धरती पर बोझ हैं ऐसे लोग, बच कर रहें इनकी संगत से

Edited By ,Updated: 10 May, 2017 02:57 PM

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‘कृतघ्न’ संस्कृत भाषा का शब्द है, जिसे पंजाबी भाषा में ‘अकृतघण’ कहा जाता है। इसका प्रयोग उस व्यक्ति के लिए किया जाता है जो किसी द्वारा किए गए उपकार को भुला दे। श्री गुरु नानक देव जी ने

‘कृतघ्न’ संस्कृत भाषा का शब्द है, जिसे पंजाबी भाषा में ‘अकृतघण’ कहा जाता है। इसका प्रयोग उस व्यक्ति के लिए किया जाता है जो किसी द्वारा किए गए उपकार को भुला दे। श्री गुरु नानक देव जी ने किसी का उपकार न जानने वाले कृतघ्न के लिए हरामखोर शब्द प्रयोग किया है। श्री गुरु अर्जुन देव जी ने ऐसे व्यक्ति के लिए नमक हरामी, गुनहगार, बेगाना, अल्पमति आदि शब्द प्रयोग किए हैं। भाई गुरदास जी ने ऐसे कृतघ्न को नमक हरामी, गुनहगार, बेईमान, अज्ञान, मंदी हूं मंदे कहा है। कृतघ्न एक ऐसा शब्द है जो सिर्फ इंसान के हिस्से में आया है। आम तौर पर हम कृतघ्न शब्द को दुनियावी एहसान फरामोश व्यक्ति के लिए प्रयोग करते हैं किंतु गुरबाणी में यह शब्द जीव की परमात्मा के प्रति कृतघ्नता के संदर्भ में प्रयोग किया गया है। कृतघ्न व्यक्ति किस हद तक नीचे गिर सकता है, वह परमात्मा, गुरु तथा माता-पिता के प्रति कैसी कृतघ्नता करता है, उसका हश्र कैसा होता है, आदि के बारे में विचार करना हमारा उद्देश्य है।


परमात्मा के प्रति कृतघ्नता : जहां कहीं भी कृतघ्न की बात आएगी वहां लाजमी तौर पर दूसरे पक्ष द्वारा किया गया उपकार भी होगा। इसलिए मनुष्य की परमात्मा के प्रति कृतघ्नता के बारे में बात करने से पहले उस वाहेगुरु के उपकारों को जानना आवश्यक है। पंचम पातशाह सुखमनी साहिब की चौथी असटपदी में लिखते हैं कि माता के रक्त तथा पिता के बिंद के सुमेल से उस परमात्मा ने कितने सुंदर अंग तथा नयन-नक्श बनाकर इस जीव की सृजना की। माता के गर्भ में भोजन की व्यवस्था कर इसकी प्रतिपालना की। फिर जब यह जीव जन्म लेकर धरती पर आया तो अकाल पुरख ने इसके पीने के लिए माता के सीने में (दूध) पैदा कर दिया। युवा अवस्था में भोजन तथा सुखों की समझ बख्शिश की। जब वृद्धा अवस्था में हाथ-पांव काम करना बंद हो गए तो सेवा करने हेतु सगे-संबंधी, सज्जन लगा दिए जो बैठे हुए के मुंह में अच्छे भोजन छकाते रहे। उस कादर ने अपनी कुदरत में असंख्य नियामतें देकर जीव को निवाजित किया है किंतु जो गुणों को न जानने वाला निर्गुण मनुष्य गुरबाणी के कथन के अनुसार उस सृजनहार अकाल पुरख की दातों से ही प्यार डालकर बैठ जाए और देने वाले दातार को मन से विसार दे, वह मनमुख कृतघ्न है।


ऐसे कृतघ्न के लक्षण तथा हश्र बताते हुए पंचम पातशाह श्री गुरु अर्जुन देव जी पावन फरमान करते हैं :
खाना पैनदा मूकरि पाइ।।
तिस नो जोहहि दूत धरमराई।।1।।
तिसु सिउ बेमुखु जिनि जीउ पिंडु दीना।।
कोटि जनम भरमहि बहु जूना ।।1।। रहाउ।।
साकत की ऐसी है रीति।।
जो किछु करै सगल बिपरीति।।2।।
जीउ प्राण जिनि मनु तनु धारिआ।।
सोई ठाकुरु मनहु बिसारिआ।। (पन्ना 195)


कृतघ्न मनुष्य को पंचम पातशाह ने नमक हरामी, गुनहगार, बेगाना (परमात्मा से बेगाना) अल्पमति कहा है क्योंकि जिस प्रभु ने उसको जिंदगी, शरीर तथा सुख दिए हैं, उस असल तत्व की वह पहचान नहीं करता। माया के मोह में फंसाकर भटकन में ही सारी आयु बिता देता है किंतु जो दातार पिता सब दातें देने वाला है उसको अपने मन में नहीं बसाता :
लूण हरामी गुनहगार बेगाना अल्प मति।।
जीउ पिंडु जिनि सुख दीए ताहि न जानत तत।।
लाहा माइआ कारने दह दिसि ढूढन जाइ।।
देवनहार दातार प्रभ निमख न मनहि बसाइ।।
(पन्ना 261)


जिस मनुष्य को सर्वव्यापक, सृजनहार परमात्मा बिसर जाए, वह सदा विकारों की अग्रि में जलता रहता है। परमात्मा के लिए उपकारों को भूलने वाले उस कृतघ्न मनुष्य को कोई नहीं बचा सकता। वह मनुष्य सदा भयानक नरक में पड़ा रहता है। 


जिस मनुष्य को परमात्मा ने जिंदगी दी, प्राण दिए, शरीर बनाया, धन दिया, मां के पेट में रक्षा कर दया की किंतु कृतघ्न मनुष्य उस परमात्मा के सारे उपकारों को भूलकर, उससे प्रीत त्यागकर अन्य पदार्थों के मोह में मस्त रहता है, वह मनुष्य किसी तरह भी प्रवान नहीं होता।


गुरु के प्रति कृतघ्नता : श्री गुरु नानक पातशाह से लेकर श्री गुरु तेग बहादुर साहिब तक नौ पातशाहियों द्वारा हम पर किए गए उपकारों का लासानी इतिहास हमारे सामने है। दशम पातशाह के समय तो इन उपकारों की अत्यंत बढ़ौतरी हुई है। दशमेश पिता जी ने हमारी खातिर अपना सर्वस्व कुर्बान कर दिया। चारों साहिबजादे कुर्बान करवाने के उपरांत खालसे की तरफ हाथ करके कहा, ‘‘इन पुतरन के सीस पहि वार दीए सुत चार। चार मुए तो किआ हूआ जीवत कई हजार।’’

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