आप भी खाते हैं, किसी दूसरे के घर का भोजन तो हो सकता है ये Bad Effect

Edited By ,Updated: 13 Apr, 2017 11:02 AM

do not eat food of others house

कौरवों के सेनापति भीष्म पितामह शरशय्या पर लेटे थे। उन्हें इच्छा मृत्यु का वरदान प्राप्त था और उन्होंने प्रतिज्ञा की थी कि वह सूर्य के उत्तरायण होने पर ही प्राण त्यागेंगे। अब वह समय आ गया था। वह सूर्य के

कौरवों के सेनापति भीष्म पितामह शरशय्या पर लेटे थे। उन्हें इच्छा मृत्यु का वरदान प्राप्त था और उन्होंने प्रतिज्ञा की थी कि वह सूर्य के उत्तरायण होने पर ही प्राण त्यागेंगे। अब वह समय आ गया था। वह सूर्य के उत्तरायण में आने की प्रतीक्षा कर रहे थे ताकि शरीर से प्राण त्याग सकें। उचित समय जानकर धर्मराज युधिष्ठिर अंत्येष्टि क्रिया संबंधी सामग्री लेकर सभी भाइयों, धृतराष्ट्र, गांधारी, द्रौपदी और कुंती के साथ भीष्म के पास पहुंचे। दुखी हृदय और आंसू भरे नेत्र से सभी ने झुक कर उन्हें प्रणाम किया। उस समय कौरव और पांडवों का पूरा परिवार वहां उपस्थित था।


भीष्म पितामह ने प्राण त्यागने से पहले उपस्थित जनों को धर्म का उपदेश देना उचित समझा। इससे पूर्व वह युधिष्ठिर को अनुशासन और धर्म की शिक्षा दे चुके थे। पीड़ायुक्त वाणी में भीष्म ने उपदेश देते हुए कहा, ‘‘प्रियजनो धर्म की रक्षा परम आवश्यक है। स्त्री की रक्षा करना भी क्षत्रिय का परम धर्म है। जो क्षत्रिय स्त्री व धर्म की रक्षा नहीं कर पाता उसकी गति संभव नहीं।’’


पितामह का उपदेश चल ही रहा था कि वहां उपस्थित द्रौपदी स्त्री रक्षा की बात सुनकर व्यंग्य से मुस्कुरा पड़ी। पितामह की दृष्टि द्रौपदी की ओर ही थी। उसकी व्यंग्यात्मक हंसी का भाव वे समझ गए। वे द्रौपदी से बोले, ‘‘पुत्री, तेरी मुस्कुराहट और व्यंग्य को ही मैं भली-भांति समझ रहा हूं। मेरी कथनी और करनी में अंतर की बात सोचकर ही तुम मुस्कुरा रही हो। यह सत्य भी है। जिस समय भरी सभा में तुम्हारा चीर हरण हो रहा था उस समय मैं नेत्र-मूंदे, मौन धारण किए गूंगा-बहरा बना बैठा था जबकि मेरा यह कत्र्तव्य था कि ऐसे समय में तुम्हारी सहायता करूं परन्तु चाहते हुए भी मैं ऐसा नहीं कर सका। क्यों? इसका कारण नहीं जानना चाहोगी, द्रौपदी?’’


कह कर पितामह मौन हो गए। तभी दौपदी बोल उठी, ‘‘क्षमा करें पितामह, मुझसे अपराध हो गया। यह जानते हुए भी यह समय उल्टा-सीधा सोचने का नहीं है, मेरे मन में ऐसा विचार आ गया।’’


‘‘नहीं पुत्री, नहीं।’’ कराहते हुए पितामह बोले, ‘‘तुम अपराधी नहीं हो। अपराधी तो तुम्हारा यह पितामह है। तुम पर अत्याचार हुआ और मैं चुपचाप विवश-सा सब कुछ देखता रहा।’’


द्रौपदी ने हाथ जोड़ कर प्रार्थना की, ‘‘मेरा निवेदन है कि आप सब कुछ भूल जाइए पितामह। मेरा अपराध इतना है कि आपका उपदेश सुनकर कुछ देर के लिए मेरे मन में यह विचार आया था कि जिस दिन भरे दरबार में दुशासन मेरा चीर खींच रहा था, आप चुपचाप बैठे थे। आज आप शिक्षा दे रहे हैं कि स्त्री की रक्षा करना क्षत्रिय का धर्म है। कुछ आश्चर्यजनक-सा लगा था।’’


‘‘पुत्री, जानती हो ऐसा क्यों हुआ था? मैं मौन धारण किए कैसे उस दृश्य को चुपचाप बैठा सहन करता रहा? इसका भी एक रहस्य है।’’ पितामह बोले।


‘‘अब जाने भी दीजिए उस रहस्य को। मैं उस विषय में कुछ भी जानने की इच्छुक नहीं हूं। आप मेरे आदरणीय और पूज्य हैं। ऐसे समय में आपके समक्ष ऐसी दुशीलता करके मैंने आपके हृदय को ठेस पहुंचाने का अपराध किया है। मुझे क्षमा कर दीजिए।’’  द्रौपदी ने भरे गले से कहा।


‘‘नहीं पुत्री, रहस्य और सत्य बताए बिना मेरे मन को शांति नहीं मिलेगी। मैं तुम्हें यह अवश्य बताऊंगा। जिन दिनों राजसभा में तुम्हारा अपमान हुआ उन दिनों मैं कौरवों का कुधान्य खा रहा था। इस कारण मेरी बुद्धि कुंद और मलिन थी। जैसा खाए अन्न, वैसा होए मन। यही कारण था कि खड़े होकर दृढ़ता से तुम्हारे लिए न्याय नहीं मांग सका लेकिन अब लम्बे समय से मैं शरशय्या पर लेटा हुआ उपवास पर हूं। उपवास के कारण मेरी बुद्धि और मन में बसा हुआ मैल धुल चुका है इसीलिए मैं आज धर्म प्रवचन की ओर प्रवृत्त हुआ हूं। यह बिल्कुल सत्य है कि आहार की शुद्धता मनुष्य के विवेक और बुद्धि पर अपना प्रभाव अवश्य डालती है।’’ कह पितामह मौन हो गए।


डबडबाए नेत्रों में द्रौपदी पितामह के चरणों में नतमस्तक होकर बोली, ‘‘मुझे क्षमा कर दें पितामह। मैं अपराधी हूं। उसके नेत्रों से आंसू  पितामह के चरणों पर गिर पड़े।’’


शिक्षा: आप भी खाते हैं, किसी दूसरे के घर का भोजन तो ये बुरा असर आप पर भी पड़ सकता है। आहार का प्रभाव व्यक्ति के तन और मन पर अपना वर्चस्व स्थापित कर लेता है। 

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