मायूस होने की जरूरत नहीं, डिब्बे में रखे चश्मों में से अपने नंबर के चश्मे निकालिए और आराम से अपनी पसंद की किताब के मजे लीजिए।