परिचय

Edited By Punjab Kesari,Updated: 21 Jan, 2018 10:16 AM

introduction

रोजअपनेआस पास किसी न किसी शादीशुदा लड़कीको परेशानया रोते हुए देखती हूँ. हमेशा हॅसने वालीऔर खुश रहने वाली रीना आज डिप्रेशन की शिकार है , क्योँकि जिस लड़की क़ो उसके पापा राजकुमारी की तरह रखते थे, उसी रीना को उसके ससुराल वाले बिलकुल नौकर की तरह समझते हैं....

रोजअपनेआस पास किसी न किसी शादीशुदा लड़कीको परेशानया रोते हुए देखती हूँ. हमेशा हॅसने वालीऔर खुश रहने वाली रीना आज डिप्रेशन की शिकार है , क्योँकि जिस लड़की क़ो उसके पापा राजकुमारी की तरह रखते थे, उसी रीना को उसके ससुराल वाले बिलकुल नौकर की तरह समझते हैं. उसका पति भी उसका किसी भी तरह से साथ नहीं देता है. आज ऑफिस में बैठे बैठे सोचा, क्यों न कुछ लिखूं - आज की नारी की आवाज़, उसकी दिल की बातें, जो वो अपने ससुरालवालों और पति को नहीं समझा पाती. कभी कभी सोचती हूँ, क्यों आदमियों और औरतों के लिए अलग अलग नियम बनाये गए हैं, क्यों औरतो को आदमियों की तरह जीने का हक़ नहीं है, क्यों वो अपनी मर्ज़ी से कुछ नहीं कर सकती, क्यों उन्हें छोटी छोटी बातो के लिए किसी आदमी की स्वीकृति लेनी पड़ती है - पिता की, पति की, भाई की; क्यों वो अपने बारे में नहीं सोच सकती, और अगर सोचे तो स्वार्थी है. ऐसे ही कुछ सवाल मेरे मन में हमेशा उठते रहते हैं. क्या इनका जवाब मैं अपने बड़ो से मांग सकती हूँ, शायद नहीं, क्योंकि फिर शायद मैं बत्तमीज़ हूँ. क्यों हमारे देश में हर मोड़ परऔरतों को ही गलत आंका जाता है, और अपने आपको सही साबित करने में ही उनकी पूरी ज़िन्दगी निकल जाती है, जिसके लिये वो सब कुछ बर्दाश्त करतीजातीहैं. घर में लड़ाई हो तो बहु की गलती, अगर बेटा माँ को गलत बोले तो बहु की गलती, अगर बेटा अपनी घर से अलग हो जाये तो बहु की ग़लती, अगर बच्चे कुछ गलत करें तो बहु की गलती - ज़रूर उसकी माँ ने सिखाया होगा, अगर वो नौकरी करती हो, और बहुत थक जाने की वजह से घर का काम ठीक से नहीं कर पाती हो तो भी उसकी गलती, और अगर सही में उसीकी गलती हो तो भी उसकी माँ ने ही उसे ये सिखाया होगा - क्या घर में एक बच्चा सब कुछ अपनी माँ से ही सीखता है..? क्या घर के बाकी लोगों का उसपे कोई प्रभाव नहीं पड़ता? आखिर किसने बनाये ये नियम? शायद हमारे पूर्वजों से चलता आ रहा है ये सब, उन्होंने ही ये नियम बनाए होंगे, इसलिए आज तक भी लोग इनको सही मान कर इनका अनुकरण करते हैं. असल में जबये नियम बनाये गए थे तब परिस्थितियां बहुत अलग थीं, तब औरतें नौकरी नहीं करती थीं, घर से बाहर नहीं निकलतीं थीं, बस घर का काम करना और बच्चों की और पूरे परिवार की देखभाल करना ही उनके जीवन का एक मात्र ध्येय समझा जाता था,उसपरभी कुछ आनाकानी की तो कभी मार भी पड़ जाती थी, एक नौकर ही थीं वो घर की, अरे नहीं, नौकर कैसे होंगी , नौकरानी को तो महीने का वेतन भी देना पड़ता है और उसे मार भी तो नहीं सकते, वो पतिका मनोरंजन भी नहीं करेगी रात को, और सबसे बड़ी बात, वंश भी तो आगे बढ़ाना है खानदान का, अगर घर में लड़का नहीं पैदा हुआ तो वंश ही खत्म हो जायेगा. हमारे बुज़ुर्ग कहते हैं की अगर उन्होंने ये नियम बनाएं हैं तो कुछ सोच समझ के ही बनाए होंगे, आखिर वो हमारे बड़े हैं. आप ही बताइये ऐसा किसने कहा अगर वो बड़े हैं तो वो अपने आने वाली पीढ़ियों के लिए नियम बना सकते हैं, और हर आने वाली को ये नियम मानने ही होंगे, चाहे परिस्थितियाँ कितनी ही बदल जाएं. समय बदलता है, साथ में परिस्थितियां भी बदलती हैं, तो नए नियम भी बनने चाहियें, आखिर बदलाव ही दुनिया का चलन है. अगर वो हमारे बड़े हैं, अगर वो हमसे पहले इस दुनिया में आये हैं तो उनके बनाए नियम सही और हम गलत हो गए? ये कैसा तर्क है, शायद उन्होंने हमसे ज्यादा दुनिया देखी है, हमसे ज्यादा तजुर्बा है उन्हें. पर क्या उन्होंने वो दुनिया देखी है, जो हमने देखी है, इक्कीसवी सदी की दुनिया, जो उनकी दुनिया से बिलकुल अलग है. फिर तब के नियम आज की सदी के लिये कैसे उपयुक्त हो सकते हैं? वो हमारे पुर्वज हैं क्योंकि वो हमसे पिछली सदी में पैदा हुए. क्या ये तर्क काफी है कि वो हमारे लिए सही और ग़लत का फैसला कर सकते हैं. एक समय में सति प्रथा और दहेज प्रथा जैसे नियम भी थे जो अब कानूनन जुर्म माना जाता है. आज ये सिद्ध हो चुका है की वो नियमॉ गलत थे,इसलिए उन्हें ख़त्म कर दिया गया. उसी तरह कई और गलत नियमों का खत्म होना भीइस देश के विकास के लिए बहुत ज़रूरी है. ऐसे बहुत सारे सवाल हैं जो शायद हर आधुनिक नारी के मन में उठते होंगे , पर वो गलत ठहराए के डर से इन सवालों को नहीं उठा पाती, क्योंकि औरत को तो बलिदान की मूरत माना जाता रहा है, इसलिये अगर अपने बारे में सोचें या अपने लिए लड़ीं तो वो गलत ही हुईं न!! और फिर जिनसे अपने लिए लड़ेंगी वो तो उनके अपने ही हैं, उनका अपना परिवार है. और शायद कुछ सवाल उठायें तो भी कोई तार्किक जवाब नहीं मिलेगा. हम उन्हें समझाना चाहते हैं हम बलिदान दे देकर थक गए हैं. हम भी आख़िर एक इंसान हैं, हमें भी भगवान ने दिल दिया है जिसे न जाने कितनी बार ठेस पहुँचती है, फिर भी आंसू का घूट पीकर चेहरे पर वही मुस्कान ले आती हैं,हमें भी भूख लगती है, नींद आती है, हमें भी प्यार की ज़रूरत है. इसलिए ये मेरी एक छोटी सी कोशिश है उन सब लोगों तक ये बातें पहुंचाने की जिन्हें लगता है कि औरत पैदा ही आदमी काअनुकरण करने और उनकी सेवा करने के लिये होती है. बस अबऔरनहीं..!!

 

प्रज्ञा मोरन
 

9650433334

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