गठबंधन में पड़ी गांठ- 13 दलों से बना था एनडीए, धीरे-धीरे सब हो गए अलग

Edited By Punjab Kesari,Updated: 25 Mar, 2018 04:54 PM

13 parties were made of nda

आम चुनाव अब दूर नहीं है और भारतीय जनता पार्टी के अगुवाई वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) में जगह-जगह गांठ पडऩे लगी है। आंध्र प्रदेश की सत्ताधारी तेलुगू देशम पार्टी (टीडीपी) के बाद पश्चिम बंगाल के गोरखा जनमुक्ति मोर्चा (जीजेएम) ने भी एनडीए से...

नेशनल डेस्कः आम चुनाव अब दूर नहीं है और भारतीय जनता पार्टी के अगुवाई वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) में जगह-जगह गांठ पडऩे लगी है। आंध्र प्रदेश की सत्ताधारी तेलुगू देशम पार्टी (टीडीपी) के बाद पश्चिम बंगाल के गोरखा जनमुक्ति मोर्चा (जीजेएम) ने भी एनडीए से किनारा कर लिया है। कुछ दिनों पहले ही बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी का अगुवाई वाला हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा एनडीए से नाता तोड़कर महागठबंधन से जा मिला था। नीरज का विश्लेषण...
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13 दलों से बना था एनडीए
1998 में 13 राजनीतिक दलों ने साथ मिलकर राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) बनाया था, लेकिन एक साल के भीतर ही टूट-फूट होने लगी थी। एआईएडीएमके ने अपना रास्ता अलग कर लिया था। 1999 में नए दलों के साथ मिलकर फिर से कुनबा जोड़ा गया, जिसमें सफलता भी मिली। अटल बिहारी वाजयेपी की अगुवाई में गठबंधन को सत्ता मिली और यह सरकार 5 साल तक चली। 2004 में शाइनिंग इंडिया के साथ नारे के साथ यह गठबंधन तय वक्त से छह महीने पहले ही चुनाव में उतरा था, इसे हार का मुंह देखना पड़ा। फिर 2014 में मोदी लहर ने एनडीए की सत्ता में वापसी की। फिलहाल अलग-अलग राज्यों की छोटी-बड़ी 46 पार्टियां इस गठबंधन में साथ हैं। कभी जेडीयू नेता शरद यादव इसके संयोजक हुआ करते थे, पर पार्टी ने जब एनडीए से नाता तोड़ा तो वह संयोजक भी नहीं रहे। बाद अपनी ही पार्टी में नेतृत्व की खींचतान में शरद को पार्टी से बाहर होना पड़ा।

फायदा तो मिला  
जीजेएम से दोस्ती इसलिए महत्वपूर्ण थी कि दार्जिलिंग सीट पर बीजेपी की जीत से प. बंगाल में पार्टी को विस्तार का मौका मिला

अब दो-दो हाथ  
4 साल पुरानी दोस्ती टूटते ही तेलुगू देशम पार्टी (टीडीपी) और भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के बीच तीखी तरकरार शुरू हो गई है

मझधार में थे मांझी
बड़े राजनीतिक घटनाक्रम में आरजेडी से नाता तोड़कर जेडीयू फिर से एनडीए के साथ आया तो मांझी की प्रासंगिकता नहीं रह गई थी

जीजेएम की राह अलग
उत्तर प्रदेश में राज्यसभा की सीट पर बुआ-बबुआ का समीकरण बिगाडऩे की खुशी में बीजेपी शनिवार को डूबी थी तो पश्चिम बंगाल से एनडीए में फूट की खबर आई। गोरखा जनमुक्ति मोर्चा (जीजेएम) ने बीजेपी पर गोरखा लोगों से धोखे का आरोप जड़ते हुए एनडीए से नाता तोड़ लिया। पार्टी के संगठन प्रमुख एलएम लामा ने कहा कि अब उनकी पार्टी का बीजेपी से कोई नाता नहीं है। जीजेएम और बीजेपी के बीच दोस्ती एक दशक पुरानी थी। यह दोस्ती इसलिए भी महत्वपूर्ण थी कि दार्जिलिंग लोकसभा सीट पर बीजेपी की जीत जीजेएम की वजह से संभव हुई थी और पश्चिम बंगाल में बीजेपी को विस्तार का मौका मिला। 2009 के आम चुनाव के वक्त जीजेएम ने दार्जिलिंग लोकसभा सीट पर बीजेपी उम्मीदवार जसवंत सिंह का समर्थन किया था। फिर 2014 के आम चुनाव में इसी सीट से बीजेपी उम्मीदवार एस एस अहलूवालिया को जीत दिलाने में मदद की थी। पिछले साल नवंबर में जीजेएम में नेतृत्व बदलने के बाद से एनडीए के साथ रिश्तों में दूरी आने लगी थी। पार्टी प्रमुख पद से बिमल गुरुंग समेत 7 लोगों को निलंबित कर बिनय तमांग को कमान सौंपी गई। यह वही बिमल गुरुंग हैं, जिन्होंने पिछले साल गोरखा आंदोलन का नेतृत्व किया था। पश्चिम बंगाल बीजेपी के अध्यक्ष दिलीप घोष का एक बयान जीजेएम के साथ दोस्ती में दरार डालने वाला साबित हुआ। घोष ने कहा था कि जीजेएम से रिश्ता सिर्फ चुनाव के लिए था। एलएम लामा के मुताबिक, ‘दिलीप घोष के बयान से साफ है कि बीजेपी का गोरखा लोगों की मांगों के प्रति कोई सहानुभूति नहीं है।’
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जीतन पहले ही निकले
बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री और हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा (हम) के प्रमुख जीतन राम मांझी पिछले महीने एनडीए का साथ छोड़कर आरजेडी-कांग्रेस वाले महागठबंधन के साथ हो गए। वह एनडीए में असहज स्थिति में थे। ज्यादा पुरानी बात नहीं है, जेडीयू की ओर से उन्हें राज्य का मुख्यमंत्री बनाया गया था, पर नीतीश कुमार के लिए पद छोडऩे को राजी नहीं हो रहे थे और इस खींचतान के बाद वह पद से हटे तो नई पार्टी गठित की, जिसने बीजेपी के साथ मिलकर चुनाव लड़ा। फिर जब बड़े राजनीतिक घटनाक्रम में आरजेडी से नाता तोड़कर जेडीयू फिर से एनडीए के साथ आया तो मांझी की कोई प्रासंगिकता नहीं रह गई थी। उनकी पार्टी हम में बगावत के सुर भी सुनाई देने लगे थे। हाल में राज्यसभा की सीट जब नहीं मिली तो मांझी एनडीए में बेसब्र हो गए थे। उन्होंने पहले से साफ कर दिया था कि राज्यसभा में भागीदारी नहीं मिलेगी तो राज्य में तीन सीटों के उपचुनाव में वह प्रचार नहीं करेंगे। इसके बाद ही मांझी ने आरजेडी-कांग्रेस महागठबंधन का दामन थामा। 
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टीडीपी के साथ तकरार
टीडीपी के साथ 4 साल पुरानी दोस्ती टूटने के साथ ही दक्षिण भारत के इस राज्य में भाजपा के लिए नया सहयोगी ढूंढने की जरूरत आ गई है।  दोनों के बीच बढ़ती दूरियां अब इस स्तर पर आ गई है कि फिर से गठबंधन की उम्मीद बिखरती दिखाई पड़ रही है। एनडीए का विश्वासी माने जाने वाले टीडीपी अध्यक्ष चंद्रबाबू नायडू के साथ भाजपा का संबंध धीरे-धीरे खराब होता गया और विशेष राज्य के दर्जे के मुद्दे ने इस संबंध का अंत कर दिया। गठबंधन के बीच की दरार इतनी बढ़ी की टीडीपी ने राज्य में अपने विरोधी दल के साथ भी भाजपा के खिलाफ थोड़े समय के लिए समझौता कर लिया। टीडीपी ने राज्य में अपनी विरोधी पार्टी वाईएसआर कांग्रेस का संसद में साथ दिया और भाजपा की अगुआई वाली केंद्र सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाने की मांग भी कर दी। राज्य में एक साथ काम कर चुकी दोनों पार्टियों के बीच अब आरोप प्रत्यारोप की राजनीति शुरू हो गई है, जिसने रिश्ते को और जटिल बना दिया है।

दरअसल, एनडीए से अलग होने के नायडू के फैसले को अब तक का सबसे बड़ा राजनीतिक दांव माना जा रहा है। हालांकि, उन्होंने एनडीए छोडऩे के पीछे का कारण विशेष राज्य का दर्जा बताया है। उन्होंने आरोप लगाया कि विशेष दर्जे पर बीजेपी नेतृत्व ने वादाखिलाफी की है। इस महीने की शुरुआत में केंद्र में टीडीपी के दो मंत्रियों अशोक गजपति राजू और वाई.एस. चौधरी ने इस्तीफा दे दिया था। 19 मार्च को पार्टी ने मोदी सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव का नोटिस भी दिया था, लेकिन हंगामे की वजह से इसे स्वीकार नहीं किया गया था। राजनीतिक जानकारों का कहना है कि एनडीए से नाता तोड़कर नायडू राष्ट्रीय राजनीति में अपनी भूमिका बड़ी करना चाहते हैं। यह तीसरे मोर्चा का चेहरा बनने की चाहत भी हो सकती है।
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शिवसेना से रिश्ते सुधारने की कवायद
एनडीए मेंसहयोगी दल होने के बावजूद बीजेपी के साथ शिवसेना के रिश्ते किसी से छिपे नहीं हैं। ऐसे कई मौके आए जब शिवसेना ने बीजेपी के जख्मों पर नमक छिड़कने में कसर नहीं छोड़ी। हाल में यूपी के गोरखपुर और फूलपुर उपचुनाव में बीजेपी की हार के बाद शिवसेना के मुखपत्र सामना में संपादकीय लिखा गया, जिसमें हार को अहंकार और दंभ का कारण बताया गया। इसमें यहां तक कहा गया कि 2019 के चुनाव में बीजेपी को कम से कम 110 सीटों का नुकसान झेलना पड़ेगा। पिछले दिनों मोदी सरकार के खिलाफ जब अविश्वास प्रस्ताव का नोटिस आया तो उसमें भी शिवसेना ने तटस्थ रहने का फैसला सुना दिया। अब जबकि एनडीए का मजबूत सहयोगी तेलुगू देशम पार्टी (टीटीपी) साथ छोड़ चुका है, तो बीजेपी की ओर से शिवसेना से रिश्ते सुधारने की कवायद शुरू हो चुकी है। चंद रोज पहले ही महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस और शिवसेना नेता अनंत गीते के बीच बंद कमरे में बैठक हुई थी। इस बैठक को शिवसेना की नाराजगी दूर करने कोशिश मानी जा रही है।

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