भारतीय राजनीति में अमित शाह का ‘बढ़ता ग्राफ’

Edited By ,Updated: 20 Jan, 2020 03:12 AM

amit shah s  growing graph  in indian politics

सी.ए.ए., एन.आर.सी. और एन.पी.आर.  को लेकर जो भी प्रतिक्रिया देश में हो रही है, जो धरने और प्रदर्शन हो रहे हैं, उनका प्रभाव केवल मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में है। जो हिन्दू इन आंदोलनों से जुड़े हैं, वे या तो विपक्षी दलों से संबंधित हैं या धर्मनिरपेक्ष...

सी.ए.ए., एन.आर.सी. और एन.पी.आर.  को लेकर जो भी प्रतिक्रिया देश में हो रही है, जो धरने और प्रदर्शन हो रहे हैं, उनका प्रभाव केवल मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में है। जो हिन्दू इन आंदोलनों से जुड़े हैं, वे या तो विपक्षी दलों से संबंधित हैं या धर्मनिरपेक्ष विचारधारा वाले हैं। बहुसंख्यक हिन्दू समाज चाहे शहरों में रहता है या गांवों में, गृहमंत्री अमित शाह के  निर्णयों से अभिभूत है क्योंकि उसे लगता है कि सरदार पटेल के बाद देश में पहली बार एक ऐसा गृहमंत्री आया है जो अपने निर्णय दमदारी के साथ लेता है और उन्हें लागू करता है, जिस पर उसके विरोध का कोई फर्क नहीं पड़ता। 

कई सवालों के जवाब मिले
पिछले कुछ महीनों में जिस तरह के निर्णय अमित भाई शाह ने लिए हैं, उनसे एक संदेश साफ गया है कि मौजूदा सरकार हिन्दुओं के मन में पिछले 70 सालों से जो सवाल उठ रहे थे, उनके जवाब देने को तैयार है। फिर चाहे वह कश्मीर में धारा 370 हटाने का सवाल हो, नागरिकता का मामला हो या तीन तलाक का मामला हो या समान नागरिक कानून बनाने का मामला हो। हर मामले में अमित शाह के नेतृत्व में जो निर्णय लिए जा रहे हैं और जिन पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की स्वीकृति की मोहर लगी है, वे वही  हैं जो अब तक आम हिन्दू के मन में घुटे रहते थे। उनका सवाल था कि जब हमारा देश धर्मनिरपेक्ष है तो मुसलमानों के लिए अलग कानून क्यों? अल्पसंख्यकों के लिए अलग मान्यता क्यों? कश्मीर अगर भारत का अभिन्न अंग है तो वहां विशेष राज्य का दर्जा क्यों? वहां के नागरिकों को विशेष सुविधाएं क्यों? 

इसी तरह के सवाल थे कि जब पाकिस्तान और बंगलादेश में हिन्दुओं की आबादी लगातार घट रही है, तो हिन्दुओं के लिए भारत सरकार कुछ क्यों नहीं करती? इन सारे सवालों का गुबार हर हिन्दू के मन में भरा था,उसको बड़ी तेजी से निकालने का काम अब अमित शाह कर रहे हैं। यह सही है कि अमित शाह के काम करने का तरीका कुछ लोगों  को कुछ हद तक अधिनायकवादी लग सकता है। लेकिन जिस तरह वह अपने तर्कों को लोकसभा की बहसों में पेश करते हैं और जिस तरह कानूनी जानकारों को भी अपने तर्कों से निरुत्तर कर देते हैं, उससे यह लगता है कि वे जल्दबाजी में या बिना कुछ सोचे--समझे ये कदम नहीं उठा रहे हैं। बल्कि उन्होंने अपने हर कदम के पहले पूरा चिंतन किया है और उसको संविधान के दायरे में लाकर लागू करने की रणनीति बनाई है, ताकि उसके रास्ते में कोई रुकावट न आए। 

अगर हम आजाद भारत के इतिहास पर नजर डालें तो जैसा मैंने कई बार सोशल मीडिया पर भी लिखा है कि नक्सलवाद  जैसी अतिवादी विचारधारा का जन्म बंगाल की वामपंथी दमनकारी नीतियों के विरुद्ध हुआ था। जो भी सरकार केन्द्र या प्रांत में होती है, जब तक उसका विरोध प्रखर नहीं होता तब तक वह उसे बर्दाश्त कर लेती है। लेकिन देखने में आया है कि जब-जब विरोध प्रखर होता है और सत्ता में बैठा मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री या जो दल है वह मजबूत होता है तो उसकी प्रतिक्रिया प्राय: हिंसक होती है। इसके अपवाद बहुत कम मिलते हैं। जो लोग आज भारतीय जनता पार्टी की सरकार पर अतिवादी होने का आरोप लगा रहे हैं, उनको इस बात पर भी विचार करना चाहिए क्या पिछली सरकारों में ऐसी घटनाएंं नहीं हुई थीं। मसलन जब बोफोर्स विवाद चल रहा था तब 1987 में ‘इंडियन एक्सप्रैस’ के पत्रकारों पर तेजाब किसने और क्यों फिंकवाया था। यह बहुत ही गंभीर मामला था। लेकिन उसे आज हम भूल जाते हैं। इसी के साथ एक दूसरा विषय यह भी है कि योग्यता के सवाल को लेकर जैसे जवाहरलाल नेहरू विवि. में ही प्रश्न उठाए गए कि कुलपति के द्वारा अयोग्य लोगों की भर्तियां की जा रही हैं। क्या वामपंथी यह कह सकते हैं कि जब उनका प्रभाव था तब क्या सारी भर्तियां योग्यता के आधार पर ही हुई थीं। तब क्या वामपंथियों ने अयोग्य लोगों की भर्तियां नहीं कीं? 

कश्मीरी पंडितों के लिए क्यों नहीं दिखाई गई एकजुटता
इसी तरह एक प्रश्न सामान्य भारतीय के मन में आता है वो यह कि आज बहुत बड़ी तादाद में मुसलमान सड़कों पर तिरंगा झंडा लहरा रहे हैं और जनगणमन गा रहे हैं और उन्हें इस बात की भी खुशी है कि बहुत सारे हिन्दू भी उनके साथ कंधे से कंधा मिलाकर ये लड़ाई लड़ रहे हैं। पर क्या यह जो एकजुटता है वह हमेशा रहने वाली है? अगर हमेशा रहने वाली है, तो इसका अतीत क्या है? कश्मीर में जब हिन्दुओं को, खासकर जब कश्मीरी पंडितों को आतंकित करके रातों-रात निकाला गया, पूरी कश्मीर घाटी को हिन्दुओं से खाली करवा लिया गया, उस वक्त इस तरह की एकजुटता क्यों नहीं दिखी। हिन्दू और मुस्लिम एक साथ कश्मीरी पंडितों के लिए सड़कों पर पिछले 30 सालों में कितनी बार निकले? जिस वक्त श्रीनगर के लाल चौक पर रोज तिरंगे झंडे जलाए जा रहे थे, उस वक्त कितने मुसलमानों ने शेष भारत में सड़कों पर उतर कर इसका विरोध किया कि यह हमारा राष्ट्रीय ध्वज है, इसे न जलाया जाए। कितनी बार ऐसा हुआ है कि मोहर्रम के ताजिए या रामलीला की शोभायात्रा में बड़े-बड़े साम्प्रदायिक दंगे हुए हैं। यह सही है कि दंगे भड़काने का काम राजनीतिक दल और स्वार्थी तत्व करते आए हैं। लेकिन समाज के स्तर पर अगर दोनों में इतनी सहानुभूति और समझ है तो फिर उसका प्रदर्शन सामान्य समय पर देखने को क्यों नहीं मिलता? इसलिए ऐसा लगता है क्योंकि इस समय मुसलमान असुरक्षित महसूस कर रहे हैं इसलिए उनका देशप्रेम झलक रहा है।-विनीत नारायण
 

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