नजरिया: डाक खानों से नहीं दिलों से शुरू करनी होगी भारत-पाक वार्ता

Edited By Anil dev,Updated: 20 Sep, 2018 07:11 PM

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इमरान खान ने मोदी को खत लिखा, मोदी ने इमरान खान को जवाबी ख़त लिखा और इस खत -ओ -खितावत ने  कुछ साल से चली आ रही खामोशी में जुम्बिश भर दी। नतीजा यह है कि अब भारत और पाकिस्तान के विदेश मंत्री संयुक्तराष्ट्र की आम सभा के दौरान मिलने को राजी हो गए हैं।...

नेशनल डेस्क (संजीव शर्मा): इमरान खान ने मोदी को खत लिखा, मोदी ने इमरान खान को जवाबी ख़त लिखा और इस खत-ओ-किताबत ने कुछ साल से चली आ रही खामोशी में जुम्बिश भर दी। नतीजा यह है कि अब भारत और पाकिस्तान के विदेश मंत्री संयुक्तराष्ट्र की आम सभा के दौरान मिलने को राजी हो गए हैं। यह आम सभा अगले पखवाड़े न्यूयॉर्क में होनी है। हालांकि, भारत ने इसमें कुछ शर्तें या सपष्टीकरण भी जोड़े हैं। विदेश मंत्रालय ने यह भी स्पष्ट किया कि इस मीटिंग का यह मतलब नहीं है कि पाकिस्तान के प्रति हमारी नीति में कोई बदलाव आया है, न ही इसे संवाद की शुरुआत माना जाए। यानी ये तो वही बात हुई  कि - 'मैंने उसका खत देखा और रख दिया बिना पढ़े हुए, मैं जानता हूं कि उसमें भूल जाने का मशवरा होगा' और अगर यह सही है और होना भी चाहिए तो फिर सवाल यह है कि आखिर इस मुलाकात के मायने क्या हैं। अगर यह संवाद की शुरुआत नहीं तो फिर क्या है? देश जानना चाहता है। 

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जाहिरा तौर पर दोनों ही देशों के बुद्धिजीवी यह समझना चाहते होंगे। कहीं ऐसा तो नहीं कि भारत इमरान खान की चाल में फंस गया है। इमरान खान ने अपने शपथपूर्व सम्बोधन में कहा था कि भारत एक कदम चलेगा तो हम दो कदम चलेंगे। उनका यह दांव काम कर गया था। उनकी शपथ के बाद से लेकर अब तक जो सिद्धू स्त्रोत चल रहा है, उसने भी कहीं न कहीं भारत या यूं कह लें कि बीजेपी सरकार को बैकफुट पर धकेलने का काम किया है। पाकिस्तान के इनकार के बावजूद सिद्धू इस मामले पर गेंद को मोदी सरकार के पाले में डालने में कामयाब रहे हैं। दरअसल सिद्धू चतुर सुजान हैं। उन्होंने बड़ी सफाई से धार्मिक भावनाओं का सियासी दोहन किया है। और यही उस दुविधा का जनक बना जिसमें इस समय भारत सरकार और उसका विदेश मंत्रालय फंसा हुआ है। यानी न करते बन रहा न बिना किए रहा जा रहा। विदेश मंत्रियों की बैठक को लेकर हामी और साथ में यह कहना कि इसे संवाद की शुरुआत न माना जाए। 

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यह तो यही दर्शाता है कि मोदी या सुषमा के लिए स्थितियां सांप के मुंह में छिपकली सरीखी हैं। न खाते बने न उगलते। या तो बात शुरू हो या फिर न हो। लेकिन अगर यह संवाद की शुरुआत नहीं है तो क्या सिर्फ सुषमा और शाह महमूद कुरैशी बैठकर चाय पिएंगे, क्योंकि यह  मोदी जी का पसंदीदा पेय है। और लौट आएंगे? क्या यह देश के साथ छल न होगा? और फिर अगर यह सही है तो सिद्धू-बाजवा की जफ्फी पर क्यों शोर मचाया जाए ? एक तरफ आप कहते हैं कि जब तक सीमा पार से आतंक नहीं रुकता, हम कोई बात नहीं करेंगे,  क्रिकेट  की द्विपक्षीय सीरीज नहीं खेलेंगे और दूसरी तरफ आप मिलेंगे, चाय पिएंगे, लेकिन कोई बात नहीं करेंगे। ये क्या बात हुई? हमारा मानना है कि अगर दोनों देशों के विदेशमंत्री मिल रहे हैं तो बिना किसी हिचक के आतंकवाद, करतारपुर साहिब और व्यापार जैसे मसलों पर विस्तृत चर्चा होनी ही चाहिए। बिना चर्चा भारत-पाक समस्या का हल नहीं निकल सकता। गोली और बोली का फर्क और महत्ता हमें समझनी ही होगी। और ऐसा भी नहीं है कि इससे हम या वे वाकिफ नहीं हैं। 

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हालांकि, पाकिस्तान की मंशा पर एकदम से यकीन भी नहीं किया जा सकता। खासतौर पर तब जब एक तरफ वे बातचीत के लिए भारत सरकार को खत लिख रहे हों और दूसरी तरफ बुरहान वानी पर डाक टिकट जारी कर रहे हों। इसलिए भारत को या तो यह वार्ता सिरे से रद्द करनी चाहिए या फिर इसे एक नई पहल के रूप में बदल देना चाहिए। बीच का कोई रास्ता सही नहीं होगा कि मिलेंगे तो जरूर, लेकिन संवाद की शुरुआत न माना जाए। आखिर कब तक सीमा पर बेकसूर मारे जाते रहेंगे, सुहाग मिटते रहेंगे और माताओं की गोदें सूनी होती रहेंगी ? आर या पार का फैसला एकमुश्त हो जाना चाहिए। लेकिन ऐसा लगता है कि भरी चुनावी बेला में अब मोदी सरकार अपनी विदेश नीति की खामियों से डरी हुई है। इसलिए वह कोई ठोस फैसला नहीं ले पा रही। अब देखिए न, मोदी दौड़े-दौड़े बिम्सटेक की बैठक में काठमांडू गए। लेकिन उसके तीन दिन बाद ही नेपाल ने भारत में सैन्य अभ्यास में सैनिक भेजने से मना करके एक तरह से बिम्सटेक सैन्य अभ्यास का बहिष्कार कर दिया। 

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ऐसे में, ऐसा भी सन्देश जा रहा है कि नेपाल जैसे राष्ट्र की हिमाकत ने भारत के विदेश नीति-निर्धारकों को हिला कर रख दिया है। अमेरिका के साथ दोस्ताना संबंधों के तमाम दावों की भी रोज लगने वाले प्रतिबंधों के रूप में हवा निकल रही है। और यही वजह है कि सरकार के कारिंदे अब पाकिस्तान सरकार के खत से घबराये हुए हैं और उन्होंने न्यूयॉर्क में बैठक की हामी भर दी है बिना किसी एजेंडे के, ताकि कहीं यह सन्देश न चला जाए कि भारत खुद पहल नहीं चाहता, लेकिन फिर उस स्टैंड का क्या हुआ कि सीमा पार से गोलीबारी-आतंक के चलते बात नहीं हो सकती। उस बयान का क्या हुआ कि खून और पानी एक साथ नहीं बह सकते। स्पष्टता वांछित है। खासकर जनभावनाओं का ख्याल जरूरी है, क्योंकि वो कहते हैं ना कि :-

मुमकिन है तू जिसे समझता है बहारां 
औरों की निगाह में वो मौसम हो खिजां का 

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