Edited By Niyati Bhandari,Updated: 14 Sep, 2019 07:40 AM
परिवार का हर पितृ यह कामना करता है कि उसके वंश में कोई ऐसा पुत्र पैदा हो, जो गया जाकर उसका पिंडदान कर उसे अक्षय तृप्ति दे। भारत के पवित्र पितृ तीर्थ गया के विषय में कहा गया है कि यहां एक
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परिवार का हर पितृ यह कामना करता है कि उसके वंश में कोई ऐसा पुत्र पैदा हो, जो गया जाकर उसका पिंडदान कर उसे अक्षय तृप्ति दे। भारत के पवित्र पितृ तीर्थ गया के विषय में कहा गया है कि यहां एक बार किए गए पिंडदान के बाद अगर वार्षिक श्राद्ध न भी हो तो उसे वार्षिक श्राद्ध का पाप नहीं लगता। शास्त्रों के अनुसार धर्म की पुत्री धर्मवती अपने पति महर्षि मरिचि के चरण दबा रही थी, उसी समय वहां ब्रह्माजी पधारे। धर्मवती ने यह जानकर कि ये मेरे श्वसुरजी हैं पति का चरण छोड़ उठ कर उनका स्वागत किया किंतु महर्षि मरिचि ने पतिसेवा त्याग रूप इसे अपराध माना और पत्नी को शिला हो जाने का श्राप दे दिया।
उसके पश्चात धर्मवती ने सहस्र वर्षों तक कठोर तपस्या की। उसकी तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान नारायण तथा सभी देवताओं ने उसे वरदान दिया कि उसके शिला रूप पर सभी देवताओं की स्थिति रहेगी। वहां गय नाम का एक असुर केवल तपस्या में ही प्रीति रखता था। वह दीर्घकाल से निष्काम भाव से तप करता रहा। भगवान नारायण ने उसे वरदान दिया कि उसकी देह समस्त तीर्थों से भी अधिक पवित्र हो जाए। इस वरदान के पश्चात भी असुर तपस्या करता रहा।
उसके तप से त्रिलोकी संतप्त होने लगे। सभी देवता संतप्त हो उठे। अंत में भगवान विष्णु के आदेश पर ब्रह्माजी गय के पास गए। वहां यज्ञ करने के लिए उसकी देह मांगी। वह सो गया। वहां ब्रह्माजी ने उसके शरीर पर यज्ञ किया। किंतु यज्ञ पूरा होने पर वह असुर फिर उठने लगा। उस समय देवताओं ने धर्मवती की शिला गयासुर के ऊपर रख दी। इतने पर भी जब वह फिर उठने लगा तो सभी देवताओं के साथ भगवान विष्णु स्वयं वहां उसके ऊपर गदाधर रूप में विराजमान हुए। गय नामक असुर की पूरी देह तकरीबन 15 किलोमीटर विस्तृत है। वह परम पवित्र है इसलिए यहां कहीं भी पिंडदान करने से पितृ प्रेतयोनि तथा नरक से छूटकर अक्षय तृप्ति प्राप्त करते हैं।
पितरों को तृप्त करने की कामना करने वाला इंसान पहले अपनी पितृभूमि पर जाकर अपने सिर के बाल, दाढ़ी-मूंछ मुंडवाकर गेरुआ वस्त्र पहनकर अपने घर में पितरों को आमंत्रित करता है। उसके बाद गाजे-बाजे के साथ पानी में सुगंधित द्रव्य अथवा दूध की धारा या धान का लावा बिखेरते हुए पूरे ग्राम के श्मशान की परिक्रमा करता है। इस विधि को ‘गांठ गोठना’ कहते हैं। इसके बाद वह अपने गांव नहीं लौटता। गांव से 5-7 किलोमीटर दूर जाकर वहां फिर पितृ श्राद्ध कर वह गया के लिए प्रस्थान करता है। गया जाने के लिए लोग समूह में बस द्वारा जाते हैं। इनको एक साथ ले जाने वाले को ‘गयावाल’ कहते हैं। गया जाने वाला प्रत्येक दम्पति अपने साथ अपनी भोजन सामग्री रखता है। रास्ते में उपयुक्त स्थान देखकर वहां भोजन विश्राम के बाद वह अपनी यात्रा आरंभ करता है। पुनपुन के बाद फल्गु नदी में स्नान कर उसके किनारे श्राद्ध किया जाता है।
राम शिला से कुछ दूरी पर एक वट वृक्ष है जहां काक बलि, श्वान बलि तथा यम बलि दी जाती है। राम शिला से छ: किलोमीटर दूर प्रेत शिला और ब्रह्म कुंड है। इसे प्रेत पर्वत भी कहते हैं। ब्रह्म कुंड से 400 सीढ़ी चढ़कर लोग प्रेत शिला पहुंच कर यहां सत्तू चढ़ाते हैं। गया में पहुंचने वाले यात्री वैतरणी, भीम गया, भस्म कूट, ब्रह्म सरोवर, अक्षयवट, गदालोल, मंगलागौरी, आकाश गंगा, गायत्री देवी, संकटा देवी, ब्रह्मयोनि, सरस्वती-सावित्री कुंड, मतंगवापी, धर्मारण्य, बोधगया में दर्शन-तर्पण के बाद अपने घर लौटकर हवन आदि कर गेरुआ वस्त्र का परित्याग कर ब्राह्मणों को दान तथा अपनी बिरादरी को भोजन कराते हैं, जिसे गया का होम कहा जाता है। गया में कोई ऐसा स्थान नहीं है, जहां तीर्थ न हो। यहां सभी तीर्थों का सान्निध्य होने से गया तीर्थ को सर्वश्रेष्ठ तीर्थ कहा गया है।