शास्त्रों के अनुसार इन नक्षत्रों में जन्मे बच्चे, स्वयं के साथ-साथ संबंधियों को भी देते हैं कष्ट

Edited By ,Updated: 25 May, 2016 08:59 AM

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शास्त्रों की मान्यता है कि संधि क्षेत्र हमेशा नाजुक और अशुभ होते हैं। जैसे मार्ग संधि (चौराहे-तिराहे), दिन-रात का संधि काल, ऋतु, लग्र और ग्रह के संधि स्थल आदि को शुभ नहीं मानते हैं। इसी प्रकार गंड-मूल नक्षत्र भी संधि क्षेत्र में आने से नाजुक और...

शास्त्रों की मान्यता है कि संधि क्षेत्र हमेशा नाजुक और अशुभ होते हैं। जैसे मार्ग संधि (चौराहे-तिराहे), दिन-रात का संधि काल, ऋतु, लग्र और ग्रह के संधि स्थल आदि को शुभ नहीं मानते हैं। इसी प्रकार गंड-मूल नक्षत्र भी संधि क्षेत्र में आने से नाजुक और दुष्परिणाम देने वाले होते हैं। शास्त्रों के अनुसार इन नक्षत्रों में जन्म लेने वाले बच्चों के सुखमय भविष्य के लिए इन नक्षत्रों की शांति जरूरी है। मूल शांति कराने से इनके कारण लगने वाले दोष शांत हो जाते हैं।

 

क्या हैं गंड मूल नक्षत्र

राशि चक्र में ऐसी तीन स्थितियां होती हैं जब राशि और नक्षत्र दोनों एक साथ समाप्त होते हैं। यह स्थिति ‘गंड नक्षत्र’ कहलाती है। इन्हीं समाप्ति स्थल से नई राशि और नक्षत्र की शुरूआत होती है। लिहाजा इन्हें ‘मूल नक्षत्र’ कहते हैं। इस तरह तीन नक्षत्र गंड और तीन नक्षत्र मूल कहलाते हैं। गंड और मूल नक्षत्रों को इस प्रकार देखा जा सकता है।

 

कर्क राशि व अश्लेषा नक्षत्र एक साथ समाप्त होते हैं। यहीं से मघा नक्षत्र और सिंह राशि का उद्गम होता है। लिहाजा अश्लेषा गंड और मघा मूल नक्षत्र है।

 

वृश्चिक राशि में ज्येष्ठा नक्षत्र एक साथ समाप्त होते हैं, यहीं से मूल नक्षत्र और धनु राशि की शुरूआत होने के कारण ज्येष्ठा ‘गंड’ और ‘मूल’ का नक्षत्र होगा।

 

मीन राशि और रेवती नक्षत्र का एक साथ समाप्त होकर यहीं से मेष राशि व अश्विनी नक्षत्र की शुरूआत होने से रेवती, गंड तथा अश्विनी मूल नक्षत्र कहलाते हैं।

 

उक्त तीन गंड नक्षत्र अश्लेषा, ज्येष्ठा और रेवती का स्वामी ग्रह बुध है तथा तीन मूल नक्षत्र मघा, मूल व अश्विनी का स्वामी ग्रह केतु है। 27 या 10वें दिन जब गंडमूल नक्षत्र दोबारा आए उस दिन संबंधित नक्षत्र और नक्षत्र स्वामी के मंत्र जप, पूजा व शांति करा लेनी चाहिए। इनमें से जिस नक्षत्र में शिशु का जन्म हुआ उस नक्षत्र के निर्धारित संख्या में जप-हवन करवाने चाहिएं।

 

गंड मूल नक्षत्र शांति मंत्र

अश्विनी नक्षत्र (स्वामित्व अश्विनी कुमार): ॐ  अश्विनातेजसाचक्षु: प्राणेन सरस्वतीवीर्यम। वाचेन्द्रोबलेनेंद्राय दधुरिन्द्रियम्। ॐ  अश्विनी कुमाराभ्यां नम: ।। (जप संख्या 5,000)।

 

अश्लेषा (स्वामित्व सर्प) : ॐ  नमोस्तु सप्र्पेभ्यो ये के च पृथिवी मनु: ये अंतरिक्षे ये दिवितेभ्य: सप्र्पेभ्यो नम:।। ॐ  सप्र्पेभ्यो नम:।। (जप संख्या 10,000)।

 

मघा (स्वामित्व पितर): ॐ  पितृभ्य: स्वधायिभ्य : स्वधानम: पितामहेभ्य स्वधायिभ्य: स्वधा नम:। प्रपितामहेभ्य स्वधापिभ्य : स्वधा नम:

अभन्नापित्रो भी मदन्त पितरोऽतीतृपन्तपितर: पितर: शुन्धध्वम्।। ॐ  पितृभ्यो नम: पितराय नम:।। (जप संख्या 10,000)।

 

ज्येष्ठा (इंद्र) : ॐ  त्रातारमिन्द्रमवितारमिन्द्र हवे हवे सुह्न शूरमिन्द्रम हृयामि शक्रं पुरुहूंतमिन्द्र स्वस्तिनो मधवा धात्विंद्र:।। ॐ  शक्राय नम:।। (जप संख्या 5,000)।

मूल (राक्षस): ॐ  मातेव पुत्र पृथ्वी पुरीष्यमणि स्वेयोनावभारुषा। तां विश्वेदेवर्ऋतुभि:

संवदान: प्रजापतिविश्वकर्मा विमुच्चतु।। ॐ  निर्ऋतये नम:।। (जप संख्या 5,000)।

रेवती (पूषा): ॐ  पूषन् तवव्रते वयं नरिष्येम कदाचन स्तोतारस्त इहस्मसि।। ॐ  पूष्णे नम:। (जप संख्या 5,000)।

 

गंड नक्षत्र स्वामी बुध के मंत्र

ॐ  उदबुध्यवाग्ने प्रति जागृहि त्वमिष्ठापूर्ते संसृजेथामयं च अस्मिन्त्सधस्थे अध्युत्तरस्मिन् विश्वेदेवा यजमानश्च सीदत।।’  के नौ हजार जप कराएं। दशमांश संख्या में हवन कराएं। हवन में अपामार्ग (ओंगा) और पीपल की समिधा काम में लें।

 

मूल नक्षत्र स्वामी केतु के मंत्र

ॐ  केतुं कृण्वन्न केतवे पेशो मय्र्याअपेश’ से समुषभ्दिजायथा:।। ‘के सत्रह हजार जप कराएं और इसके दशमांश मंत्रों के साथ दूब और पीपल की समिधा काम में लें।

 

गंड मूल नक्षत्रों में जन्म का फल

मूल नक्षत्र के प्रथम चरण में उत्पन्न होने वाले शिशु (पुलिंग) के पिता को कष्ट, द्वितीय चरण में माता को कष्ट और तृतीय चरण में धन ऐश्वर्य हानि होती है। चतुर्थ चरण में जन्म हो तो शुभ होता है। जन्म लेने वाला शिशु स्त्रीलिंग हो तो प्रथम चरण में श्वसुर को, द्वितीय में सास को और तीसरे चरण में दोनों कुल के लिए नेष्ट होती है। चतुर्थ चरण में जन्म हो तो शुभ होता है।

 

अश्लेषा के प्रथम चरण में जन्मे जातक के लिए शुभ, द्वितीय चरण में धन ऐश्वर्य हानि और तृतीय चरण में माता को कष्ट होता है। चतुर्थ चरण में जन्म हो तो पिता को कष्ट होता है। जन्म लेने वाला शिशु स्त्रीलिंग हो तो प्रथम चरण में सुख-समृद्धि और अन्य चरणों में सास को कष्ट कारक होती है।

 

मघा के प्रथम चरण में जन्मे जातक/ जातिका की माता को कष्ट, द्वितीय चरण में पिता को कष्टकारक, तृतीय चरण में सुख समृद्धि और चतुर्थ चरण में जन्म हो तो धन लाभ।

 

ज्येष्ठा के प्रथम चरण में बड़े भाई का नेष्ट, द्वितीय चरण में छोटे भाई को कष्ट, तीसरे में माता को तथा चतुर्थ चरण में जन्म होने पर स्वयं के लिए कष्टकारक होता है। स्त्री जातक का जन्म हो तो प्रथम चरण में जेठ को, द्वितीय में छोटी बहन/देवर को तथा तृतीय में सास/माता के लिए कष्ट। चतुर्थ चरण में जन्म हो तो देवर के लिए श्रेष्ठ। रेवती के प्रथम तीन चरणों में स्त्री/पुरुष जातक का जन्म हो तो अत्यंत शुभ, राज कार्य से लाभ तथा धन ऐश्वर्य में वृद्धि होती है लेकिन चतुर्थ चरण में जन्म हो तो स्वयं के लिए कष्टकारक होता है। अश्विनी के प्रथम चरण में पिता को कष्ट शेष तीन चरणों में धन-ऐश्वर्य वृद्धि, राज से लाभ तथा मान-सम्मान मिलता है।

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