पं. प्रेमनाथ डोगरा की महानता आज भी कायम

Edited By ,Updated: 20 Feb, 2017 12:43 AM

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निधन के 45 वर्ष पश्चात भी पंडित प्रेमनाथ डोगरा का नाम बड़े आदर के साथ लिया जाता है। इतना लम्बा समय बीत जाने के पश्चात उनका निजी आवासीय...

निधन के 45 वर्ष पश्चात भी पंडित प्रेमनाथ डोगरा का नाम बड़े आदर के साथ लिया जाता है। इतना लम्बा समय बीत जाने के पश्चात उनका निजी आवासीय ठिकाना अब भी राजनीतिक गतिविधियों का केंद्र बना हुआ है जिससे वहां प्रत्येक आने-जाने वालों को पंडित जी की महानता का अनुभव होता है।पंडित डोगरा एक खिलाड़ी थे, खेलों के साथ उनकी रुचि बुढ़ापे में भी बनी रही। वह एक उत्तम प्रशासक थे। उनकी प्रशासनिक योग्यताओं की सराहना उनके विरोधी भी करते थे भले ही उन्हें महाराजा के दरबारियों की चालों के कारण प्रशासन ने समय से पूर्व सेवानिवृत्त कर दिया। पंडित डोगरा सामाजिक बुराइयों के विरुद्ध जीवन भर सक्रिय रहे।

1931 में जब महाराजा ने सभी के लिए धार्मिक स्थलों के द्वार खोलने का आदेश दिया तो आपने  अपनी अत्यंत बुद्धिमता के साथ छुआछूत की बुराई के विरुद्ध सफल संघर्ष किया और ऐसे पग उठाए जिनसे तनाव की संभावनाएं समाप्त हो गर्ईं।

आपके जीवन का सबसे महत्वपूर्ण दौर देश में दुखदायी बंटवारे के साथ 1947 में आरंभ हुआ। बंटवारे से कुछ एक सप्ताह पूर्व ही बड़ी संख्या में विस्थापित पड़ोसी पंजाब और सीमांत प्रांत से पहुंचना शुरू हो गए। मानवीय मूल्यों के नाते इन शरणाॢथयों की अस्थायी सहायता के लिए पंडित जी ने भोजन आदि उपलब्ध करने का प्रबंध करवाया किंतु पाकिस्तान के गठन के साथ ही परिस्थितियां और भी बिगड़ गईं और साथ ही जम्मू-कश्मीर के भविष्य तथा राज्य के विलय का प्रश्र भी उभर कर सामने आया।

राज्य के महाराजा हरि सिंह यद्यपि धर्मनिरपेक्ष और पक्के भारतीय थे किंतु राज्य का विलय भारत के साथ करने के रास्ते में इनके सामने कई अड़चनें थीं किंतु बाद में पाकिस्तानी आक्रमण के कारण महाराजा को विवशता में भारत के साथ विलय करना पड़ा और साथ ही सत्ता शेख मोहम्मद अब्दुल्ला को सौंप दी किंतु इसके पश्चात महाराजा हरि सिंह के संदेह सही सिद्ध हुए और उन्हें जिन परिस्थितियों में एक तरह से देश निकाले का जीवन व्यतीत करना पड़ा, एक लम्बी और दारूण गाथा है।

किंतु पंडित जी और इनके साथियों ने दूरदॢशता के साथ काम लेते हुए सत्ताधारी नैशनल कांफ्रैंस के हाथों का खिलौना बनने की बजाय राष्ट्रवादी संगठन प्रजा परिषद की नींव डाली जिसका बड़ा उद्देश्य देश की एकता और राज्य में लोकतंत्र मूल्यों को स्थापित करना था। फिर भी नए सत्ताधारियों को यह बात रास न आई क्योंकि महाराजा के शासन के अंत के पश्चात एक विचित्र सी खाई उत्पन्न हो गई थी। कश्मीर घाटी में तो नैशनल कांफ्रैंस एक सुदृढ़ संगठन थी जिसने वहां की बागडोर हाथ में ली किंतु जम्मू में कई तरह के अवसरवादी सक्रिय हो गए।

यह उल्लेखनीय है कि उस समय किसी और राज्य में कांग्रेस की कोई शाखा तक नहीं थी। कम्युनिस्ट तो पहले ही नैशनल कांफ्रैंस में घुसे हुए थे। सत्ता में परिवर्तन के पश्चात कांग्रेसियों ने भी नैशनल कांफ्रैंस को अपना घरौंदा बना लिया। 1965 में पहली बार लाल बहादुर शास्त्री के शासनकाल में 26 जनवरी को प्रदेश कांग्रेस का इस राज्य में अस्तित्व हुआ और इन्हीं दिनों सी.पी.आई. की शाखा भी जम्मू-कश्मीर में स्थापित की गई।

इसलिए 1947 से लेकर 1965 तक प्रजा परिषद ही विपक्ष का मात्र राजनीतिक संगठन था किंतु यह दायित्व निभाने के लिए पंडित गणेश और उनके साथियों को कई बड़ी परीक्षाओं से गुजरना पड़ा। उन्हें कई बार लम्बी-लम्बी जेल यात्राएं करनी पड़ीं, कितने ही लोगों को अपने प्राणों की आहूति तक देनी पड़ी और तो और देश के विपक्ष के महान नेता डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी की भी कश्मीर में कारावास के दौरान रहस्यमयी परिस्थितियों में मृत्यु हो गई।

किंतु यह पंडित प्रेमनाथ डोगरा के संघर्ष का परिणाम था कि जम्मू को एक पहचान प्राप्त हुई और यह राज्य एक लोकतांत्रिक प्रणाली के अंतर्गत देश के एक भाग के रूप में निर्माण व विकास के पथ पर आगे बढऩे लगा। 1948 में जब देश के संविधान के गठन का काम शुरू हुआ तो इस राज्य से देश की संसद में चार प्रतिनिधि शामिल किए गए जिनमें कश्मीर से चोटी के नेता शेख मोहम्मद अब्दुल्ला, कानूनविद मिर्जा मोहम्मद अफजल बेग और राजनेता मौलाना मौसूदी के अतिरिक्त जम्मू से मात्र श्री मोती राम को शामिल किया गया।

अत: देश के संविधान गठन के लिए जब मसौदा (रूपरेखा) तैयार हो रहा था तो इस राज्य का नाम केवल कश्मीर रखा गया और भाषा कश्मीरी। किंतु जब पंडित डोगरा को इस बात का पता चला तो उन्होंने राष्ट्रीय स्तर के कानूनविदों और नेताओं से सम्पर्क  किया जिनमें एन.सी. चटर्जी, शिबन लाल सक्सेना और अन्य कई शामिल थे जिनके हस्तक्षेप से देश के संविधान में जम्मू एंड कश्मीर का नाम रखा गया किंतु डोगरी को क्षेत्रीय भाषा का दर्जा पेश करने के लिए एक लम्बी प्रतीक्षा करनी पड़ी जो 2002 में अटल बिहारी वाजपेयी के शासनकाल में जाकर प्राप्त हो गया।

पंडित डोगरा लोकतांत्रिक मूल्यों पर विश्वास रखते थे और यह प्रत्येक विषय पर तर्क से काम लेते थे। वह देश की एकता और भाईचारे के पुजारी थे। वह धर्म के आधार पर किसी भी भेदभाव के सख्त विरुद्ध थे। एक श्रद्धांजलि : पंडित जी के देहांत के पश्चात एक समारोह में उन्हें श्रद्धांजलि भेंट करते हुए राष्ट्रीय सेवक संघ के एक बड़े अधिकारी माधव राव मोले ने कहा था कि पंडित जी का जीवन एक अनोखा  व्यक्तित्व  है।

जिस युग में निजी हित, लूट-खसूट, भ्रष्टाचार, धोखाधड़ी जैसी बुराइयां समाज में घर करती हों उस समाज में निष्काम सेवा, देश भक्ति की भावना से भरपूर व्यक्तित्व क्या असाधारण बात नहीं? ऐसा महान जीवन आज की पीढ़ी के लिए मार्गदर्शक बनने की शक्ति रखता है।

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